अपहरण पर राष्ट्रीय नीति की जरूरत

0
195


जीना है तो मरने के लिए तैयार रहे

– पंकज झा

बिहार में माओवादियों द्वारा आठ दिन से बंधक बना कर रखे एहसान खान, रूपेश कुमार और अभय यादव को सोमवार की सुबह रिहाई के बाद चुनाव की तैयारियीं में जुटे मुख्यमंत्री नितीश कुमार को राहत ज़रूर मिल गयी होगी. आरक्षकों के परिवार जनों को भी सप्ताह भर के सदमे से मुक्ति मिली है. हालाकि बीएमपी हवलदार लुकास टेटे इतने भाग्यशाली नहीं रहे जिनकी लाश शुक्रवार को लखीसराय के पास जंगल में छोड़ दी गयी थी. तो यूं तो अभी मुट्ठी भींचते नितीश को देख कर उनका ही हाल का बयान याद आता है जब उन्होंने नक्सल मामलों पर प्रधानमंत्री द्वारा बुलाई गयी सर्वदलीय बैठक का सत्यानाश कर दिया था. मात्र चंद महीने पहले की ही बात है जब उनको नक्सली ‘अपने लोग’ लगे थे, जिनपर बकौल नितीश, बल प्रयोग करना समस्या का समाधान नहीं था. केवल इसी बयान ने नितीश को भी अवसरवादी नेताओं की उसी ‘ममतामयी’ ज़मात में शामिल कर दिया जो वोट के लिए कुछ भी कह और कर गुजरने में गुरेज़ नहीं करते.

खैर. नेतागण तो अपनी ही चाल चलेंगे. कुर्सी और व्यक्तिगत हित को देश से भी ऊपर समझने वाले नेताओं की ज़मात से आप इससे ज्यादा उम्मीद भी नहीं कर सकते. लेकिन विडंबना है कि अंततः किसी विसंगति के विरुद्ध क़ानून बनाने में भी उनका ही मूंह देखना मजबूरी है. तो नीति निर्धारकों से यह उम्मीद किया जाना उचित होगा कि बंधक समस्या के सम्बन्ध में सरकारों के लिए बाध्यकारी एक सर्वस्वीकार्य नीति बनाए. कंधार के समय से ही यह ज़रूरत समझी जा रही है कि तेज़ी से बढते आतंकी समूहों से निपटने के लिए ऐसी कोई नीति हो. इस नीति में हो यह सकता है कि सबसे पहले सरकार यह घोषित कर दे कि किसी भी हालत में अपहरणकर्ताओं से कोई बात नहीं की जायेगी साथ ही पारिस्थित कितनी भी विषम हो किसी भी कीमत पर कोई फिरौती किसी भी रूप में देना स्वीकार नहीं किया जाएगा. जब भी किसी तरह के आतंकी या अपराधियों द्वारा किये गए किसी भी अपहरण की खबर मिलेगी, बिना किसी नुकसान की परवाह किये सीधा आक्रमण किया जायेगा. एक नज़र में भले ही यह नीति या क़ानून ज़रूरत से ज्यादे कड़ा लगे लेकिन परिस्थितियां जिस तरह की होती जा रही है वहां ‘सोफ्ट स्टेट’ बन कर ऐसे संकटों का सामना नहीं किया जा सकता है. आखिर जहां संसद से लेकर, हवाई ज़हाज़, रेल, बस कुछ भी अपहरण किया जा सकता हो. जहाँ चंद नागरिकों के बहाने सवा सौ करोड नागरिकों के देश को बंधक बनाया जा सकता हो, वहां अब किसी ढुल-मुल नीति या ‘अनीति’ से तो काम चलने से रहा.

लोकतंत्र में कोई भी सरकार जनता को नाराज़ नहीं करना चाहती. कई बार तो यह तुष्टिकरण की हद तक चला जाता है. कांधार प्रकरण के समय परिजनों द्वारा बनाए गए बेजा दवाव के बाद तो ये भी लगता है कि हममें नागरिक बोध का सर्वथा अभाव है. अपने परिजनों को खोना या खोने की आशंका क्या होती है यह भुक्तभोगी ही समझ सकते हैं. लेकिन यह भी सही है कि लाख आतंकी कारवाइयों के बावजूद भी आज भी आतंकी हमलों में मारे गए लोगों से ज्यादा तो सड़क दुर्घटना में लोग मर जाते हैं. तो पहली बात यह कि इस मामले में जनमत का निर्माण करना होगा. सरकार को चाहिए कि विभिन्न प्रचार माध्यमों द्वारा जनता को जागरूक करे कि मुट्ठी भर अमानुषों के आगे देश को झुका देने के बदले मर जाना बेहतर है. इस तरह के लोकमत के साथ अगर हम लोगों तक अपनी बात पहुचाने में सफल रहे, ‘स्वाभिमान के साथ अगर जीना है तो मरने के लिए तैयार रहें’ यह भाव अगर जनता में भर उनके नागरिक बोध को जगा कर ही आतंक के विरुद्ध इस आर-पार की लड़ाई में सफलता हासिल की जा सकती है. ऐसा करने से शुरुआत में ज़रूर ज्यादे नुकसान होना संभाव्य है लेकिन अगर एक बार आतंकियों तक यह सन्देश पहुचाने में हम सफल रहे कि किसी भी कीमत पर किसी भी तरह के फिरौती की बात कम से कम सरकार द्वारा नहीं की जायेगी. तो उन्हें भी यह लगेगा के इस हथियार के उपयोग का कोई मतलब ही नहीं है और वे भी इस रास्ते को अपनाने से बचेंगे.

तो अब तीन जवानों की सकुशल वापसी के बाद बिहार और देश के लोग थोड़ी राहत की सांस ले रहे हैं. तो अभी यह सही समय है कि केंद्र द्वारा पहल कर देश के लिए इस मामले में बिना किसी भेदभाव के मतैक्य स्थापित करे. अगर संभव हो तो यथाशीघ्र क़ानून बनाकर फिर उसी आधार पर लोकमत के निर्माण के लिए पहल करे. इस मामले में अभी सही समय है कल को काफी देर हो जायेगी. नक्सल समेत कई गिरोहों की हालत अभी लौटती हुई सेना जैसी है. छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश आदि में इन्हें नुकसान भी काफी उठाना पड़ा है. तो ऐसे बिखरे गिरोह ज्यादे खतरनाक होते हैं. और इनसे किसी भी तरह के बातचीत की बात निष्फल ही साबित होनी है. आखिर आप किस किस से बातचीत करेंगे? एक समूह द्वारा बात कर लिए जाने पर भी कोई दूसरा उसे मान ही ले उसकी क्या गारंटी है? या आज तक हमें यही कहां पता है कि ये गिरोह आखिर चाहते क्या हैं. घोषित तौर पर अगर इन्हें किसी संसदीय प्रणाली में आस्था ही नहीं तो आखिर किस हैसीयत से इस प्रणाली से चुनी हुई कोई सरकार बातचीत करेगी ? तो हवलदार ‘लुकास टेटे’ के शहादत की कीमत पर भी अगर हम इतना सा सबक सीख सकें और अपहरण के किसी भी स्थिति के लिए एक कड़ी नीति बना सकें तो यही उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here