किन्नरों पर ममता के प्रयासों को सराहने की जरूरत

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kinnarडॉ. मयंक चतुर्वेदी
भारत में तीस लाख से ज्यादा किन्नर हैं, लेकिन राजनीतिक स्तर पर देशभर में दो-चार किन्नरों को छोड़ दिया जाए तो इस समाज का विकास आज भी ऐसा लगता है जैसे वह किसी तीसरी दुनिया में जी रहे हैं। उन्हें परस्पर हंसने-बोलने की आजादी तो है लेकिन स्त्री-पुरुषों के सभ्य समाज में वे अभी भी अछूत ही माने जाते हैं। ऐसे वातावरण के बीच पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री आगे होकर इस तीसरे जेण्डर की चिंता कर रही हैं, नि‍श्चित ही इसे देखकर कहा जाना चाहिए कि राजनीति में रहकर वे मानवता की सच्ची सेवा कर रही हैं। अच्छा होता य‍दि अन्य राज्य भी इस मामले में ममता सरकार का अनुसरण करते।

वनस्पति, चींटी, हाथी और कुत्ते में भी समान रूप में आत्मभूत तत्व के दर्शन करने वाले भारतवर्ष में किन्नरों का कितना बुरा हाल है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि ये समुदाय शादी समारोह में दुल्हा-दुल्हन पक्ष से आशीर्वाद और त्योहारों पर इनाम के रूप में मिलने वाली राशि से अपना गुजारा कर रहा है। कुछ अपनी मजबूरी के चलते रेलों की बोगियों में भीख मांगते नजर आते हैं। वहीं यह समाज किसी घर में बेटा-बेटी के जन्म के समय पहुंचता है, इस आस के साथ कि उसे खुशी से कुछ नेग मिल जाएगा जो कि उसके भरण पोषण में सहयोगी होगा।

देश में सबसे पहले मध्यप्रदेश के शहडोल से विधायक बनीं किन्नर शबनम मौसी, सागर की महापौर कमला बुआ, छत्तीसगढ़ के रायगढ़ की महापौर मधु किन्नर जैसे कुछ ही नाम हैं जिन्हें हम राजनीति में सफल होते देख पाए हैं, वे भी इसीलिए सफल हुए क्यों कि आमजनता का मोहभंग सभी राजनीतिक पार्टियों से हो गया था और उसने आक्रोश की अभि‍व्यक्ति स्वरूप किन्नर को मत देकर उसे विजयश्री दिला दी। किंतु इसे हम आमजन की किन्नरों को लेकर व्यवहारिक स्वीकृति बिल्कुल नहीं मान सकते हैं।

आश्चर्य तो यह है कि किन्नरों की जन्म से जुड़ी सच्चाई को कोई देखना नहीं चाहता, जबकि सच यही है कि किसी भी किन्नर का जन्म विज्ञान की भाषा में कहें तो मां के गर्भ में शरीर संरचना में आ जाने वाली कमी के कारण होता है। यहां जायज प्रश्न यह उठता है कि जब हम किसी अंधे , लूले, लंगड़े, अपंग या मानसिक रूप से कमजोर बच्चे का परिवार और अपने समाज से बहिष्कार नहीं करते तो क्यों हम देह के स्तर पर हार्मोंस की विकृति स्वरूप पैदा होने वाले बच्चे को जन्म के पश्चात् अपनाते नहीं हैं ? यह प्रश्न इतना गहरा है कि इसका उत्तर हम सभी को सोचना होगा। प्रश्न यहां यह भी है कि मानवीयता से ऊपर देह का अ‍स्तित्व हो सकता है क्या ?

बहरहाल, पश्चिम बंगाल की ममता सरकार को इसलिए साधुवाद है क्योंकि भारत में सबसे पहले यही राज्य है जो राजनीति से ऊपर उठकर इनकी ममद के लिए सामने आया। उसने पहली बार किसी ट्रांसजेंडर (किन्नर) को बीते मई में कॉलेज का प्रिंसिपल नियुक्त करने के बाद अब पुलिस में भर्ती करने का निर्णय लिया है। राज्य सरकार ने सिविल पुलिस वोलेंटियर फोर्स (सीपीवीसी) में किन्नरों की भर्ती शुरू करने के लिए कोलकाता पुलिस से कहा है। यह ममता सरकार का किन्नरों को सशक्त बनाने की दिशा में उठाया गया तीसरा बड़ा कदम है। इससे पहले बंगाल सरकार ने इस समुदाय के उत्थान के लिए एक विशेष विकास बोर्ड का गठन किया था। साथ ही उनके लिए हाल में एक हेल्पलाइन की भी शुरुआत की थी। इससे पहले सरकार ने देश में पहली बार किसी ट्रासंजेंडर के रूप में मानबी बंद्योपाध्याय को महिला कॉलेज का प्रिंसिपल नियुक्त कर मिसाल कायम की थी। ममता सरकार में महिला एवं बाल विकास मंत्री शशि पांजा किन्नरों को लेकर सही कहते हैं कि अभी भी समाज में किन्नर समुदाय को सम्मान के भाव से नहीं देखा जाता। वास्तव में किन्नरों को आगे लाने के लिए जितने भी सरकारी प्रयास होंगे वह कम ही कहलायेंगे जब तक कि वे भारतीय समाज में समानता के स्तर पर नहीं आ जाते हैं।

