राजनीतिक अस्थिरता की चपेट में नेपाल

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FILE- In this Oct. 11, 2015 file photo, Nepal's Khadga Prasad Oli addresses the parliament before being appointed as the new Prime Minister in Kathmandu, Nepal. Oli has resigned before facing a confidence vote in parliament that he expected to lose. (AP Photo/Niranjan Shrestha, File)

अरविंद जयतिलक
नेपाली प्रधानमंत्री केपी ओली द्वारा अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान से पहले ही इस्तीफा दिए जाने से एक बार फिर नेपाल में राजनीतिक संकट खड़ा हो गया है। प्रधानमंत्री ओली ने नेपाली कांग्रेस और माओवादियों (यूसीपीएन-एमसी) पर साजिश रचने का ठीकरा फोड़ते हुए कहा है कि भारत और चीन के साथ निकटता की वजह से उन्हें कुर्सी गंवानी पड़ी है। उधर माओवादियों के नेता पुष्पदहल कमल प्रचंड की मानें तो ओली की पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ नेपाल (यूएमएल) दोनों दलों के बीच तय हुए नौ बिंदुओं वाले समझौते को लागू करने और मई में सरकार का मुखिया बदलने के फैसले का पालन नहीं की लिहाजा उन्हें मजबूरन समर्थन वापसी का फैसला लेना पड़ा। गौरतलब है कि दोनों दलों के बीच एक अलिखित समझौता हुआ था कि ओली बजट पेश करने के बाद दो महीने के भीतर प्रधानमंत्री पद का परित्याग कर देंगे और फिर प्रचंड नेपाल के प्रधानमंत्री बनेंगे और ओली की पार्टी यूएमएल उन्हें समर्थन देगी। याद होगा गत 4 मई को भी माओवादियों ने ओली सरकार से समर्थन वापसी की धमकी दी थी लेकिन चीन के हस्तक्षेप के बाद माओवादियों ने समर्थन वापसी का विचार त्याग दिया। उस समय नेपाल द्वारा भारत को संदेह की नजर से देखा गया और दबी जुबान से कहा गया कि ओली सरकार को अस्थिर करने की साजिश नई दिल्ली में रची गयी। नेपाल ने इस धारणा को मजबूती देने के लिए भारत से अपने राजदूत को वापस बुलाया और नेपाली राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी का भारत दौरा रद्द हुआ।

इस बार भी चीन ने माओवादियों को मनाने की भरपूर कोशिश की कि ओली अपने पद पर बने रहे ताकि अक्टुबर में होने वाले चीनी राष्ट्रपति की नेपाल यात्रा में विध्न-बाधा पैदा न हो। लेकिन माओवादियों ने चीन की एक नहीं सुनी और ओली सरकार से समर्थन वापस ले लिया। अब दो करोड़ अस्सी लाख की आबादी वाला नेपाल एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता के भंवर में है। देखें तो इस अस्थिरता के लिए नेपाल के राजनीतिक दल ही जिम्मेदार है। यह किसी से छिपा नहीं है कि माओवादी नेता प्रचंड नेपाल की ओली सरकार से नाराज थे और उसका मुख्य कारण प्रधानमंत्री केपी ओली द्वारा आश्वासन के बावजूद भी मानवाधिकार हनन के आरोपी माओवादी नेताओं और कार्यकर्ताओं को माफी न दिया जाना था। इसके अलावा वे ओली और नेपाली कांग्रेस के नेता रामचंद्र पौडेल से बढ़ती निकटता को लेकर भी असहज थे। दरअसल दोनों के बीच इस बात की खिचड़ी पक रही थी कि समर्थन के बदले प्रधानमंत्री ओली भविष्य में नेपाली कांग्रेस के नेता को प्रधानमंत्री का समर्थन कर सकते हैं। लेकिन प्रचंड ने नेपाली कांग्रेस के ताकतवर नेता शेर बहादुर देउबा से मिलकर ओली का खेल बिगाड़ दिया। माना जा रहा है कि माओवादियों और नेपाली कांग्रेस के बीच सत्ता बंटवारे का समझौता हो गया है और अब आने वाले दिनों में प्रचंड और शेर बहादुर देउबा बारी-बारी से नेपाल के प्रधानमंत्री बन सकते हैं। लेकिन सत्ता बंटवारे के इस समझौते को परवान चढ़ाना आसान नहीं होगा। इसलिए कि जनवरी 2018 में स्थानीय, प्रांतीय और राष्ट्रीय चुनाव होने हैं। ऐसे में दोनों दलों के बीच तनातनी बढ़ सकती है।

इसके अलावा दोनों दलों के बीच कुछ अन्य मसलों को लेकर भी गंभीर मतभेद हैं। यह मतभेद गठबंधन की गांठ को ढ़ीला कर सकता है। किसी से छिपा नहीं है कि माओवादियों और नेपाली कांग्रेस दोनों ही एकदूसरे पर मानवाधिकार हनन करने के कई मुकदमें दर्ज करा चुके हैं। बहरहाल ओली के इस्तीफे के बाद सत्ता का ऊंट किस करवट बैठेगा यह कहना तो कठिन है लेकिन एक बात साफ है कि कोई भी दल नेपाल की मूल समस्याओं से निपटने को लेकर गंभीर नहीं है। भविष्य में सत्ता की कमान चाहे जिसके भी हाथ आए उसे गभीर चुनौतियों का सामना करना ही पड़ेगा। इसलिए कि मधेशी दल एक बार फिर आंदोलन के लिए कमर कसना शुरु कर दिए हैं। दूसरी ओर भूकंप के बाद पुनर्निर्माण की चुनौती भी जस की तस बनी हुई है। जहां तक मौजुदा परिस्थितियों के बीच भारत व नेपाल के संबंध कैसे होंगे यह अभी भविष्य के गर्भ में है। लेकिन सच्चाई यह है कि भारत नवंबर 2015 में नेपाल में लागू संविधान से खुश नहीं है।

