शिक्षा के ढांचा में सुधार की आवश्यकता

योगेश कुमार कुलदीप

पिछले दिनों केंद्रीय सलाहाकार परिषद की उपसमिति की बैठक में विभिन्न राज्यों के शिक्षा मंत्रियों ने केंद्र से ठोस शिक्षा नीति तैयार करने का आग्रह किया। इस दौरान छत्तीसगढ़ के शिक्षा मंत्री ने निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा अधिनियम के तहत स्कूलों में बच्चों के स्तर को मापने के लिए कारगर नीति अपनाने पर जोर दिया। जिसके तहत इस बात का विशेष ध्यान रखा जाए कि बच्चों को अगली कक्षा में भेजने से पहले उनका विषयवार मूल्यांकन हो। मंत्री जी का यह आग्रह दरअसल शिक्षा की उस कमजोर नीति की ओर इशारा था, जिसमें बच्चों को परीक्षा से आजादी देकर उनकी गुणवत्ता पर चोट किया गया है।

2009 में 86वें संशोधन के माध्यम से केंद्र सरकार ने देशभर में बाल शिक्षा को बढ़ावा देने के मकसद से सर्व शिक्षा अभियान की शुरूआत की थी। लक्ष्य था 2010 तक सभी बच्चों को प्रारंभिक शिक्षा उपलब्ध कराना।

इसमें जहां कई प्रावधान जोड़े गए थे वहीं इस बात को भी सुनिश्चित किया गया था कि बच्चों में पढ़ाई के प्रति रूचि जगाए रखने के लिए उन्हें आठवीं तक फेल न किया जाए। इसके पीछे यह सोच थी कि आठवीं तक बच्चों में शिक्षा के प्रति रूचि प्रबल हो जाएगी और स्कूल छोड़ने की प्रवृति में कमी आएगी।

इसमें कोई दो राय नहीं कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम ने स्कूलों में छात्रों की संख्या को बढ़ाया है लेकिन फेल नहीं करने की प्रवृति ने एक तरफ जहां शिक्षा के स्तर को गिराया है वहीं अनजाने में ही बेरोजगारी में भी इजाफा किया है। वास्तव में सरकार का उद्देश्‍य जितना व्यापक था, जमीनी हकीकत में वह उतना ही अप्रासंगिक है। फेल नहीं करने की प्रवृति ने बच्चों को बेखौफ बना दिया है। वहीं उनकी बुनियाद भी कमजोर बना रहा है। एक वक्त था जब दूसरी और तीसरी क्लास में भी फाइनल इग्जाम हुआ करते थे। जिसे पास करने के बाद ही बच्चों को अगली कक्षा में प्रवेष मिला करता था। ऐसे बच्चे जब स्कूली शिक्षा खत्म करते थे तो उनकी बुनियाद मजबूत होती थी। जो उन्हें रोजगार हासिल करने में मदद करता था। लेकिन अब हम अपनी पीढ़ी को एक ऐसी शिक्षा पद्धति से जोड़ रहे हैं जो उन्हें साक्षर तो बना रहा है परंतु रोजगार नहीं दिला सकता है। यह स्थिती नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़ जैसे क्षेत्रों में और भी खराब हो सकती है जहां शिक्षा की लौ टिमटिमा रही है। इस राज्य के कांकेर जिला के भानुप्रतापपुर स्थित भैसाकन्हार पंचायत भी इसका एक उदाहरण है। जहां शिक्षा व्यवस्था की लापरवाही शिक्षा के वास्तविक मायने को ही खत्म कर रहा है। फेल नहीं होने की सरकारी नीति के कारण बच्चों का मन पढ़ाई में नहीं रहता है। इस गांव के सरपंच के अनुसार शिक्षा के लचीलेपन के कारण बेरोजगारी भी बढ़ी है। गांव में लगभग 15 नौजवान बेरोजगार हैं। जिन्हें नौकरी नहीं मिल रही है। स्वरोजगार की जानकारी के अभाव में यह नौजवान भटक रहे हैं।

