पुस्तक संस्कृति विकसित करने की जरूरत

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संदर्भ- सात जनवरी से दिल्ली में शुरू होने वाले पुस्तक मेले पर विशेष

प्रमोद भार्गव

हर साल की तरह इस बार भी भारतीय पुस्तक न्यास द्वारा पुस्तक मेला आयोजित है। मेले की मुख्य थीम ‘ औरतों द्वारा औरतों पर लिखि गईं पुस्तकें‘ होंगी। साथ ही नेशनल बुक ट्रस्ट के साठ साल के सफरनामे पर भी यह मेला केंद्रित होगा। मेले में करीब 800 प्रकाशक भाग लेंगे, जिनमें 20 विदेशी प्रकाशक होंगे। हालांकि हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान और भूटान भागीदारी नहीं कर रहे है। मेले में महिला लेखिकाओं द्वारा लिखी गई पुस्तकों का अलग से पंडाल होगा। साथ ही बाल साहित्य भी विविध आयामों में पुरूस्कृत किया जाएगा। बावजूद हिंदी पुस्तकों को ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक कैसे पहुंचाया जाए, यह प्रश्न अपनी जगह मौजूद रहेगा। दरअसल बड़ी संख्या में हिंदी भाषी होने के बावजूद अधिकांश में पुस्तक पढ़ने की आदत नहीं है। इस दृष्टि से पुस्तक पाठक तक पहुंचाने और पढ़ने की संस्कृति विकसित करने की जरूरत है। हालांकि बदलते परिवेश में जहां आॅनलाइन माध्यम पुस्तक को पाठक के ज्ञान में लाने में सफल हुए हैं, वहीं आॅनलाइन बिक्री भी बढ़ी है।

पुस्तक मेले का उद्देश्य जहां विविध विषयों की पुस्तकों को बिक्री के लिए एक जगह लाना है, वहीं पाठकों में पठनीयता भी विकसित करना है। इसीलिए पुस्तक जगत से जुड़ी सरकारी व अर्द्धसरकारी संस्थाएं और प्रकाशक संघ पिछले साठ साल से सक्रिय हैं। पठनीयता को बढ़ावा मिले, इसी दृष्टि से मेले में बढ़ी संख्या में लेखकों पुस्तकों का विमोचन किया जाता है और विचार-गोष्ठियों का आयोजन होता है। इन आकर्षणों के बाद भी साहित्यिक पुस्तकों की बिक्री उतनी नहीं हो रही है, जितनी अपेक्षित है। इसलिए पूरा पुस्तक व्यवसाय सरकारी थोक व फुटकर खरीद पर टीका है। इस कारण पुस्तकों का मूल्य भी उत्तरोत्तर बढ़ता रहा है। इस कारण सामाजिक बदलाव व संस्कृति से जुड़ी पुस्तकें आम आदमी की मित्र नहीं बन पा रही है। जबकि पुस्तकें ज्ञान-विज्ञान, इतिहास-पुरातत्व तथा संस्कृति व सभ्यता से जुड़ी होने के साथ पूर्व पीढ़ियों के अनुभव व उनके क्रियाकलापों से भी जुड़ी हुई होती है। साहित्य पठन-पाठन का अभाव अवमूल्यन और अराजकता के कारण बन रहे है। इधर तकनीकि पढ़ाई और दैनिक जीवन में उसके बढ़ते प्रभाव ने भी मनुष्य की संवेदनशीलता का क्षरण किया है। इसलिए जरूरत है कि पुस्तकें सरकारी खरीद से बाहर निकलें।

