हिन्दू समाज में सुधार की आवश्यकता

2
136

hinduबहन मायावती जी द्वारा कल लखनऊ में पत्रकार वार्ता में कुछ अच्छी बातें कहीं!उन्होंने अन्य बातों के साथ यह भी कहा कि वह हिन्दू धर्म के खिलाफ नहीं हैं!लेकिन इसमें वर्ण व्यवस्था में कुछ गंभीर कमियां व बुराईयाँ हैं जिससे दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के साथ पक्षपातपूर्ण रवैय्या अपनाया जाता है!इसे दूर करना बहुत जरूरी है!यदि इन बुराईयों को हिन्दू धर्म से दूर कर दिया जाये तो फिर हिन्दू धर्म को स्वीकार करने में कोई बुराई नहीं है!डॉ.अम्बेडकर ने यह सुझाव काफी पहले दिया था पर शंकराचार्यों ने नहीं माना! तब बाबासाहेब को बौद्ध धर्म अपनाना पड़ा! बहन जी का कहना शत प्रतिशत सही है!मूल रूप से वर्णव्यवस्था समाज में श्रम विभाजन के सिद्धांत के रूप में अपनायी गयी थी और इस अर्थ में इसकी प्रशंशा विश्व के अनेकों समाजशास्त्रियों ने की थी! लेकिन जैसा कि हर विचार के साथ होता है कालांतर में निहित स्वार्थी लोगों ने इसे जन्मना बना दिया और अपने ही समाज के एक बड़े वर्ग को “अछूत” घोषित कर दिया! वास्तव में अछूत तो इन निहित स्वार्थी लोगों को घोषित करना चाहिए था जिन्होंने समाज को तोड़ने और कमजोर करने का कार्य किया!इतिहास गवाह है की जब जब देश पर संकट आया है समाज के इस तथाकथित “निम्न” कहे जाने वाले वर्ग ने ही सबसे ज्यादा खून बहाया है!महाराणा प्रताप और शिवाजी, जिन्हे हिन्दू समाज अपने आदर्श नायक के रूप में देखता है, द्वारा अपने अभियानों में समाज के दबे कुचले और बनवासी बंधुओं को ही प्रमुख रूप से शामिल किया था!राम द्वारा भी लंका पर चढ़ाई के समय बनवासी समाज और जनजातियों शबरी, जटायु, भील, वानर, ऋक्ष जातियों का ही सहयोग लिया था!लेकिन एक स्वार्थी वर्ग ने समाज को तोड़ने में ही अपना बड़प्पन समझा! हिन्दू समाज में सदैव से ही अंदर से सुधार की प्रक्रिया चलती रही है!जब जब समाज में बुराईयाँ उत्पन्न हुई तो उनके सुधार के लिए भगवन बुद्ध से लेकर बाबासाहब अम्बेडकर तक सुधारकों की एक लम्बी श्रंखला है!यद्यपि बहन मायावती जी ने अपनी वार्ता में हिन्दू समाज की उन बुराईयों का विस्तार से उल्लेख नहीं किया है लेकिन समाज में उंच नीच की भावना और गैर बराबरी ही संभवतः उनका आशय रहा होगा! समाज में से इन सभी बुराईयों को दूर करके एक सशक्त, सबल, संगठित, समरस और समतामूलक समाज के निर्माण की दिशा में पिछले नब्बे वर्षों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कार्य कर रहा है! शुरू से ही संघ में किसी से उसकी जाति नहीं पूछी जाती है!और इस बात का उल्लेख स्वयं महात्मा गांधी और बाबासाहब आंबेडकर द्वारा संघ के कार्यक्रमों में जाकर अनुभव किया और उसका उल्लेख भी किया! १९३४ में वर्धा के संघ शिविर में १५०० स्वयंसेवकों में से अनेकों से वार्ता करने के बाद महात्मा गांधी ने कहा कि यहाँ मौजूद स्वयंसेवकों में एक दुसरे की जाति जानने की भी उत्सुकता नहीं है!