पराई बुद्धि से स्वकार्य संपन्न नहीं होते- कुसुमलता केडिया

कोई भी समाज तब तक स्वस्थ, सबल, स्वाधीन एवं प्रतिष्ठा संपन्न नहीं हो सकता जब तक उसकी सामूहिक बुध्दि जाग्रत एवं प्रदीप्त न हो। उधार की तलवार से लड़ाई तो हो सकती है, परंतु उधारकी बुध्दि से ऐश्वर्य एवं श्री की प्राप्ति असंभव है। पराई बुध्दि से स्वकार्य संपन्न नहीं होते, पराई सेवा तो खूब हो सकती है।

यूरोप, एशिया, अप्रफीका और उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका के मूल समाज ईसाई एवं इस्लामी साम्राज्यवादी अभियानों तथा आक्रमणों के दौर में अपने विद्या-केन्द्रों, परंपराओं और प्रवाहों को खो बैठे हैं और अब स्मृति-भ्रंशता की स्थिति में हैं। उन्हें जो याद है, वह यूरो-अमेरिकी ईसाई अथवा इस्लामी बुध्दि द्वारा अनूदित एवं व्याख्यायित है। वे काफी हद तक भूल चुके हैं कि उनके शक्ति-स्रोत क्या हैं, विशिष्टताएं क्या हैं, कमियां क्या हैं। उनकी वास्तविक शक्ति को आक्रमणकारी बुध्दि ने स्वभावत: कमजोर बताकर परिभाषित एवं व्याख्यायित किया – लगातार, लंबे समय तक। तब तक, जब तक वह उनके अंदर पैठ नहीं गया।

भारत भूमि एक मात्र ऐसी भूमि है जहां स्मृतियां हैं, परम्पराएं भी शेष हैं। जीवन प्रवाह बड़े पैमाने पर सनातन धर्म प्रवाह से पुष्ट और प्रेरित है। ईसा के 2000 साल बाद भी जहां एक पुण्यसलिला के तट पर, कुंभ जैसे एक धार्मिक-सांस्कृतिक-बौध्दिक आयोजन के लिए स्व-समृति, स्व प्रेरणा, स्व-सामर्थ्य, स्व-संगठन एवं स्वानुशासन से इतनी बड़ी संख्या में धर्मनिष्ठ हिन्दू एकत्र होते हैं, जो अनेक यूरोपीय ईसाई-इस्लामी राष्ट्रों की संख्या के बराबर है। अनेक धमकियों, आशंकाआें, विघ्नों के बावजूद वह आयोजन निर्विघ्न संपन्न होता है। यह भारत के, उसके हिन्दू मानस के, उसकी हिन्दू बुध्दि के आंतरिक सामर्थ्य, वैभव, ऐश्वर्य का एक गूढ़ प्रतीक है।

भारतीय बुध्दि जिसे अब हिन्दू बुध्दि कहना ज्यादा सुसंगत, तार्किक एवं समीचीन-उपयुक्त होगा, में भी अनेक सिकुड़नें आई हैं। इस्लामी युध्दोन्माद, शत्रु के प्रति उसकी बर्बर नीति, उम्मा एवं मिल्लत की उसकी मजहबी समझ और उसकी भीषण धनलिप्सा ने भारतीय समाज पर बारंबार भीषण प्रहार किए हैं। 1000 साल तक इस्लाम से युध्दरत हिंदू समाज के बौध्दिक केंद्र टूटे। ये इस्लामी आक्रमण के विशेष लक्ष्य भी थे। इस्लाम से इतर बुध्दि-धाराओं को शैतानियत और कुप्रफ बताकर गैर मुस्लिम शिक्षाकेन्द्रों को बार-बार तहस-नहस किया गया। तक्षशिला, नालंदा, सिंध-हैदराबाद, लरकाना, पाटल, मुल्तान, ठट्ठा, कन्नौज, मदुरा, विजयनगर, वारंगल, गोंडवाना, कलंजर, देवगिरी, चित्तौड़, रणथंभौर, उज्जयिनी, चंदेरी, धार, वृंदावन, मथुरा, प्रयाग, काशी, कामरूप, नवद्वीप, पाटलिपुत्र, पाटन आदि केंद्रों पर बारंबार अकारण बर्बर आक्रमण सर्वविदित अपराध है।

