गुलाबी क्रांति के दुष्परिणाम

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-प्रमोद भार्गव- Cow-Yatra

सोलहवीं लोकसभा चुनाव में क्रांति मसलन गाय-भैंस का मांस भी चुनावी मुद्दा बन रहा है। गो-सरंक्षण संघ और भाजपा के एजेंडे में हमेशा रहा है। लिहाजा नरेंद्र मोदी केंद्र सरकार और कांग्रेस को ललकारते हुए कह रहे हैं कि ये दोनों गउ हत्या और गो-मांस के व्यापार को बढ़ावा देने में लगे हैं। यह विडंबना ही है कि मटर की जगह मटन के करोबार को आर्थिक राहत देकर प्रोत्साहित किया जा रहा है, जबकि देश को एक और हरित क्रांति की जरूरत है, न कि गुलाबी क्रांति की ?

दरअसल मोदी की चिंता बढ़ते बूचड़खानों को लेकर है। क्योंकि ये बूचड़खाने पशुधन को संकट बन रहे हैं। इस कारण देश में दूध का उत्पादन घट रहा है। नतीजतन घटे दूध की आपूर्ति मिलावटी दूध से होने लगी है, जो सेहत के लिए खतरनाक है। लिहाजा मोदी यदि मांस के व्यापार पर नियंत्रण की बात कर रहे हैं तो उसे गंभीरता से लेने की जरूरत है, जिससे गुलाबी क्रांति के दुष्परिणाम का सामना पशुधन और मानव समुदायों को न करना पड़े ?

नरेंद्र मोदी के इस बयान को भी तथाकथित प्रगतिशील सांप्रदायिक चश्मे से देख रहे हैं। जबकि पशुधन के संरक्षण को दूध-उत्पादन और खेती किसानी के परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है, क्योंकि बढ़ते बूचड़खाने और घटते पशुधन की चिताएं सीधे रोजगार और ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़े मुद्दे हैं। कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण उत्पादन निर्यात विकास प्राधिकरण द्वारा जारी आंकड़े के मुताबिक 2003-04 में भारत से 3.4 लाख टन गाय-भैंस के मांस का निर्यात किया गया था, जो 2012-13 में बढ़कर 18.9 लाख टन हो गया। निर्यात के इस आंकड़े ने भारत को मांस निर्यातक देशों में अग्रणी देश बना दिया है। भारत से यह मांस मिश्र, कुवैत, सउदी, अरब, वियतनाम, मलेशिया और फिलीपिन देशों में किया जाता है। मांस का यह निर्यात सरकारी सरंक्षण और राहत के उपायों से पनपा है। सरकार ने बूचड़खानों और प्रसंस्करण संयंत्रों के आधुनिकीकरण के लिए आर्थिक मदद के साथ सब्सिडी भी दीं। सरकार ने इसके निर्यात में उदार रूख दिखाते हुए आफ्रिका और राष्ट्रमंडल देशों में नए बाजारों की तलाश की। जब नए उपभोक्ता मिल गए तो निर्यात को आसान बनाने के नजरीए से इसे परिवहन सुविधाओं में शामिल कर लिया गया।

गाय-भैंस के मांस की मांग दुनिया के बाजारों में इसलिए भी बढ़ रही है,क्योंकि खाद्य और कृषि संगठन इस मांस को पौष्टिक एवं स्वादिष्ट बताकर इसका प्रचार करने में लगा है। इसे चर्बीरहित तथा सुअर की तुलना में इसमें कम फैट होने का प्रचार किया जा रहा है। जाहिर है, इसकी मांग और बिक्री बढ़ रही है। नतीजतन पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पश्चिमी बंगाल और केरल में इस मांस के निर्यात का कारोबार खूब फल-फूल रहा है। इन प्रदेशों में वैध और अवैध दोनों ही तरह के बूचड़खानों की संख्या लगातार बढ़ रही है। ढाई सौ से तीन सौ रूपए के किलो के भाव पर गाय-भैंसें तौल कर थोक में बेची जा रही हैं। इस बजह से पशुधन के चोरी के मामले भी पूरे देश में तेजी से बढ़ रहे हैं। यही नहीं एक समय 30 रूपए किलो बिकने वाला यह मांस अब 300 रूपए किलो तक बेचा जा रहा है। नतीजतन मांस खाने शौकीन गरीब की हैसियत इसे खरीदकर खाने की रह ही नहीं गई है।

इस मांस के बढ़ते कारोबार के चलते पशुधन के घटने का सिलसिला तेज हुआ है। गोया, दुग्ध उत्पादन में कमी अनुभव की जाने लगी है, जिसकी भरपाई नकली दूध से की जा रही है। जो नई-नई बीमारियां परोसने का काम कर रहा है। दूध की दुनिया में सबसे ज्यादा खपत भारत में है। देश के प्रत्येक नागरिक को औसतन 290 ग्रा. दूध रोजाना मिलता है। इस हिसाब से कुल खपत प्रतिदिन 45 करोड़ लीटर दूध की हो रही है। जबकि शुद्ध दूध का उत्पादन करीब 15 करोड़ लीटर ही है। मसलन दूध की कमी की पूर्ति सिंथेटिक दूध बनाकर और पानी मिलाकर की जा रही है। यूरिया से भी दूध बनाया जा रही है। दूध की लगातार बढ़ रही मांग के करण मिलावटी इस दूध का कारोबार गांव-गांव फैलता जा रहा है। बहरहाल, मिलावटी दूध के दुष्परिणाम जो भी हों, इस असली-नकली दूध का देश की अर्थव्यवस्था में योगदान एक लाख 15 हजार 970 करोड़ रूपए का है। दाल और चावल की खपत से कहीं ज्यादा दूध और उसके सह उत्पादों की मांग व खपत बढ़ी है।

