सार्थक सिनेमा की बढ़ती जरूरत

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प्रमोद भार्गव

अब फिल्म देखने की इच्छा दिमाग में नहीं जागती। यही वजह रही कि पिछले ड़ेढ़ दशक से छविगृह में जाकर कोई फिल्म नहीं देखी। इधर ‘मांझी द माउंटेन मैन‘ आई तो इसे देखने की इच्छा प्रबल हुई। दरअसल दशरथ मांझी 1990 के ईद-गिद जब अपने संकल्प के पथ निर्माण का सपना बाईस किलोमीटर पहाड़ का सीना तोड़कर पूरा कर चुके थे,तब इसकी सचित्र कहानी ‘धर्मयुग‘ में छपी थी। तभी से इस दलित नायक की शोर्यगाथा ने मेरे अवचेतन में कहीं पैठ बना ली थी। सत्तर-अस्सी के दशक में समाज का कटू यर्थाथ और सामाजिक प्रतिबद्धता दर्शाने वाली फिल्में आती रहती थीं। आर्थिक रूप से समर्थ व्यक्ति भी इन फिल्मों को देखकर गरीब और वंचित के प्रति एक उदार भाव लेकर सिनेमा हाॅल से निकलता था,लेकिन 1990 के बाद आए आर्थिक उदारवाद ने समुदाय के सामूहिक अवचेतन पर प्रभाव डालने वाले इस उदात्त भाव को प्रगट करने वाली फिल्मों को भी निगल लिया। युवाओं में संकल्प की दृढ़ता आज भी है। लेकिन प्रतिस्पर्धा की इस जबरदस्त होड़ में असफलता तमाम युवाओं को स्वयं में अयोग्य होने की ऐसी गुंजलक में जकड़ लेती है कि वह आत्मघाती कदम उठाने तक को विवश हो जाते हैं। प्रेम की असफलता भी उन्हें इस मोड़ पर ला खड़ा कर रही है। ऐसे में प्रेम,संकल्प और जिजीविशा की उधेड़बुन व निराशा के भंवरों को अपने चट्टानी इरादों से एक अति साधारण नायक कैसे रौंदता है, इस यथार्थ का पर्दे पर आना बेहद जरूरी था। जिससे एक प्रेरक नायक के चरित्र से लोग प्रभावित हो सकें। इस नाते ऐसी सार्थक फिल्में भविष्य में भी बनती रहनी चाहिए।

दशरथ मांझी का चरित्र प्रेम,प्रण और दुस्साहस की ऐसी अनूठी गाथा है,जो हमारे इतिहास-चरित्रों में कम ही देखने को मिलती है। भगवान राम हमारे नायकों में ऐसे नायक जरूर हैं,जो अपनी अपहृत पत्नी सीता की मुक्ति के लिए समुद्र में सेतु बांधते हैं और लंका व लंकापति रावण का दहन करते हैं। किंतु राम एक बड़े साम्राज्य के युवराज थे। युवराज सत्ता से निष्कासित भले ही हो अंततः उसका वैभव,आकर्षण और नेतृत्व कायम रहता है। इसलिए उसे नया संगठन खड़ा करने में आसानी होती है। उसे अन्य सहयोगी सम्राटों का सहयोग भी आसानी से मिल जाता है। राम ने ऐसे ही संगठन और सहयोग के चलते वनवास में भी सैन्य-शक्ति अर्जित की और लंका पर विजय पाकर प्रिय पत्नी को छुड़ाया।

