जरूरत है महावीर के अहिंसा दर्शन

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महावीर अब हमारे बीच नहीं है पर महावीर की वाणी हमारे पास सुरक्षित है। महावीर की मुक्ति हो गई है पर उनके विचारों की कभी मुक्ति नहीं हो सकती। आज कठिनाई यह हो रही है कि महावीर का भक्त उनकी पूजा करना चाहता है पर उनके विचारों का अनुगमन करना नहीं चाहता। उन विचारों के अनुसार तपना और खपना नहीं चाहता। महावीर के विचारों का यदि अनुगमन किया जाता तो देश और राष्ट्र की स्थिति ऐसी नहीं होती। भगवान महावीर का दर्शन अहिंसा और समता का ही दर्शन नहीं है, क्रांति का दर्शन है। उनकी ़़ऋतंभरा प्रज्ञा ने केवल अध्यात्म या धर्म को ही उपकृत नहीं किया, व्यवहार-जगत को भी संवारा। उनकी मृत्युंजयी साधना ने आत्मप्रभा को ही भास्वर नहीं किया, अपने समग्र परिवेश को सक्रिय किया। उनका अमोघ संकल्प तीर्थंकर बनकर ही फलवान नहीं हुआ, उन्होंने जन-जन को तीर्थंकर बनने का रहस्य समझाया। एक धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करके ही वे कृतकाम नहीं हुए, उन्होंने तत्कालीन मूल्य-मानकों को चुनौती दी।

‘सूयगडो’ सूत्र में एक जगह आया है ‘लोगुत्तमे समणे नायपुत्ते’ अर्थात् श्रमण भगवान महावीर लोक (दुनिया) में उत्तम हैं। लोकोत्तम कौन हो सकता है? लोकोत्तम वही व्यक्ति हो सकता है, जो अहिंसा का पुजारी होता है। श्रमण महावीर परम अहिंसक थे, इसीलिए सूत्रकार ने उन्हें लोकोत्तम विशेषण से विशिष्ट किया है।

इस अवसर्पिणी काल में चैबीस तीर्थंकर हुए हैं। माना जाता है कि उन तीर्थंकरों के शरीर के दक्षिणांग में एक चिन्ह था, जिसे ध्वज भी कहा जाता है। महावीर का ध्वज-सिंह है। यह कैसी विसंगति है। एक तरफ अहिंसा अवतार महावीर और दूसरी तरफ सिंह जो हिंसा का प्रतीक है। यह समानता कैसे? क्या इसमें भी कोई राज है? हम दूसरे प्रकार से सोचेंगे तो पता चलेगा कि यह बेमेल नहीं, बल्कि बहुत उचित मेल है। सिंह-पौरुष और शौर्य का प्रतीक है। भगवान महावीर की अहिंसा शूरवीरों की अहिंसा है, कायरों की नहीं। पलायनवादी और भीरु व्यक्ति कभी अहिंसक नहीं हो सकता। अहिंसा की आराधना के लिए आवश्यक है-अभय का अभ्यास। सिंह जंगल का राजा होता है, वन्य प्राणियों पर प्रशासन व नियंत्रण करता है, इसी तरह महावीर की अहिंसा है अपनी इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण करना।

महावीर अगर अभय और पराक्रमी नहीं होते तो वे संगमदेव द्वारा उपस्थापित मारणान्तिक उपसर्गों को सहन नहीं कर सकते। वे चण्डकौशिक के डंक की पीड़ा को आनन्द में नहीं, परिणाम में पाते। जन-साधारण के समक्ष अगर कोई ऐसा उपसर्ग उपस्थित हो जाता है, तो घबड़ा कर भाग जाता है या कोई शक्तिशाली होता है तो उसे मिटाने की कोशिश करता है। महावीर पलायन और प्रतिबंध दोनों से ऊपर उठे हुए थे। महावीर चण्डकौशिक को देखकर घबराये नहीं। सांप ने डंसा तो भी उनके मन में प्रतिशोध के भाव नहीं जागे। वे जानबूझ कर सलक्ष्य सर्प की बांबी के पास गये थे। उन्हें अपनी सुरक्षा का भय नहीं था। महावीर की अहिंसा थी सर्वत्र मैत्री। उनकी मैत्री संकुचित दायरे में आबद्ध नहीं थी। उनके मन में चण्डकौशिक सर्प के प्रति भी उतने ही मैत्री के भाव थे, जितने कि अन्य प्राणियों के प्रति।