पुनः आज़ादी के बाद १६ सितम्बर १९४७ को दिल्ली के “भंगी कॉलोनी” के कार्यक्रम में महात्मा गांधी ने अपने १९३४ के संघ के शिविर में हुए अनुभव का उल्लेख करते हुए कहा था कि,”वर्षों पूर्व जब संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार जीवित थे तो मैं संघ शिविर में गया था और संघ के स्वयंसेवकों का अनुशाशन और छुआछूत की भावना के पूर्ण अभाव से मैं प्रभावित हुआ था! तबसे संघ काफी बढ़ गया है!और मुझे विश्वास है की इसका और विस्तार होगा!” सन १९३९ में जब संघ के पुणे शिविर में पूज्य बाबासाहब अम्बेडकर पधारे थे तो वह भी वहां बिना किसी भेदभाव के सबको समान रूप से बराबरी और बिना छुआछूत के बंधुत्व की भावना से कार्य करते हुए देखकर प्रसन्न हुए थे और उन्होंने डॉ. हेडगेवार से पूछा कि यहाँ कितने अछूत है? इस पर डॉ. हेडगेवार ने जवाब दिया कि यहाँ कोई छूत अथवा अछूत नहीं हैं! सभी केवल हिन्दू हैं! हाल ही में संघ प्रमुख डॉ. मोहन भगवत जी ने अपने विजयदशमी के नागपुर के उद्बोधन में बाबासाहब अम्बेडकर द्वारा बीस वर्षों तक छुआछूत और वर्ण व्यवस्था में सुधार के प्रयासों के पश्चात निराश होकर बौद्ध मत अपनाने की घटना का उल्लेख किया था और इस बात पर जोर दिया था कि समाज में परिवर्तन के लिए आपसी विचार विमर्श से लोगों के विचारों में परिवर्तन लाना महत्वपूर्ण है! संघ से जुड़े स्वयंसेवकों के परिवारों में सामान्यतया छुआछूत नहीं माना जाता है! इसका एक उदाहरण मैं स्वयं हूँ!मेरे दादाजी ( मेरे पिताजी के चाचाजी स्व.श्री बनवारीलाल कन्सल जी),तथा मेरे पिताजी स्व. श्री राम शरण दास देहरादून में संघ कार्य शुरू होने के समय से ही (संभवतः १९४०) संघ के स्वयंसेवक थे! और इसी कारण हमारे परिवार में छुआछूत को कोई मान्यता नहीं थी!हमारी दादी जी बताया करती थी की मुझे और मेरे अन्य बहन भाईयों को बचपन में हमारे घर की मेहतरानी अपनी गोद में खिलाती थी! स्व. कुंवर महमूद अली जी, जो मध्य प्रदेश के राजयपाल भी रहे, संघ के चतुर्थ सरसंघचालक श्री रज्जु भैय्या जी के अच्छे मित्र थे और अनेकों बार उन्होंने संघ के दिल्ली झंडेवालान स्थित क्षेत्रीय कार्यालय में रज्जु भैय्या के साथ भोजन किया था! उन्होंने वहां देखा कि वाहन चालक और वो तथा राजू भैय्या एक ही साथ बैठकर भोजन करते थे! उन्होंने इस समता का उल्लेख अपने समाजवादी राजनितिक मित्रों से भी किया था और उलाहना भी दिया था कि समाजवाद सीखना हो तो संघ के लोगों से सीखो! आज संघ द्वारा समाज के विभिन्न क्षेत्रों में अपना विस्तार किया गया है! लेकिन सभी क्षेत्रों में सामाजिक समरसता और बराबरी का पूरा ध्यान रखा जाता है! और एक बार संघ के वातावरण में ढलने के बाद किसी को इस बात का अहसास भी नहीं होता है कि छुआछूत न मानकर हमने कोई खास कार्य किया है! वह सामान्य व्यव्हार और स्वाभाव का भाग बन जाती है! समस्या यह है कि जब राजनीतिक चश्मे से देखा जाता है तो समाज को वर्गों और जातियों में बांटकर वोटों का अनुमान लगाया जाता है जबकि समाज में आज वर्णाश्रम व्यवस्था और छुआछूत लगभग नष्टप्रायः हो चुकी है!