हिंदू राजाओं के प्रचंड प्रतिकार, हिंदू बौध्दिक समूहों की निरंतर बुध्दि-साधना एवं हिंदू समाज के जातिगत दृढ़संगठन ने विद्याधाराओं को बार-बार संभाला, जीवित और पोषित किया। फिर भी एक हजार सालों तक चले आततायी मुस्लिम आक्रमणों के दबावों से उनमें जबर्दस्त सिकुड़न तो आ ही गई। हिंदू बुध्दि की यह आंतरिक सामर्थ्य ही थी कि इस्लामी बर्बरता शेष विश्व की तुलना में यहां भारत में थोड़ी थमी और मर्यादित भी हुई।

तत्पश्चात ईसाई सर्वग्रासी कुटिल बुध्दि ने देश के बचे-खुचे विद्या केन्द्रों, विद्या परंपराओं एवं बौध्दिक समूहों का चुन-चुनकर व्यवस्थित ढंग से नाश किया।

अभिलेखागारों में सुरक्षित अनेकानेक रिपोटरों गैर ईसाईयों के प्रति ईसाई मष्तिस्क के बौध्दिक विद्वेष के प्रामाणिक साक्ष्य हैं। उनका आक्रमण सूक्ष्म एवं जटिल था, अत: मारक क्षमता भी अधिक थी, प्रभाव भी दूरगामी एवं गहरा था। तदापि हिंदू बुध्दि ने गौ-रक्षिणी सभाओं, धर्मकेंद्रों, धर्मचर्चाओं, इष्टापूर्त की विषद परंपराओं एवं धार्मिक अनुशासन द्वारा हिंदू-परंपरा की रक्षा के माध्यम से तथा भारत माता की भक्ति भावना के प्रसार से ईसाई साम्राज्यवादी कुटिलताओं का भी बड़ी सीमा तक प्रतिकार किया। हमें संपूर्ण स्वाधीनता आंदोलन में ध्यान था कि किन-किन क्षेत्रें में हमारी बौध्दिक क्षति हुई है, कैसे-कैसे गंभीर प्रयास करने होंगे- हमें पुन: उस बौध्दिक ऐश्वर्य को, सामर्थ्य को प्राप्त करने के लिए।

हमारे पूर्वजों का अद्भुत बौध्दिक, आध्यात्मिक पराक्रम ही सुरक्षित रख पाया है, हमारी संस्कृति को तथा हमारी उस विराट विरासत को, जिसके कारण आज सभ्यतागत विमर्श संभव है। कोई भी समाज तब तक स्वस्थ, सबल, स्वाधीन एवं प्रतिष्ठा संपन्न नहीं हो सकता जब तक उसकी सामूहिक बुध्दि जाग्रत एवं प्रदीप्त न हो। उधार की तलवार से लड़ाई तो हो सकती है परंतु उधार की बुध्दि से ऐश्वर्य एवं श्री की प्राप्ति असंभव है। पराई बुध्दि से स्वकार्य संपन्न नहीं होते, पराई सेवा तो खूब हो सकती है।

स्वबुध्दि से ही देश-काल का सम्यक् बोध संभव है। समाज की अपनी मनीषा ही अपने शक्तिकेंद्रों और दुर्बल क्षेत्रें को चिन्हित कर सकती है। स्वमेधा से ही स्वसामर्थ्य का विस्तार संभव है। स्वाभाविक है कि यूरोपीय ईसाई मेधा यूरोपीय ईसाईयत का नए-नए रूप में विस्तार करे, उसके कार्य संपन्न करे, अन्यों को इन्हीं लक्ष्यों के संपादन में नियोजित करे। हमें इस सबके प्रति सजग एवं सचेत रहना होगा।

स्वयं के तेजस्वी सामर्थ्यवान पूर्वजों की बुध्दि के अनादर से इतिहास में अभी तक कोई राष्ट्र सफल, सबल नहीं बना है। हम भी इस तथ्य के अपवाद नहीं हैं। यह अति आवश्यक है कि हम अपनी बुध्दि के दर्पण में स्वयं को देखें, विश्व को देखें, मित्र-शत्रु एवं तटस्थ समूहों को परखें, उनका बलाबल आकलन करें। आक्रांता समूहों की बौध्दिक धारणाएं, सिध्दांत, पदावली, संरचनाएं, शैली, भाषा और मुहावरे हमें श्रीहीन बनाएंगें, हमें उनके ही लक्ष्यों के लिए नियोजित करेंगे।