गांव की एक बेरोजगार नवयुवती शांति का कहना है कि आज की शिक्षा व्यवस्था और सरकार की नीति में परिवर्तन की जरूरत है। एनएम का प्रशिक्षण प्राप्त कर चुकी लीलावती नरेटी का तर्क है कि शिक्षा के प्रति लोगों में जागरूकता तो है लेकिन लचर व्यवस्था के कारण वह इसके प्रति गंभीर नहीं हैं। यही कारण है कि वह अपने बच्चों को खेतों में काम कराने की जगह पढ़ाना तो चाहते हैं, परंतु इस आशंका से घिरे रहते हैं कि ऐसी शिक्षा व्यवस्था से उनके बच्चों का भविश्य कितना उज्जवल है। दूसरी ओर गांव में निरक्षरों के लिए साक्षर भारत कार्यक्रम के तहत रात्रि पाठशाला भी हैं, लेकिन कुछ ही गांव वाले इसमें आते हैं। उन्हें यह महसूस होता है कि जब नई नस्ल को शिक्षा से कोई नौकरी नहीं तो इस उम्र में उनके पढ़ने का क्या हासिल होगा? भैसाकन्हार के माध्यमिकशाला में कार्यरत शिक्षक चंद्रजीत केरेती का कहना है कि यहां शिक्षा को लेकर कोई विशेष काम नहीं हो रहा है। यहां उच्च माध्यमिक विद्यालय तो चल रहे हैं लेकिन अभी तक सरकार द्वारा मान्यता नहीं मिला है। ऐसे में बच्चे तो नियमित आते हैं लेकिन उन्हें नियमित छात्र का प्रमाणपत्र नहीं मिलता है। उनके अनुसार नौजवानों में यह प्रवृति बन चुकी है कि शिक्षा का अर्थ केवल सरकारी नौकरी है। जबकि पढ़ाई का यह अर्थ नहीं है कि केवल नौकरी करें बल्कि सामाजिक या तकनीकि कार्यों अथवा कृषि के क्षेत्र में भी सफलता मिल सकती है। क्योंकि नौकरियां सीमित हैं और बेरोजगारों की एक लंबी फौज है। ऐसे में सभी के हिस्से में यह चांस मुमकिन नहीं हो सकता है। जरूरत है हमें ऐसी शिक्षा पद्धति की जिसमें संस्कार और रोजगार दोनों का मेल हो।

हालांकि भारत के महालेखाकार की वर्ष 2010-11 की रिपोर्ट के अनुसार छत्तीसगढ़ में बच्चों की शिक्षा पर किया जा रहा प्रति व्यक्ति खर्च राष्ट्रीय औसत से भी ज्यादा है। राज्य में प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा की सुविधाओं में उल्लेखनीय विकास भी हुआ है। पहली से दसवीं तक के सभी बच्चों को निःशुल्क किताबें उपलब्ध कराईं गईं हैं। लेकिन प्रश्‍न उठता है कि क्या सुविधा उपलब्ध करा देने से जिम्मेदारी पूरी हो गई? यदि शिक्षक ही क्लास में नहीं आएंगे तो बच्चों के लिए वह किताब केवल घर से स्कूल और स्कूल से घर तक ढ़ोने के अलावा और कुछ नहीं रहेगा। क्योंकि जब तक शासन जमीनी स्तर पर हकीकत को नहीं पहचानेगा ऐसी सुविधाएं केवल देखने में ही अच्छी लगेंगी, इनसे आप शत-प्रतिशत परिणाम की उम्मीद नहीं कर सकते हैं।

वास्तव में देखा जाए तो शिक्षा के नाम पर हमने ऐसी प्रणाली की ईजाद कर ली है जो न तो हमें जीवन के मूल्य की पहचान कराती है और न ही हुनर से जोड़ती है। सरकार ने सभी को शिक्षा प्रदान करने का जिम्मा तो उठा लिया है और लक्ष्य को पूरा करने में भी लगी है, लेकिन कभी इस ओर ध्यान भी दिए जाने की जरूरत है कि हम जिस शिक्षा प्रणाली को लागू कर रहे हैं वह हकीकत से कितना करीब है। इस बात से बेखबर कि परिणाम क्या होंगे, केवल नयी नयी योजनाओं को क्रियान्वित कर देना समस्या का निदान नहीं बल्कि ज़ख्म को और भी नासूर बनाने जैसा है। जबतक शिक्षा के ढ़ांचे में सैद्धांतिक और व्यवहारिक शिक्षा का तालमेल नहीं बैठाया जाएगा, तबतक हम गुणवत्ता आधारित शिक्षा की कल्पना को साकार नहीं कर सकते हैं। (चरखा फीचर्स)

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