दूध की इस खपत के चलते दुनिया के देशों की निगाहें भी इस व्यापार को हड़पने में लगी है। दुनिया की सबसे बड़ी दूध का कारोबार करने वाली फांस की कंपनी लैक्टेल है। इसने भारत की सबसे बड़ी हैदराबाद की दूध डेयरी ‘तिरूमाला डेयरी‘को 1750 करोड़ रूपए में खरीद लिया है। इसे चार किसानों ने मिलकर बनाया था। भारत की तेल कंपनी ऑइल इंडिया भी इसमें प्रवेश कर रही है, क्योंकि दूध का यह कारोबार 16 फीसदी की दर से हर साल बढ़ रहा है।

अमेरिका भी अपने देश में बने सह उत्पाद भारत में खपाने की तिकड़म में है। हालांकि फिलहाल उसे सफलता नहीं मिली है। अमेरिका चीज;पनीर भारत में बेचना चाहता है। इस चीज को बनाने की प्रक्रिया में बछड़े की आंत से बने एक पदार्थ का इस्तेमाल होता है। इसलिए भारत के शाकाहरियों के लिए यह पनीर वर्जित है। गो-सेवक व गउ को मां मानने वाला भारतीय समाज भी इसे स्वीकार नहीं करता। अमेरिका में गायों को मांसयुक्त चारा खिलाया जाता है,जिससे वे ज्यादा दूध दें। हमारे यहां गाय-भैंसें भले ही कूड़े-कचरे में मुंह मारती फिरती हों, लेकिन दुधारू पशुओं को मांस खिलाने की बात कोई सपने में भी नहीं सोच सकता। लिहाजा अमेरिका को चीज बेचने की इजाजत नहीं मिल पा रही है। लेकिन इससे इतना तो तय होता है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों की निगाहें हमारे दूध के कारोबार को हड़पने में लग गई हैं।

बिना किसी सरकारी मदद के बूते देष में दूध का 70 फीसदी कारोबार असंगठित ढांचा संभाल रहा है। इस कारोबार में ज्यादातर लोग अशिक्षित हैं। लेकिन पारंपरिक ज्ञान से न केवल वे बड़ी मात्रा में दुग्ध उत्पादन में कामयाब हैं, बल्कि इसके सह उत्पाद दही, घी, मख्खन, पनीर, मावा आदि बनाने में भी मर्मज्ञ हैं। दूध का 30 फीसदी कारोबार संगठित ढांचा,मसलन डेयरियों के माध्यम से होता है। देश में दूध उत्पादन में 96 हजार सहकारी संस्थाएं जुड़ी है। 14 राज्यों की अपनी दूध सहकारी संस्थाएं हैं। देष में कुल कृशि खाद्य उत्पादों व दूध से जुड़ी प्रसंस्करण सुविधाएं महज दो फीसदी है, किंतु वह दूध ही है,जिसका सबसे ज्यादा प्रसंस्करण करके दही, घी, मक्खन, पनीर आदि बनाए जाते हैं। इस कारोबार की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इससे सात करोड़ से भी ज्यादा लोगों की अजीविका जुड़ी है। लिहाजा मांस के कारोबार को प्रोत्साहित करके दुधारू पशुओं को बूचड़खाने में काटने का सिलसिला यथावत बना रहता है तो यह वाकई चिंतनीय पहलू है ? इस पर अंकुश लगाने की जरूरत है। बूचड़खानों में काटने के लिए केवल वही मवेशी ले जाए  जाएं जो बूढ़े हो चुके हैं, जिन्होंने दूध देना बंद कर दिया है।

चंद पूर्वग्रही, दुधारू मवेशियों की सुरक्षा को अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक दृष्टि से देखते हुए मुस्लिम हित प्रभावित होने की बात को तूल दे रहे हैं। दुधारू पशुओं को पालने और दूध के व्यापार से ग्रामीण मुसलमान भी जुड़ा है। बकरियों के कारोबार में तो मुस्लिमों की बहुतायत है। इसके विपरीत हिंदुओं में खटीक समाज के लोग भी मांस का व्यापार करते हैं। निर्यात के कारोबार से भी ये लोग जुड़े हैं। ज्यादातर बूचड़खानों के मालिक भी हिंदू हैं। लिहाजा इस मुद्दे को भाजपा के नरेद्र मोदी ने उठाया है, महज इसलिए इसे सांप्रदायिक चश्मे से देखना नाइंसाफी है। जो पशुधन आजीविका के मजबूत संसाधन से जुड़ा है, उसे मांस के लिए मारने के नतीजे भविष्य में घातक साबित होंगे। अंग्रेजी हुकूमत के दौरान गाय मारकर चमड़ा बनाने की शुरूआत अंग्रेजों ने की थी,जिसका व्यापक विरोध हुआ था। वैसे भी गाय समेत अन्य पशुधन पर ही हमारी कृषि व्यवस्था निर्भर है, लिहाजा गुलाबी क्रांति पर लगाम कसना समय की मांग है।

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