अत: आवश्यक है कि हम अपनी सभ्यागत बौध्दिक विरासत को पहचानें। अपने आधारभूत प्रत्ययों, पदों, मानों, आदर्शों, लक्ष्यों, परंपराओं, व्यवस्थाओं, बीज-पदों, ज्ञानधाराओं, पुरुषार्थ-रूपों एवं वीरता-रूपों को जानें। औरों के लक्ष्यों, योजनाओं, प्रवृत्तियों, शक्तियों, सीमाओं, दोषों-गुणों एवं कर्मों को धर्माधर्म विवेक के आलोक में जानें, समझें जिससे कि सम्यक्, प्रभावी संवाद संभव हो। हमारा प्रयास होना चाहिए कि हम समकालीन विषयों पर स्वयं को एवं विश्व को हिंदू दृष्टि से देखें, जानें, स्मरण करें और तदनुसार स्वधर्म का निर्धारण करें।

12 COMMENTS

  1. आदरणीय प्रोफ. महोदया जी ने बहुत ही उत्तम बात कही है. बिलकुल सही है की हजारो सालो से भारतीय samaj को ख़त्म करने का प्रयास किया जा रहा है. किन्तु हिमारी विरासत ऐसी है की अभी तक सलामत है. किन्तु जितना विनाश पिछले २००० सालो में नहीं हुआ है वोह पिछले 40-50 सालो में हो चूका है. एक वर्ग पैदा हो चूका है तो सिर्फ और सिर्फ हिन्दू धर्म की बुराय ही करता है. घर्म में पूजा करतें है किन्तु राजनैतिक फायदा के लिए हिन्दू धर्म को गाली देते है.

    एक पीढ़ी के साथ पूरा इतिहास ख़त्म हो जाता है अगर वोह किताबो में संभल कर नहीं लिखा जाय या आने वाली पीढ़ी को बताया नहीं जाय. पिछले १०० सालो में हमारे देश के बारे में सच्चा इतिहास बताया ही कहाँ गया है. आजादी के बाद तो पूरा का पूरा इतिहास ही बदल दिया है.
    जिस प्रकार माराठी भाषी का बच्चा मराठी बोलेगा, बंगाली का बच्चा बंगाली, चीनी का बच्चा चीनी आर अंग्रेज का बच्चा अंग्रेजी बोलेगा क्योंकि घर में बोली जा रही है. हमारे देश के लोगो को सच्चा इतिहास ही नहीं पता है तो सच का बोध कहाँ से होगा. गौरवशाली इतिहास पर गर्व कहाँ से होगा. भला हो कुछ गिने चुने बुद्धिजीवि वर्ग जो हिंदी भाषा में लोगो को सच्चा इतिहास बताते है. हालाँकि पहले भी कुछ सच्चा इतिहास छपता था किन्तु वोह अंग्रेजी में और इतना महंगा होता था की आम आदमी न तो खरीद सकता था और न ही पढ़ सकता था. अगर खरीद ले और पढ़ ले तो भी अंग्रेजी इतनी कठिन होती थी की समझ ही नहीं सकता था की मतलब क्या है.
    एक बार फिर प्रोफ. महोदया जी को धन्यवाद.

  2. यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
    यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः
    भाइयो ये समय संतान की अच्छाई या किसी दुसरे धर्म की बुराई की बात करने का नहीं है ,क्योकि माँ बहिनों के चरित्र का अंत करने की साजिश में विदेशी कम्पनिया सफल हो रही है उन्हें भारत ही नहीं दुनिया से नाश करने का समय है : जागो वीर आर्यों जागो धरा और वसुंधरा दोनों की रक्षा करो

  3. सुश्री केडिया जी आपने ग्वालियर के किले का रेखाचित्र ही क्यों कगाया,हालांकि मुझे यह देखकर बहुत अच्छा लगा. आपके लेख की तरह यह किला भी बहुत सुन्दर है और हमारे ग्वालियर की पहचान है.