भारत में यदि किन्नरों को अधि‍कार सम्पन्न बनाने की दिशा में किए जा रहे प्रयत्नों की गंभीरता पूर्वक विवेचना की जाए तो पहले हमें इसके पूर्व का अध्ययन करना चाहिए। वस्तुत: भारत में परंपरागत तौर पर किन्नरों को सामाजिक स्वीकृति हासिल थी। महाभारत काल या उससे भी पहले कई ऐसे किन्नरों का वर्णन इतिहास में मिलता है, जो न केवल राजनैतिक बल्कि सामाजिक और आर्थ‍िक स्थ‍िति में भी शक्ति सम्पन्न थे। मुगलों को आने से पहले तक भारतीय समाज में किन्नर अपने परिवारों में समान्य सदस्यों के रूप में ही रहते थे। मुगल शासकों ने इन्हें हरम और नाच-गाने से जोड़ा, जिसके बाद इन्हें एक वर्ग विशेष के रूप में पहचान मिली और इनकी गरिमा धुमिल होने लगी। जिसके बाद से इनके माता-पिता भी इन्हें घर में रखने से हिचकने लगे। इन्हें लेकर हद तो तब हो गई ज‍ब 1871 में अँग्रेज़ों ने इन्हें अपराधी समूह घोषित कर दिया और यह परतंत्र भारत से आजाद भारत में 2013 तक अपने अस्तिव व संवैधानिक पहचान के लिए संघर्ष करते रहे।

उसके बाद किन्नर नेता लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने 15 अप्रैल 2014 को वह ऐतिहासिक फैसला सुनाया था जिसमें किन्नरों को थर्ड जेंडर के रूप में वैधा‍निक मान्यता दी गई। कोर्ट ने इन्हें अन्य स्त्री-पुरुषों की तरह ही शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने के आदेश दिए और इसी के साथ उन्हें भी बच्चे गोद लेने का अधिकार मिल गया था। वस्तुत: उच्चतम न्यायालय का आया यह वो फैसला था जिसने एक ही दिन में किन्नरों को भारतीय समाज का आम हिस्सा बना दिया।

विश्व में किन्नरों को समानता के अधि‍कार दिए जाने की बात की जाए तो हमसे भी पहले कुछ देशों ने इस मामले में पहल की है। अभी भी दुनिया के कई सभ्य और विकसित देश हैं जहां इस बिरादरी को आम समाज से समानता और बंधुत्व की आस है। विश्व में पाकिस्तान, बांग्लादेश, आस्ट्रेलिया, नेपाल, न्यूजीलैंड पूर्व में अपने यहां किन्नरों को देश के आम अधि‍कारों में शामिल कर चुके हैं। इन देशों के बाद भारत का नम्बर आता है। इसके इतर यदि विकसित देशों की बात की जाए तो भले ही भौतिकता में वे इन तमाम देशों से आगे होंगे लेकिन वे किन्नरों को समानता का अधि‍कार देने में कमजोर नजर आते हैं। युरोप के विकसित देशों में अभी तक यह बहस का मुद्दा है कि किन्नरों को समान सामाजिक अधि‍कार दिए जाने के साथ उन्हें आम मान्यता दी जाए कि नहीं। इस दिशा में हां, यह जरूर अच्छी शुरूआत कही जा सकती है‍ कि भारत, नेपाल जैसे देशों से प्रेरणा लेकर अमेरिेका जैसे विकसि‍त देशों में किन्नर भी अब अपने हक के लिए आगे आ रहे हैं।

भारत में यदि किन्नरों को मुख्यधारा में लाना है तो अकेले पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु जैसे एक-दो राज्यों के आगे आने से काम नहीं चलेगा जहां कि किन्नरों के विकास के लिए सरकार द्वारा बोर्ड गठित किए गए हैं। ऐसे बोर्ड सभी प्रदेशों में गठित होने चाहिए, वहीं इनके विकास से जुड़ी अहम बात यह है कि इन्हें सबसे पहले शिक्षा की जरूरत है। केंद्र सरकार के स्तर पर किन्नरों को अधिक से अधिक शिक्षा से जोड़ने के लिए शिक्षा नीति बननी चाहिए ,जिसका कि पालन देश के हर राज्य के लिए अनिवार्य हो ।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा थर्ड जेंडर किन्नरों के लिए उठाया गया कदम मानवीय इतिहास का शुभ संकेत भले ही हो सकता है लेकिन इसका पूर्णफल तभी मिलेगा, जब आम जनमानस अपने घर में शरीरिक विकृति के साथ जन्म लेने के बाद उसे सहज स्वीकारने की स्थि‍ति में आ जाए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या उनकी भाजपा सरकार से इतनी तो उम्मीद की ही जा सकती है कि वे जो कहते हैं कि सबका साथ, सबका विकास तो वे जरूर अपने दिए नारे के लिए ही सही किन्नरों का साथ भी देश के विकास में लेकर उन्हें मुख्यधारा में लाने में सफल होंगे।

 

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मयंक चतुर्वेदी
मयंक चतुर्वेदी मूलत: ग्वालियर, म.प्र. में जन्में ओर वहीं से इन्होंने पत्रकारिता की विधिवत शुरूआत दैनिक जागरण से की। 11 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय मयंक चतुर्वेदी ने जीवाजी विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के साथ हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर, एम.फिल तथा पी-एच.डी. तक अध्ययन किया है। कुछ समय शासकीय महाविद्यालय में हिन्दी विषय के सहायक प्राध्यापक भी रहे, साथ ही सिविल सेवा की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों को भी मार्गदर्शन प्रदान किया। राष्ट्रवादी सोच रखने वाले मयंक चतुर्वेदी पांचजन्य जैसे राष्ट्रीय साप्ताहिक, दैनिक स्वदेश से भी जुड़े हुए हैं। राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखना ही इनकी फितरत है। सम्प्रति : मयंक चतुर्वेदी हिन्दुस्थान समाचार, बहुभाषी न्यूज एजेंसी के मध्यप्रदेश ब्यूरो प्रमुख हैं।

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