इसके उलट एक विचित्र और अविश्वसनीय लगने वाली कथा हमें महाभारत के वन-पर्व में सावित्री-सत्यवान की मिलती है। दोनों आम परिवारों से थे। राजवंशी नहीं थे। यह भी प्रेम कथा है। सावित्री यह जानते हुए भी कि सत्यावन की आयु अल्प है,उससे स्वयंवर रचाती है। विवाह के एक वर्ष बाद वह भरी जवानी में विधवा हो जाती है। लेकिन वैधव्य को प्रारब्ध मानकर स्वीकार नहीं करती। मृत्यु के प्रशासक यमराज के प्रति प्रतिरोध पर आमदा हो जाती है। अंततः उसकी दृढ़ इच्छा-शक्ति और वाक्पुटता के चलते पुरुषवादी व्यवस्था के संचालक यमराज लाचार हो जाते हैं और सत्यवान को जीवन दान  देते हैं। आजकल साहित्य में यही जादुई यथार्थवाद खूब प्रचलन में है। हमारे प्राचीन साहित्य में स्त्री सशक्तीकरण का यह सशक्त उदाहरण है। पारंपररिक समाज व्यवस्था के अनुसार एक स्त्री युवा-अवस्था में विधवा हो जाने पर जीवनपर्यंत वैधव्य का अभिशाप भोगने को बाध्य थी। लेकिन वह इस अनुचित विधि-सम्मत प्रावधान का विरोध करती है। नियंता पुरुष इस सत्याग्रह के समक्ष घुटने टेकते हैं और सत्यवान को पुनर्जीवन देते हैं। इस अलौकिक घटना के माध्यम से वेद व्यास सामाजिक जड़ता को तोड़ते हुए दो प्रगतिशील मूल्यों को स्थापित करते हैं। पहला,स्त्री को सती होने की विवशता से मुक्ति दिलाते हैं। दूसरे,विधवा के पुनर्विवाह का रास्ता खोलते हैं।

हमारे यहां दलितों के प्रतीक-पुरूशों के रूप में शम्बूक,एकलव्य,अंगुलिमाल और डाॅ भीमराव आंबेडकर भी सशक्त नायकत्व के रूप में पेश आए हैं। फिल्मों में इन चरित्र-नायकों को भी स्थान मिला है। एकलव्य तात्कालिक शिक्षा व्यवस्था में केवल ब्राह्मण और सामंत-पुत्रों को शिक्षा देने के प्रावधान के चलते अपना अंगूठा ही गुरू-दक्षिणा दें बैठता है। वहीं शंबूक के विद्रोह का शमण उसका वध करके राम कर देते हैं। भगवान बुद्ध के काल में सांमती मूल्यों के प्रखर लड़ाके के रूप में अंगुलिमाल सामने आए थे। लेकिन बुद्ध ने बड़ी चतुराई से अंगुलिमाल से हथियार डालवाकर सामंतवाद के विरूद्ध उसके विद्रोह को शांत कर दिया था। अंबेडकर समाजवादी लड़ाई के प्रणेता थे,लेकिन दलितों में बढ़ते बुद्धवाद ने व्यवस्था के खिलाफ आबंडेकर की सारी लड़ाई को ठंडा कर दिया है।

प्रेम की उक्त शोर्य-गाथाओं और दलित नायकों के संघर्श-कथाओं के क्रम में आजादी के ड़ेढ़ दशक बाद गया जिले के गिल्होर गांव में दशरथ मांझी के पराक्रम के उदय की शुरूआत होती है। दशरथ दलितों में भी एक ऐसी मुसहर जाति से है,जिनके ज्यादातर लोग चूहे मारकर अपने उदर के भरण-पोषण के लिए आजादी के 68 साल बाद भी अभिशप्त हैं। साथ ही सवर्ण,समर्थ और प्रशासकों के अत्याचार व शोषण की गिरफ्त में भी हैं। ऐसे में एक साहसी इंसान है,जो एक अविचल विशाल पहाड़ को अपनी पत्नी फगुनिया की मृत्यु का दोषी मानता है। क्योंकि यही वह पहाड़ है,जिसकी बाधा के चलते मांझी पहाड़ की ठोकर खाकर गिरी घायल व गर्भवती पत्नी को समय पर अस्पताल नहीं ले जा पाता और उसकी असमय मृत्यु हो जाती है। यही वह शख्स है,जो उसकी पत्नी-वियोग में लाचार नहीं होता। टूटकर आत्मघाती कदम नहीं उठाता। पुनर्विवाह भी नहीं करता। इसके उलट पत्नी के उपचार में बाधा बने पहाड़ के शिखर पर चढ़कर पहाड़ को ललकारता है कि वह कितना भी कठोर क्यों न होगा,तोड़ देगा। आखिर में 22 साल के अथक परिश्रम से वह उसे तोड़ भी देता है और दशरथ मांझी पथ का निर्माण भी हो जाता है। पहाड़ तोड़ने की प्रक्रिया में एक ऐसा व्यक्तित्व उभरता है,जिसके लिए काला अक्षर भैंस बराबर है। जीवन का ककहरा भी उसने नहीं पढ़ा है। पथ-निर्माण का उसने कोई अक्ष कागज पर नहीं उकेरा। निर्माण के लिए धन उसके पास था ही नहीं,सो लागत के प्राक्कलन का सवाल ही नहीं उठता ? लेकिन बाधाएं कम नहीं थीं ? अपने ही गांव के संगी-साथियों की उलाहनाएं थीं। विकासखंड कार्यालय का भ्रष्टाचार था। वन और पुलिस अधिकारियों की प्रताड़नाएं थीं। मसलन एक बड़ी सामाजिक समस्या के निदान में निर्विकार व निर्लिप्त भाव से लगे व्यक्ति के समक्ष भी बीच-बीच में स्वार्थी तत्व पहाड़ सी बाधाएं उत्पन्न करते रहे। अलबत्ता जिस व्यक्ति ने यथार्थ में ही पहाड़ का सीना चीरने की ठान ली थी,उसके लिए कृत्रिम बाधाएं कहां रोक पाती ?