पुस्तकों के विस्तार के लिए निरक्षर लोगों को साक्षर करना भी जरूरी है। साक्षरता के तमाम अभियान चलाने के बावजूद मुश्किल सत्तर प्रतिशत आबादी ही साक्षात हो पाई है। हालांकि आजादी के पहले जब देश की बड़ी आबादी निरक्षर थी, तब पुस्तकों के 25-25 हजार तक प्रतियां छपती थीं, जबकि अब पहले संस्करण में 250 से एक हजार पुस्तकें ही छपती हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि पाठक संख्या सीमित हो रही है। ऐसा टीवी चैनलों पर धारावाहिकों का सिलसिला 24 घंटे चलने और सोशल मीडिया के हस्तक्षेप से भी हुआ है। इनमें ज्यादातर ऐसी सामाग्री है जो समाज को कुंठित और हृदयहीन बना रही है। शिक्षा में अंग्रेजी माध्यम और अंग्रेजी प्रभाव के चलते भी हिंदी पुस्तकों की बिक्री प्रभावित हो रही है। हिंदी का प्रश्न राष्ट्रियता से जुड़ा है, इसलिए इसे अकेली सरकार पर नहीं छोड़ा जा सकता है। समाज को पुस्तकें पाठक तक पहुंचाने के लिए निजी स्तर पर प्रयत्न करने होंगे। इस लिहाज से जरूरी है कि जन्मदिन शादी समारोह और अन्य मागलिंक अवसरों पर लोग पुस्तकें भेंट करने का सिलसिला शुरू करें। इस दृष्टि से गायत्री परिवार के सदस्यों ने शादी-समारोह में पुस्तकों के स्टाल लगाना शुरू कर दिए हैं।

हिंदी पुस्तकों की स्थिति प्रकाशकों की उदासीनता के चलते भी निराशाजक रही है। ज्यादातर प्रकाशक पाठक तक पहुंचने की कोशिश नहीं करते है। उनका भरोसा बड़े सरकारी संस्थानों की खरीद पर ही टिका है। इस कारण संसाधानों में सेवारत विद्धान और अधिकारियों की पसंद की पुस्तकें छापने में भी प्रकाशक दिलचस्पी लेते हैं। किंतु ये पुस्तकें रुचिकर नहीं होती हैं। इसके उलट बांग्ला, मराठी और गुजराती भाषाओं की स्थिति आज भी हिंदी से बेहतर है। इन भाषाओं में पहला संस्करण आज भी 5000 की संख्या में छापे जा रहे हैं। हालांकि अंग्रेजी के अंतरराष्ट्रिय प्रकाशकों के हिंदी में आने के बाद स्थिति बदली है। इन प्रकाशकों ने साहित्य की गंभीर पुस्तकों के अलावा लोकप्रिय साहित्य भी छापने का सिलसिला शुरू किया है। साथ ही अंग्रेजी के लोकप्रिय भारतीय साहित्य के हिंदी अनुवादों का भी प्रकाशन किया है। मिथक माने जाने वाले पौराणिक साहित्यिक कृतियों को ये प्रकाशक खूब छाप रहे है। इनकी बिक्री भी खूब हो रही है। एक तरह से यह वही पुराण और इतिहास से जुड़ा साहित्य है, जो आचार्य चतुरसेन शास्त्री, गुरूदत्त, डाॅ वृंदावन लाल वर्मा, नरेंद्र कोहली, रामकुमार भ्रमर और मदनमोहन शर्मा शाही ने लिखा है। विदेशी इस कालजयी साहित्य को वामपंथियों ने स्वीकारने के बजाय नकारने का काम किया। इस कुटिल मानसिकता के चलते हिंदी के कई नामी प्रकाशक केवल वामपंथ से जुड़ा नीरस और अपठनीय साहित्य छापते रहे। जबकि विदेशी प्रकाशकों ने इन्हीं पौराणिक किरदारों पर देवदत्त पटनायक, अमीश त्रिपाठी, चेतन भगत, आनंद नीलकंड, अश्विनी सांघी और अशोक बैंकर की किताबों को छापा और कई-कई संस्करण बेचे। हालांकि इनका अनुकरण करते हुए हिंदी प्रकाशकों को बुद्धि आई और उन्होंने भी तमाम लेखकों की पुस्तको के पेपरबैग का संस्करण निकाले। इन किताबों में मदनमोहन शर्मा शाही की ‘लंकेश्वर‘ महंगी होने के बावजूद खूब बिक रही है। दरअसल अंतरराष्ट्रिय प्रकाशक पेंगुइन, हार्पर काॅलिंस, वेस्टलैंड पुस्तक के सुदंर कलेवर के साथ विक्रय की प्रचार संबंधी रणनीतियों के चलते ज्यादा से ज्यादा पाठकों को आकर्षित कर रहे है। लोकप्रिय लेखन और उसे पाठक तक पहुंचाने का फायदा यह है कि बाद में पाठक गंभीर साहित्य पढ़ने में भी रुचि लेने लगते हैं। अस्सी के दशक तक हिंदी में ऐसा ही था। गुलशन नंदा, कुशवाहा कांत, रेणु और भ्रमर का लोकप्रिय साहित्य की पुस्तकों की लत पाठक को लग जाती थी, तो फिर वह प्रेमचंद, फणीश्वर नाथ रेणु, भगवतीचरण वर्मा, धर्मवीर भारती, कमलेश्वर आदि साहित्यकारों को भी पाठक पढ़ने लगते थे।