रा.स्व.सं. के तृतीय सरसंघचालक स्व.बालासाहब देवरस जी ने लगभग चालीस वर्ष पूर्व ही पुणे के वसंत व्याख्यानमाला में बोलते हुए कहा था कि अब्राहम लिंकन ने कहा था कि यदि गुलामी की प्रथा बुरी नहीं है तो समाज में कुछ भी बुरा नहीं है! इसी प्रकार मैं (बालासाहब देवरस) कहता हूँ कि यदि छुआछूत और वर्ण व्यवस्था ख़राब नहीं है तो कुछ भी ख़राब नहीं है! उन्होंने स्पष्ट कहा था कि आज वर्ण व्यवस्था ‘कालवाहय’ हो चुकी है!संघ के ही आग्रह के कारण सभी धर्माचार्यों ने प्रयाग कुम्भ के अवसर पर यह घोषित किया कि हिन्दू समाज में कोई छोटा नहीं है और सभी सहोदर हैं!संघ के ही प्रयास से सभी शंकराचार्य कशी में ‘डोम’ राजा के घर भोजन पर गए थे और संघ के ही प्रयास से चारों शंकराचार्यों ने नागपृ में दीक्षाभूमि पर जाकर पूज्य बाबासाहब अम्बेडकर को श्रद्धांजलि दी थी!यह कुछ सुखद और अच्छी पहल कही जा सकती हैं! यहाँ यह कहना अनुचित न होगा कि आज भी जो धर्माचार्य अथवा उनके अनुयायी वर्णाश्रम व्यवस्था को उचित मानते हैं उनका सम्पूर्ण समाज को बहिष्कार कर देना चाहिए!जो लोग मंदिरों में समाज के कुछ वर्गों के जाने का विरोध करते हैं उन्हें समाज से बहिष्कृत ही नहीं बल्कि दण्डित भी किया जाना चाहिए!आज भी समाज का एक वर्ग है जो अपने जातीय अभिमान में समाज के कुछ वर्गों को तुच्छ मानता है! उनका यह व्यव्हार असहनीय होना चाहिए!अक्सर ऐसा देखने में आता है कि अगर दस लोगों में कोई ‘अनुसूचित’ वर्ग का व्यक्ति बैठा है तो कर्टसी के कारण उसके सामने तो कुछ नहीं बोलते हैं लेकिन उसके जाते ही इस बात का रोना शुरू कर देंगे कि ‘अनुसूचित’ लोगों के कारन गुणवत्ता में गिरावट आ गयी है! ऐसे लोगों को अपना रवैय्या बदलने की आवश्यकता है! साथ ही जो लोग छुआछूत में विश्वास नहीं रखते हैं उनको निष्क्रिय अथवा चुप रहकर ऐसे बददिमाग लोगों को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए बल्कि उनकी बात का तत्काल विरोध करना चाहिए! मेरा आदरणीय बहन मायावतीजी और समाज के सभी बंधुओं से पुरजोर आग्रह है कि कुछ समय के लिए रा.स्व.सं. के साथ जुड़ कर देखो तो सही! कोई औपचारिकता नहीं है! अच्छा लगे तो जुड़े रहना और पसंद न आये तो कभी भी छोड़ दो! बिलकुल सरल! पिछले अस्सी वर्षों से कांग्रेस और वाम पंथियों ने संघ के विरुद्ध तरह तरह के आरोप लगाये और उसको रोकने का पूरा प्रयास किया लेकिन आज अपनी ईमानदारी, कर्मठता तथा हिन्दू समाज की एकता के अपने लक्ष्य तथा उसके द्वारा देश को सशक्त और परम वैभवशाली बनाने के उद्देश्य के प्रति समर्पण की भावना ने आज संघ से प्रेरित लोगों को शीर्ष स्थानों पर पहुँचाया है! और दुनिया के लगभग सत्तर देशों में संघ का कार्य चल रहा है! तथा उन देशों में रहने वाले अपने बंधू न केवल हिन्दू एकता के लिए कार्य कर रहे हैं बल्कि जिन देशों में रह रहे हैं वहां भी स्थानीय समाज में एक पॉज़ीटिव दृष्टिकोण के कारण उनकी सराहना होती है! दुष्प्रचार में बहे बिना स्वयं देखो और परखो!