श्रमण महावीर अपने नश्वर शरीर की सार-संभाल छोड़ चुके थे। परम अहिंसक वह होता है जो अपने शरीर की मूच्र्छा त्याग देता है, जिसे मृत्यु का भय व्यथित नहीं करता। भगवान महावीर ने इस संकल्प के साथ अभिनिष्क्रमण किया कि मैं अपने पूरे साधनाकाल में शरीर की सार-संभाल न करता हुआ, शरीर पर मूच्र्छा न करता हुआ विचरण करूंगा।

भगवान महावीर अहिंसा की अत्यंत सूक्ष्मता में गये हैं। आज तो विज्ञान ने भी सिद्ध कर दिया है कि वनस्पति सजीव है, पर महावीर ने आज से अढ़ाई हजार वर्ष पूर्व ही कह दिया था कि वनस्पति भी सचेतन है, वह भी मनुष्य की भांति सुख-दुःख का अनुभव करती है। वनस्पति इतनी सुकोमल होती है कि उसका स्पर्श करने मात्र से उसे पीड़ा होती है। महावीर ने कहा-पूर्ण अहिंसा व्रतधारी व्यक्ति सजीव वनस्पति का स्पर्श भी नहीं कर सकता।

महावीर की अहिंसा है-‘आयतुलेपयासु’ परम अहिंसक वह होता है जो संसार के सब जीवों के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है, जो सब जीवों को अपने समान समझता है। इस आत्मतुला को जाननेवाला और इसका आचरण करनेवाला ही महावीर की परिभाषा में अहिंसक है। उनकी अहिंसा की परिभाषा में किसी प्राणी का प्राण-वियोजन करना ही हिंसा नहीं है, किसी के प्रति बुरा चिन्तन करना भी हिंसा है।

परम-अहिंसक वह होता है जो अपरिग्रही बन जाता है। हिंसा का मूल है परिग्रह। परिग्रह के लिए हिंसा होती है। आज विश्व में परिग्रह की समस्या है। एक महिला जिसके पैरों में सोने के कड़े हैं, उसके पैर काट लिये जाते हैं। एक औरत जिसके कानों में स्वर्ण के कुण्डल हैं, उसके कान काट लिये जाते हैं। ऐसी घटनाएं क्यों घटती हैं? परिग्रह के लिए। परिग्रह में आसक्त व्यक्ति निरपराध प्राणी की भी नृशंस हत्या कर डालता है। एक व्यक्ति धन आदि के प्रलोभन में आकर किसी के कहने से किसी की हत्या कर डालता है। बड़ी-बड़ी डकैतियां और चोरियां होती हैं, इन सब अपराधों का केन्द्र-बिन्दु है-परिग्रह। भगवान महावीर ने दुनिया को अपरिग्रह का संदेश दिया, वे स्वयं अकिंचन बने। उन्होंने घर, परिवार राज्य, वैभव सब कुछ छोड़ा, यहां तक कि वे निर्वस्त्र बने। कुछ लोग उन अपरिग्रही महावीर को भी अपने जैसा परिग्रही बना देते हैं। कई जैन मंदिरों में महावीर की प्रतिमा बहुमूल्य आभूषणों से आभूषित मिलती है। यह महावीर का सही चित्रण नहीं है। हम स्वयं अपरिग्रही न बन सकें तो कम से कम महावीर को तो अपरिग्रही रहने दें, उन्हें परिग्रही न बनाएं। भगवान महावीर ने गृहवासियों के लिए ‘इच्छा-परिमाण’ अणुव्रत दिया। एक श्रावक अपने परिग्रह को असीम न बनाये, एक सीमा से अधिक परिग्रह को न बढ़ाए।