इस संविधान में मधेशियों के अधिकारों का हनन हुआ है। दूसरी ओर भारत नेपाल में चीन की बढ़ती दखलांदाजी को लेकर भी असहज है। गत वर्ष जिस तरह नेपाल के प्रधानमंत्री ओली ने चीन की सात दिवसीय यात्रा कर उसके साथ ट्रांजिट व ट्रांसपोर्ट समझौता को आकार दिया वह कुलमिलाकर भारतीय हितों के विरुद्ध रहा। अब अगर माओवादी नेता प्रचंड नेपाल के प्रधानमंत्री बनते हैं तो यह भारत के हित में नहीं होगा। प्रचंड की चीन से निकटता किसी से छिपा नहीं है। याद होगा गत वर्ष पहले सीपीएन माओवादी के अंतर्राष्ट्रीय ब्यूरो प्रमुख कृष्ण बहादूर माहरा और एक अज्ञात चीनी के बीच बातचीत का जारी टेप की खबर दुनिया के सामने उजागर हो चुका है जिसमें माहरा द्वारा प्रचंड के नेतृत्व में नई सरकार के गठन के वास्ते 50 सांसदों की खरीद-फरोख्त के लिए 50 करोड़ रुपए की मांग की गयी थी। प्रचंड के सत्ता में आने से नेपाल में चीन का हस्तक्षेप बढ़ना तय है। अभी गत माह पहले ही चीन ने नेपाल में तेल, गैस एवं अन्य खनिजों की खोज शुरु की है।

नेपाल की मदद के नाम पर सड़क और रेल नेटवर्क को भी खोल दिया है। वह अपने गांसू राज्य से रेल डिब्बों में सामान भरकर नेपाल को भेज रहा है। इसके अलावा वह अन्य क्षेत्रों मसलन शिक्षा, बिजली में भी भरपूर धन खर्च कर रहा है। वह नेपाल के लोगों को प्रभावित करने के उद्देश्य से वहां पुस्तकालय, विज्ञान प्रयोगशाला के अतिरिक्त हजारों की संख्या में स्कूल खोल रहा है। महत्वपूर्ण बात यह कि चीन को माओवादियों का खुला समर्थन मिल रहा है। नेपाल में माओवादियों की एक विशाल आबादी वैचारिक रुप से स्वयं को चीन के निकट पाता है। चीन इस वस्तुस्थिति से सुपरिचित है और उसका भरपूर फायदा उठा रहा है। साथ ही वह वैचारिक निकटता का हवाला देकर भारत विरोधी माओवादियों को भड़काने की साजिश भी रच रहा है। दूसरी ओर नेपाल के माओवादी नेता स्वयं को भारत विरोधी प्रचारित करने से बाज नहीं आ रहे हैं। वे चीन की शह पर 1950 की भारत-नेपाल मैत्री संधि का विरोध कर रहे हैं।

जबकि वह अच्छी तरह अवगत हैं कि यह संधि भारत के लिए सामरिक लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है। चीन नेपाली माओवादियों को आर्थिक मदद देकर और राजनीतिक समर्थन व्यक्त कर भारत के साथ चली आ रही जल बंटवारे और सिंचाई से संबंधित व्यवस्था में भी खलल डाल रहा है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि नेपाल चीन की इस खतरनाक नीति से बेखबर है। जबकि उम्मीद थी कि नेपाल में केपी शर्मा ओली के प्रधानमंत्री बनने से भारत से उसके संबंध सुधरेंगे। लेकिन विडंबना है कि प्रधानमंत्री ओली जब तक गद्दी पर बने रहे भारत से संबंध सुधारने के बजाए चीन को ही प्राथमिकता दी। याद होगा जब नेपाल में संविधान लागू होने के बाद मधेशियों द्वारा विरोध किया गया था तो वे कहते सुने गए कि अगर भारत नेपाल को सामान नहीं देगा तो वह चीन से उसे हासिल कर लेगा। यही नहीं उनकी सरकार ने आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति में बाधा डालने को मुद्दा बनाकर संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत को असहज करने की कोशिश भी की। नेपाल ने धमकी दिया कि अगर भारत हमें पीछे ढकेलना जारी रखा तो उसे मजबूरन चीन की ओर हाथ बढ़ाना पड़ेगा। जबकि यह सच्चाई है कि भारत ने कभी भी नेपाल को मदद करने से इंकार नहीं किया। वह आज भी नेपाल के विकास पर हर वर्ष 6 करोड़ डाॅलर खर्च कर रहा है। इसके अलावा वह हजारों नेपाली विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति और नेपाल की दर्जनों छोटी-बड़ी परियोजनाओं में मदद कर रहा है। उचित होगा कि भारत नेपाल के बदलते राजनीतिक परिदृश्य पर अपनी नजर बनाए रखे। अगर कहीं चीन की नेपाल के राजनीतिक परिदृश्य में दखल बढ़ी तो यह भारत के लिए शुभ नहीं होगा। बेहतर होगा कि नेपाल भी वास्तविक स्थिति को समझे और भारत से संबंध बिगाड़ने के बजाए सदियों पुराने ऐतिहासिक-सांस्कृतिक संबंधों को महत्व दे।

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