न समाजवाद न बहुजनवाद : साईकिल के चक्कों में फंसा बचपन

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unnamed-1यहाँ न तो समाजवाद दिखता है और न ही बहुजनवाद , अगर कुछ दिखता है तो बच्चो का साईकिल के चक्कों में फंसा बचपन

अनुज हनुमत

आपको पता है कि आपको सबसे ज्यादा आश्चर्य का शिकार कब होना पड़ता है । अगर नही पता तो मैं बताता हूँ । जब हम अपने आस पास बनावटी माहौल में जिंदगी जी रहे होते हैं और हमें सबकुछ सही होता प्रतीत होता है । तभी अगर आप अपने मूल स्थान से ठीक सटे किसी इलाके में पहुंचे और आप अपनी नजरों से देखें की वहां का जीवन कैसे समय के सापेक्ष लगातार दम तोड़ता जा रहा है ! ऐसी स्थिति में तब अत्यधिक आश्चर्य होता है । ऐसी ही एक घटना का मैं आपके साथ जिक्र करने जा रहा हूँ । बीते हफ्ते मैं घर (पाठा की धरती) पर था सोंचा थोड़ा घूम लूँ पर दिमाग काम ही नही कर रहा था पर मैंने अंततः अपने दिमाग को एकाग्र किया और अपनी बाइक उठाई और निकल गया अपने नगर (मानिकपुर,सरहट जिला-चित्रकूट) से कुछ दूर, कहने को तो मैं अभी अपने नगर से चार किमी दूर ही गया था पर अचानक एक गाँव आया जहाँ एक बच्चे को देखकर मेरे हाथ ने तुरंत ही दिमाग के आदेश का इन्तजार करे बिना बाइक में ब्रेक लगा दिया । सरकारी दस्तावेजों के हिसाब से तो गाँव लगभग सौ घरो का था पर मैं जिस जगह खड़ा था उस स्थान में ज्यादातर आदिवासियो के घर थे और पास में ही दो सरकारी विद्यालय ।
कहने को इस गाँव में खूब विकास है नाली है सड़क है पानी की टंकी है बिजली है ।। अगर कुछ नही है तो वो है रोजगार !

अगर शिक्षा के प्रति बच्चों के ख़त्म होते रुझान की बात करें तो आपको इसका अंदाजा यहाँ के सरकारी विद्यालयों से लग जायेगा । यहाँ के विद्यालय में कहने को तो सारे बच्चों का एडमिशन है और शायद सभी बच्चे कुछ अहम मौके पर उपस्थित भी हो जाते हों पर पर सच्चाई ये थी की विद्यालय में इक्का दुक्का ही बच्चे थे । जब मैं उसी समय गाँव के अंदर गया तो मुझे कई बच्चे साइकिल के चक्के चलाते हुए दिखे ।  मैंने उन्हें रोककर पूछा – बेटा तुम्हारा क्या नाम है ? बच्चे ने कहा -कल्लू ,मैंने फिर पूछा -स्कूल जाते हो ? ,बच्चा बोला – नही प्रतिदिन नही , मैंने फिर पूछा क्यों ? , बच्चा बोला -पापा मना करत हैं कहत हैं तै का करिये स्कूल जाके ,याहे से मैं स्कूल न जाके काम मा जात हौ और बहुत लड़का अपै घर के कामै मा चले जात हैं । मैंने जब उनके घर वालो से पूछा की आप अपने बच्चों को स्कूल क्यों नही भेजते ?
वो बोले – साहब ई स्कूल जाके का करीहे अगर काम मा जईहे तौ दूई पैसा कमा के लयिहे तौ घर के काम चली पढ़ै मा काहे समय खराब करी पढाई वढ़ाई बड़े घरन के आये ।

कुछ भी हो लेकिन ये सच्चाई से भरे नजारे पर्याप्त होते हैं जहाँ सारे सरकारी दावे फुस्स नजर आते हैं । सबसे खास बात तो ये है कि यहाँ विकास का शहरी फासला किसी खाई से कम नही लगता । यहाँ के बच्चों का भविष्य साइकिल के चक्कों में फंस कर रहा गया है जहाँ न तो कोई समाजवाद दिखता है न ही बहुजनवाद की झलक दिखती है अगर कुछ दिखता है तो वह इन बच्चों की आँखों में कुछ करने की ललक जिसे किसी सहारे की जरुरत है जो उन्हें इस संक्षिप्त मानसिकता से निकालकर उस भारत की दौड़ में शामिल होने का मौका दे सके जहाँ आज बुलेट ट्रेन के सपने देखे जा रहें हैं । शिक्षा किसी भी समाज के विकास की अहम कड़ी होती है पर दुःख होता है जब ऐसे गाँव और ऐसे बच्चों के दर्शन होते हैं जहाँ स्कूल तो हैं पर बच्चों के हाथ में किताब और पेन के बजाए साइकल के चक्के और हाथ में एक पतली लकड़ी होती है जिसे कम से उन नेताओं को और प्रशासन के उन सूरमाओं को जरूर देखना चाहिए जिनके बच्चों के एक हाथ में तो किताब है और दुसरे हाथ में वाई फाई से लैस मोबाईल ।

अगर आंकड़ों की बात करें तो कोई भी दांतों तले उंगलिया दबा सकता है । 21 लाख से ज्यादा बाल मजदूरों की संख्या के साथ,उत्तर प्रदेश बाल मजदूरी में देश में भारी अंतर के साथ सबसे आगे है। क्राइ (चाइल्ड राइट एंड यू) द्वारा किये गए जनगणना के विश्लेषण के मुताबिक इन 21 लाख में 7.5 लाख से अधिक बाल मजदूर या तो निरक्षर हैं या फिर मजदूरी के कारण उनकी पढ़ाई नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है। 2011 की जनगणना के अनुसार प्रदेश में 2176706 बाल-मजदूर थे। इनमें से करीब 60 फीसदी सीमान्त मजदूर थे जो कि साल में 6 महीने से कम समय के लिए मजदूरी करते थे। क्राइ (चाइल्ड राइट एंड यू) द्वारा किये गए जनगणना के विश्लेषण से ये भी पता चलता है कि राष्ट्रीय स्तर पर 7-14 आयु वर्ग के करीब 14 लाख बाल मजदूर अपना नाम तक नहीं लिख पाते।

मित्रो वैसे तो मैं थोडा घूमने ही निकला था पर इस गाँव को देखकर और यहाँ चक्के चला रहे भारत के भविष्य को देखकर मैं तो पूरे एक पहर के लिए ठहर सा गया था ,मैंने तो कसम खा ली चाहे हमारा देश मंगल में मानव सहित क्यों न चला जाए ~ चाहे तो हमारा देश एक विकसित देश क्यों न बन जाये ~ चाहे यहाँ कितनी भी बुलेट ट्रेन क्यों न दौड़ने लग जाए ~ पर मैं तो अपने देश पर तभी गर्व करूँगा जब गाँवों में बस रहे इस यथार्थ भारत के इन मासूम बच्चों के हाथो में चक्के और डंडे के स्थान पर एक हाथ में किताब पेन तो दुसरे हाथ में एक बेहतर भविष्य हो और ये बच्चे खुद को शहरो के विकास की दौड़ में खुद को दौड़ा सके तब जाकर पूरा होगा ‪#‎अतुल्य_भारत‬ का सपना ।

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