श्रीराम तिवारी
विगत ३० सितम्बर २०१० के बाद देश में आसन्न चुनौतियों की सूची में जो विषय अभी तक बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समाजों के द्वंदात्मक विमर्श का कारण था, वो वरीयता में अब नहीं रहा. मंदिर-मस्जिद विवाद वैसे भी आस्था के दो नामों, दो पूजा पद्धतियों, दो बिरादरियों और दो दुर्घटनाओं की एतिहासिक द्वंदात्मक संघर्ष यात्रा का नामकरण मात्र है. दो भिन्न पूजा पद्धतियों में से एक है इस्लाम …दूसरा है भारतीय सनातन धर्म याने भारत की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, धार्मिक परंपरा जिसे वर्तमान में हिदुत्व के नाम से पुकारा जाता है और यह नया नामकरण भारत पर बाहरी आक्रान्ताओं ने थोपा था जिसका श्रीमद भगवद्गीता, बाल्मीकी रामायण, वेद, उपनिषद तो बड़ी चीजें हैं किन्तु मुगलकाल में सृजित लोकभाषा के महान ग्रन्थ रामचरित मानस में भी हिन्दू शब्द का रंचमात्र जिक्र नहीं है. इस्लाम के बारे में हिन्दुओं को सही -सही जानकारी होती और भारतीय पुरातन-सनातन पूजा पद्धति के बारे में मुसलमानों को सही जानकारी होती तो भारत में भी-महास्थिवर मोहम्मद हुए होते और इंडोनेसिया जैसी एक वास्तविक गंगा-जमुनी तहजीब का भारत में भी सकारात्मक आविर्भाव सम्भव हो गया होता. विगत शताब्दी तो दुनिया ने दो महान क्रांतियों को समर्पित कर दी थी. एक-उपनिवेशवाद का खत्म. दो -सर्वहारा क्रांति. वर्तमान 21 वीं शताब्दी में दो चीजें एक साथ जारी है, एक -सभ्यताओं का संघर्ष, दो -नव उपनिवेशवाद अर्थात पूँजी का वैश्वीकरण. ये दोनों ही अवतार शैतानियत के गुणों से सान्निध हैं. दोनों ही मानवता की दो अनमोल शक्तियों का बेहद शोषण करते हुए हैवानियेत की शक्ल में इस वसुंधरा का सर्वस्व नष्ट करते हुए ‘अब सितारों से आगे जहान और भी हैं’ उन्हें विजित करने चाल पड़े हैं. भारत को इन दोनों से एक साथ संघ र्ष करना पढ़ रहा है. एक तरफ वैश्वीकरण की चुनौती और दूसरी ओर साम्प्रदायिकता के जूनून से निरंतर जूझता भारत इतिहास के सबसे खतरनाक मोड़ पर आ खड़ा है. देशभक्ति का असली मतलब है कि दुनिया की तमाम सभ्यताओं में जो सत्व तत्व है उसका नवनीत बनाया जाए और आसन्न विभीषिका को रोका जाए.
हिन्दु धर्म का पुनर्जागरण हो रहा है। सामुहिक हिन्दु चेतना बदली है। लेकिन हिन्दु-धर्म के ठेकेदार उस परिवर्तन से बेखबर है। आवश्यकता है हिन्दु मानस को समझने की। फिर आवश्यकता है संत तुलसीदास की जो हिन्दु चेतनाको सुमार्ग पर प्रेरित कर सके।
आदरणीय,ज्वलंत प्रश्नों को सुलझाने में भारत की जनता को अपने पूर्वागृह से मुक्त होकर वैगयानिक दृष्टिकोण ,ओर शोषण विहीन दृष्टिकोण धारण करना होगा .यह एक विराट ओर दूरगामी लक्ष्य हो सकता है ,इसमें अनेको पीढ़ियाँ भी स्वाहा हो सकतीं हैं .भारत का सबल समाज इसमें रोड़े अटकाएगा किंतु वर्गीय चेतना से लेस क्रांतिकारियों के पास संघर्ष ओर कुर्वाणी के अलावा ओर कोई शार्ट क्ट नहीं है .वैसे आप ये सभी स्थापित मूल्यों को जानते हैं …आपने मेरा आलेख पढ़ा …टिप्पणी की शुक्रिया …
माननीय तिवारी जी आपने सामयिक विषय उठाया है, जिसके लिए आभार. आप लिखते हैं कि-
“देशभक्ति का असली मतलब है कि दुनिया की तमाम सभ्यताओं में जो सत्व तत्व है उसका नवनीत बनाया जाए और आसन्न विभीषिका को रोका जाए.”
मगर दो-चार पंक्ति और लिखकर ये भी बतला देते कि यह सब भारत में कैसे सम्भव है?
जब तक हम केवल सवाल उठाकर छोड़ते रहेंगे कुछ नहीं होने वाला. हमें समाधान और उनके क्रियान्वयन के बारे में भी मार्ग प्रशस्त करना होगा.
आशा है कि लेख एवं अन्य बुद्धीजीवी इस दिशा में चिंतन करेंगे!