कला फिल्में जीवन के यथार्थ का आईना होती हैं। विशयवस्तु में,शैली में,प्रस्तुतीकरण में और अभिनय में,सो केतन मेहता ने वर्तमान जिंदगी की असलियत को सटीक सांचों में ढाला है। इस फिल्म ने यह सच कर दिखाया है कि जिंदगी की असलियत किताबों और हरफों में नहीं है। यह भी सही नहीं है कि सिविल इंजीनियर ही रास्ता बनाने में दक्ष हो सकते हैं। हमें यह जानने की जरूरत है कि  रुड़की में जो देश का पहला अभियांत्रिकी महाविद्यालय अंग्रेजों ने खोला था,उसके पहले छात्र वे क्षेत्रीय किसान-मजदूर थे,जो अपनी ज्ञान-परंपरा से नहरों के निर्माण में दक्ष थे। देश का यह दुर्भाग्य रहा कि आजादी पाने के बाद से ही यह कोशिश नहीं की गई कि जनता को सामाजिक रूप से लोक-शिक्षण या देशज ज्ञान परंपरा के जरिए जागरूक व शिक्षित किया जाए।

दरअसल,ज्ञान परंपरा समतामूलक समाज के निर्माण में अहम् भूमिका का निर्वाह करती है और ज्ञान-परंपरा में दक्ष सबसे ज्यादा कोई हैं तो वे पिछड़े और दलित ही हैं। लेकिन देखने में आ रहा है कि समूची सत्ता लोक-समाज के प्रति बेदर्द,निरकुंश और हिंसक बनी हुई है। प्रतिपक्ष भी उसके लोकविरोधी षड्यंत्रों में साझीदार हो गया है। यही स्थिति साहित्य और संस्कृति की है। अन्यथा क्या वजह है कि एक फिल्मकार तो दलित नायक का सामुदायिक हित साधने वाला चरित्र सिनेमा की विधा में उकेर देता है,लेकिन साहित्य पिछड़ जाता है। विभिन्न वैचारिक प्रतिबद्धताओं से जुड़े और परस्पर पददलन में लग,साहित्य-मनीषियों के इस वास्तविक सामाजिक दायित्व से चूक जाने के परिप्रेक्ष्य में भी सोचने की जरूरत है ? क्योंकि दशरथ मांझी नाम का सख्ष बुनियादी समस्या के समाधान के लिए अकेला ही मशाल लेकर बढ़ा और राह बनाई। ऐसे अनूठे व्यक्तित्वों की प्रेरक संघर्श कथाएं साहित्य और फिल्म दोनों ही सार्थक माध्यमों से समाज के सामने लाईं जाना जरूरी हैं। जिससे अभावग्रस्त समाज भी नवोन्मेश और नवजागृति की ओर सोचने व समझने को उन्मुख है। दरअसल,ऐसे ही उपाय सामूहिक चेतना के फलक को व्यापक रूप देने का काम करते हैं।

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