  4. कुसुम LATAJI Ke abhi tak ३ लेख पढने को मिले. तीनो ही उच्च कोटि के हैं. आज का लेख is लिए mahatva purna है ki desh me shasan dwara samarthit abhiyan chalaya ja raha है jis का uddeshya hamari सांस्कृतिक धरोहर को निष्प्राण करना है देशवासिओं के मन से हिंदुत्व अर्थात भारतीयता की भावना को मिटा देना है इस आक्रमण को निष्फल करने के लिए कुसुम लता जी जैसे विद्वानों द्वारा निरंतर एवं सशक्त प्रयास की आवश्यकता है .कुसुम लता जी को हार्दिक धन्यवाद. सभी पाठकों से अनुरोध है की श्री राजीव मल्होत्रा की पुस्तक” ब्रेअकिंग इंडिया” अवश्य पढ़ें

  5. आपका लेख बहुत ही तथ्य पूर्ण एवं उच्कोटी का है | आशा है आप लिखती रहेगी और हमे पढने को मिलता रहेगा | साभार धन्यबाद

  6. कुसुमलता जी आपके विचारो को ऐसे ही पंख लगे रहे वीनावादिनी सदैव अप पर क्रपा द्रष्टि रखे .
    और आप हम सब में आपने विचार ऐसे ही प्रवाहित करती रहे

    शुभ कामना

  7. विश्व अभी घुटनों के बल चलना भी नहीं सीखा था ,जब हमारे पूर्वज ईश्वर प्र्द्दत्त ऐश्वर्या को पा गए थे . यह वही सभ्यता है जिसने नारि अपमान के प्रतिकार में महाभारत लड़ा . आ: कुसुमलता जी जैसे विद्वान ही भारतियों के भ्रमित और सोए हुए आत्मसम्मान को पुनर्जागृत कर सकते हैं… श्रेष्ठ लेखन के लिए साधुवाद. .. उतिष्ठकौन्तेय

  8. मैंने तो गंदे हाथों को काटने नहीं उसको शुद्ध करने की बात कही है.हम लोग बोलते तो बहुत हैं और अच्छी अच्छी बातें भी करते हैं,पर मेरा अब तक का अनुभव यही है की हम उस पर स्वयं अमल नहीं करते और हमारी कथनी और करनी में अंतर बरकरार रहता है.मेरा इशारा इस अंतर को खत्म करने की ओर है ,अन्य कुछ भी नहीं

  9. लेख उच्चा कोटि का है. प्रोफ कुसुम लता जी को धन्यवाद. मैं डॉ. कपूर जी के विचारून से सत्प्रितिसत सहमत हूँ. आर सिंह जी की प्रतिक्रिया समझ में नहीं आई यदि सभी हाथ गंदे हैं तो उनेह साफ करने की कोशिश न की जय जो की यह लेख कोसिस जर रहा है या उन हाथों को कट दिया जय? श्री मांन सिंह जी को कुत्च सूझाव देना चाहिया था. कुसुम जी से यही प्रार्थना है की आपका प्रयतन सराहनीय है और भगवन आपको आपके कार्य में सफल करें

  10. मानस शास्त्रीय, और ऐतिहासिक, सत्यों को जिस धारा प्रवाह भाषा में, और, कलात्मक ढंगसे आपने संक्षेप में, आलेखित किया है; दुर्लभ प्रतिभाका लक्षण है। ऐसी ही अनुग्रहित करती रहें, यह बिनती।
    सही कहा आपने: ” उधार की तलवार से लड़ाई तो हो सकती है, परंतु उधारकी बुध्दि से ऐश्वर्य एवं श्री की प्राप्ति असंभव है।”
    “उद्धरेत आत्मनात्मानं” यहां भी सत्य ही प्रतीत होता है। हाथी किचड में फँसे, तो उसे स्वयं ही बाहर निकलना होता है। बहुत बहुत धन्यवाद।

  11. लेख से स्पष्ट प्रगट हो रहा है की लेखिका उच्च कोटि की विदुषी हैं. उन्हों ने एक छोटे से लेख में हिन्दू गौरव व अतीत के अनेक आयामों को समेटने का प्रयास किया है. आवश्यकता है कि वे उक्त विषय के एक-एक आयाम को लेकर अधिक विस्तार से विषय पर प्रकाश डालें जिस से पाठक उनके ज्ञान से अधिक लाभान्वित हो सकें.

  12. हिंदुत्व का आधार जो व्यक्तिगत नैतिकता है वह आज कितने हिदुओं में है?एक बात का मै बार बार स्मरण दिलाता हूँ और दिलाता रहूँगा की गंदे हाथों से सफाई नहीं हो सकती,अत;अगर कोई सचमुच हिन्दू परम्परा को आगे बढाना चाहता है तो उसे स्यवं को शुद्द्ध करना पड़ेगा.अफसोस ही है की इस मापदंड पर खरा उतरने वाला कोई दिख नहीं रहा है.

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