2 COMMENTS

  1. श्री रंजीत सिंह जी,
    अगर आप मेरी बात से सहमत नहीं हैं तो यह आपकी इच्छा है! मैं जैसा मानता और जनता हूँ वाही लिखा है!हाँ! संघ नहीं मानता किसी प्रकार का जाति भेद!जात पांत पूंछे नहीं कोई, हरी को भजे सो हरी का होई!बहुत नुकसान हो चूका है इस देश और यहाँ के समाज का, जिसे दुनिया हिन्दू के नाम से जानती है , इस जातिवाद और छुआछूत के कारण! अब और नहीं!

  2. मान्य श्री अनिल गुप्ताजी,

    मान्यवर!

    //“मूल रूप से वर्णव्यवस्था समाज में श्रम विभाजन के सिद्धांत के रूप में अपनायी गयी थी और इस अर्थ में इसकी प्रशंशा विश्व के अनेकों समाजशास्त्रियों ने की थी! लेकिन जैसा कि हर विचार के साथ होता है कालांतर में निहित स्वार्थी लोगों ने इसे जन्मना बना दिया”// — उत्तरप्रदेश की अम्बेडकरवादी राजनेता माया देवी की हाँ में हाँ मिलाते हुए आपने ऐसा लिख तो दिया; परन्तु यह विशद पुष्ट क्यों नहीं किया कि कैसे? यह “समाज में श्रम विभाजन के सिद्धांत के रूप में अपनायी गयी थी”, तथा च, “कालांतर में निहित स्वार्थी लोगों ने इसे जन्मना बना दिया” यह भी जो आपने लिखा, यह भी कैसे?

    पश्चिमी शिक्षा पद्धति से शिक्षित् दीक्षित् जन तथा पश्चिमी मत-प्रवर्तकों के लेखों भाषणों से प्रभावित एवं आधुनिक कतिपय नव मतों के अनुयायी लोग विगत १३०-४० वर्षों से इस प्रकार का मिथ्या भ्रामक दुष्प्रचार करते चले आरहे हैं; परन्तु अद्यावधि वे इसे सिद्ध प्रमाणित नहीं कर सके। आपने उसी को दोहरा दिया है। उन्हीं का अनुसरण करते हुए लिख मात्र दिया। क्या यह युक्त नहीं था कि आप उसे पुष्ट, प्रमाणित भी करते?

    आपने इसे एक सामाजिक व्यवस्था बतलाया है, परन्तु इसका आधार/ मूलाधार क्या था? क्या हिन्दुधर्म तथा उसके धर्म-शास्त्र, अथवा तद्तनीय कतिपय सामजिक नेताओं, विचारकों के स्व-स्व मन-बुद्धि के प्रसव/ विचार शृङ्खला?

    आपके लेख को पढ़ने से तो पश्चोल्लिखित सम्भावना ही सम्भव लगती है। परन्तु इसमें प्रमाण? हमारा आपका अथवा किसी व्यक्ति का शब्द, उसका कथन मात्र तो हो नहीं सकता। अत: आपको अपने कथन को प्रमाणपुष्ट करना पडे़गा। कह देने मात्र से बात नहीं बनेगी।

    आपने यह भी लिखा है कि राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ इसको नहीं मानता। परन्तु प्रिय बन्धु, वह अपने ‘हिन्दु’ पद को धर्माधारित कहता/ मानता ही कहाँ है? उसकी अद्यतनीय हिन्दु पद की परिभाषा के अन्तर्गत तो मुसल्मान ईसाईयों का भी समावेश हो जाता है; वे भी उसमें आजाते हैं। फिर उसकी शाखाओं में क्या व्यवस्था चलती है, उसका क्या महत्त्व?

    आपके सप्रमाण उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी,

    भवदीय,

    डा० रणजीत सिंह (यू०के०)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here