हाल ही में एक समाचार एजेंसी की सुखद खबर आई है कि हिंदी पुस्तकों की मांग आॅनलाइन भी खूब बढ़ रही है। अभी तक इस संदर्भ में अंग्रेजी पुस्तकों का ही बोलबाला था। यह शायद पहला अवसर है जब हिंदी पुस्तकों की ई-खरीद में बढ़त दर्ज की गई है। पिछले छह माह में यह वृद्धि 60 प्रतिशत दर्ज की गई है। इससे ज्ञात होता है कि अंग्रेजी के वर्चस्व और प्रौद्योगिकी की प्रवृत्ति के प्रलव के बीच भी हिंदी खूब फल-फूल रही है। कहना नहीं होगा कि हिंदी के वास्ताविक हित चिंतकों के लिए यह खबर सुखद आश्चर्य के साथ गोरान्वित करने वाली है। आॅनलाइन अमेजन और फ्लिप कार्ड के जरिए खूब हिंदी पुस्तकें खरीदी जा रही है। अप्रैल 2014 में आॅनलाइन हिंदी बुक स्टोर की स्थापना करने वाले अमेजन का दावा है कि यह मांग आगे भी और बढ़ने वाली है। पुस्तकों की ई-बिक्री से फायदा यह हुआ है कि कस्बा और तहसील व जिला मुख्यालयों के पाठक भी अपनी रुचि की पुस्तक आसानी से लगाने लगे है। ज्ञातव्य है कि शिक्षा से लेकर कैरियर के हर क्षेत्र में अंग्रेजी के बोलबाले के बीच हिंदी पुस्तकों की यह मांग उसकी प्रासंगिकता और महत्व को रेखांकित करती है। इसका सीधा सा अर्थ है कि पाठकों की रुचि और जरूरतों के अनुसार पुस्तकें हिंदी में आए तो पुस्तकों की बिक्री सुनिश्चित है। इसी पहलू को ध्यान में रखते हुए भारतीय ज्ञानपीठ, राजकमल, राधाकृष्ण, वाणी, प्रभात प्रकाशन, राजपाल एंड संस और प्रकाशन संस्थान जैसे प्रकाशको ने साहित्य की शीर्ष पुस्तकों के अलावा भरतीय भाषाओं की अनुदित पुस्तकों के साथ साहित्येतर पुस्तकें भी बढ़ी संख्या में छापना शुरू कर दी है।

दरअसल भारतीय संस्कृति इसलिए अनूठी व अद्वितीय है क्योंकि इसमें धर्म और भाषा के साथ खान-पान, रहन-सहन और पर्यावरण संबंधी विविधताएं भी मौजूद है। आदिवासी जनजीवन से जुड़ी सांस्कृतिक बाहुलता भी है। इसलिए भारत में आधुनिकता का ढोल चाहे जितना पीटा जाए, उसका अतीत कभी व्यतीत नहीं होता। वैसे भी हमारी संस्कृति में वेद, उपनिषद, पुराण, रामायण और महाभारत ऐसे ग्रंथ है, जो दुनिया की किसी भी साहित्य और संस्कृति में नहीं है। इनके किरदारों की गाथाएं पाठक नए संदर्भों और शब्दावली में पढ़ना चाहते है। नरेंद्र कोहली की रामकथा और मदनमोहन शर्मा ‘शाही‘ का लंकेश्वर इसीलिए लोकप्रिय बने हुए है। पुरातन भारतीय साहित्य की एक विलक्षण्ता यह भी है कि उसमें अनेकता के रूप विद्यमान है। ऐसा दुनिया के अन्य किसी देश और भाषा के साहित्य में नहीं है। इसएि यह जरूरी है कि पौराणिक भारतीय चरित्र नए-नए रूपों में सामने आते रहने चाहिए। पुस्तक मेले ऐसे साहित्य के प्रचार-प्रसार और बिक्री में उल्लेखनीय योगदान देते हैं।

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