महावीर की अहिंसा है समता। समता के बिना अहिंसा नहीं सधती। समता का अर्थ है-हर स्थिति में मानसिक संतुलन बनाए रखना। हिंसा का मूल है-राग-द्वेष। समता की भूमिका में ये समाप्त हो जाते हैं। जितना-जितना समता का विकास होता है, उतना-उतना राग-द्वेष का विनाश होता चला जाता है।

महावीर का पूरा साधना-काल समता की साधना में बीता। उनके सामने अनुकूल और प्रतिकूल दोनों प्रकार के परीषह उत्पन्न हुए। उन्होंने अपनी सहिष्णुता के द्वारा उन परीषहों को निरस्त किया। उनकी समता की साधना थी-‘‘लाभ-अलाभ, सुख-दुःख जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा तथा मान-अपमान के द्वंद्वों में सम रहना।’’

आगम में कहा-‘‘सव्वे पाणा ण हंतव्वा, एस धम्मे धुए णिइए सासए।’’ किसी प्राणी की हिंसा न करना, यह अहिंसा धर्म ही सबसे अधिक पुराना है, ध्रुव, नित्य और शाश्वत हैमहावीर की अहिंसा केवल उपदेशात्मक और शब्दात्मक नहीं है। उन्होंने उस अहिंसा को जीया और फिर अनुभव की वाणी में दुनिया को उपदेश दिया। आज विश्व हिंसा की ज्वाला में झुलस रहा है। अहिंसा के शीतल सलिल से ही संसार को राहत मिल सकती है।

(2 अप्रैल, 2015 महावीर जयन्ती पर)

–ललित गर्ग

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  1. जिस तरह गांधी के विचारों की हत्या उनके चेलों ने की ,इसी प्रकार समता ,और अहिंसा के प्रवर्तक महावीर के विचारों की हत्या उनके मान ने वालों ने कि. जिस महावीर ने ईशवर की परिकल्पना के बारे में न तो हामी भरी और ना इंकार किया उस महावीर की मूर्तियों की जगह जगह भरमार है. जिस महावीर ने सोने ,चांदी ,संगमरमर के भवनो का त्याग किया ,उन्ही महावीर को सोने चांदी के गहनों से सजा धजा कर एक से बढ़कर एक मंदिरों में स्थपित किया जा रहा है. यदि आज महवीर होते तो इस विपुल धन राशि को गरीबों के उत्थान में,धार्मिक अस्पतालों में लगाते. हमारी विडम्बना यह है की महावीर और बुद्ध सरीखे आध्यात्मिक वैज्ञानिक हमें ईश्वर ने दिए हैं ,किन्तु हम हैं की अहिंसा का अर्थ ही हम समझ नहीं पाए. समता होनी चाहिए. फिर जैन समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित होते ही विरोध करने की क्यों नहीं सूझी?जब उंच नहीं, समता सर्वोपरि है तो अल्पसख्यक और बहुसंख्यक की असमानता क्यों? दक्षिण भारत,उत्तर पूर्व ,जम्मू और काश्मीर की तो मुझे मालुम नहीं किन्तु महाराष्ट्र से लेकर ऊपर पंजाब तक महावीर के मंदिरों की शान देखो कोई गरीब आदमी जा नहीं सकता. एक बार परम श्रद्देय ,पूज्य म. सा. ”तरुणसागरजी” को मैंने अपनी एक कविता अर्पित की थी जिसका शीर्षक था ”महावीर को मंदिर से बाहर निकालो,वो मंदिर से बाहर आएगा” मुझे यह कहते हुए प्रस्सनता होती है की न केवल उन्हें वह कविता अच्छी लगी किन्तु मुझे आशीर्वाद भी मिले. हमें एक को चुनना ही पड़ेगा या तो महावीर या महाविनाश. और इसका सही चुनाव करेंगे वीर ,मेहनतकश, समतावादी और बहादुर अहिंसक।

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