विभाजन के कगार पर नेपाली माओवादी संगठन

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गौतम चौधरी

खबर है कि नेपाली माओवादी गिरोह विभाजन के कगार पर है। इस विभाजन के लिए माओवादी प्रधान पुष्पकमल दहाल उपाख्य प्रचंड को जिम्मेवार ठहराया जा रहा है। प्रेक्षकों की मानें तो इस बार बात बनने वाली नहीं है और चाहे जो हो नेपाली माओवादी प्रमुख दहाल के खिलाफ जबरदस्त मोर्चेबंदी होने वाली है। हालांकि खुद प्रचंड ने इस खबर को आधारहीन बताया है और कहा है कि जो लोग पार्टी में विभाजन की बात कर रहे हैं वे लोग साम्राज्यवादी शक्तियों के हाथों खेल रहे हैं। नेपाली माओवादी संगठन के दो नेता सदा शीर्ष पर रहे हैं लेकिन आजकल एक और नेता उभर कर सामने आया है तथा नेपाल के जनमन पर जबरदस्त प्रभाव छोड रहा है। इस नेता का नाम सूरज वैद्य है। सूरज वैद्य के बारे में कहा जा रहा है कि ये माओवादी अघ्यक्ष पचंड के द्वारा खडे किये गये नेता है जो निकट भविष्य में माओवादी उपाध्यक्ष डॉ0 बाबूराम भट्टराई का स्थान लेंगे। इस खबर में कितनी सत्यता है यह तो पता नहीं लेकिन प्रचंड और भट्टराई का शीतयुध्द अब सतह पर दिखने लगा है। विगत दिनों प्रचंड ने भट्टराई की आलोचला करते हुए कहा कि कुछ लोग साम्राज्यवादी ताकत के साथ मिल गये हैं और माओवादी आन्दोलन को कमजोर करने में लगे हैं। प्रचंड खुले तौर पर भट्टराई को भारत समर्थक कह कर अपमानित भी कर चुके हैं। वहीं डॉ0 भट्टराई प्रचंड का नाम लिए बिना कई बार इस बात को कह चुके हैं कि पार्टी के अंदर जनवाद का अभाव है जिसके कारण पार्टी आज टूट के कगार पर है। भट्टराई कई बार पार्टी का महाधिवेषन भी बुलाने की मांग कर चुके हैं लेकिन माओवादी साम्राज्य सत्ता पर कब्जा जमाये प्रचंड को यह सब स्वीकार्य नहीं है।

प्रारम्भ मे माओवादी दल के दो शर्ष् नेता पुष्पकमल और बाबुराम भट्टराई एक दूसर के पूरक के रुप मे देखे जाते थे। चाहे नेपाल का प्रधानमंत्री आवास बालुवाटार हो या भारत की राजधानी नई दिल्ली, लेकिन आजकल दोनों में जबरदस्त ठनी हुई है। प्रचंड जहां एक ओर पार्टी के शीर्ष पदों पर अपने परिवार के लोगों को बिठा रखा है वहीं भट्टराई का कहना है कि पार्टी में आंतरिक जनवाद को बढावा दिया जाना चाहिए। प्रक्षकों का मानना है कि दोनों में सैध्दांतिक और कूटनीतिक मतभेद भी है। जहां प्रचंड चीन के साथ नजदीकी में विश्‍वास करते हैं वही भट्टराई का मानना है कि भारत के साथ नेपाल का सांस्कृतिक संबंध रहा है और भारत के साथ नजदीकी से नेपाल का व्यवस्थित एवं क्रमिक विकास होगा जबकि चीन एक साम्यवादी साम्राज्यवादी देष बन गया है जो नेपाल को अपने हित के लिए हथियार बना सकता है जिससे नेपाली नेतृत्व को सतर्क होना चाहिए। इधर के दिनों में माओवादी प्रधान पुष्पकमल पर कई प्रकार की अनियमितता के आरोप भी लगे हैं। साथ ही यह भी आरोप है कि वे अपने संबंधियों को शीर्ष पदों पर बिठा रखा है जिसके कारण पार्टी के अंदर जनवाद का अभाव हो गया है। पहले तो दोनों नेताओं के बीच की खाई कम दिखती थी लेकिन आजकल दोनों के बीच की खाई स्पष्ट दिखने लगी है। दोनो नेताओ के बीच फासले बढते जा रहे है । दोनो नेताओ के बीच आई इस खई को पार्टी प्रभावहीन करने में नाकाम रही है जिसके कारण नेपाली माओवादी अब भटकाव की स्थिति में आ गये हैं। ऐसा नहीं है कि माओवादी पार्टी नेतृत्व को लेकर संर्घष पहली बार हो रहा है। इससे पहले भी दो बार दोनों शीर्ष नेता आपस में टकरा चुके हैं। पहली बार भक्तपुर के खरिपाटी बैठक में तथा दूसरी बार इसी वर्ष गोरखा के पालुङटार बैठक में । खरिपाटी के विवाद का तो अस्थायी हल निकल लिया गया लेकिन पालुङटार विवाद थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। यह विवाद इतना आगे बढ” गया है कि अब दोनो नेता एक दूसरे पर आरोप भी लगाने लगे हैं। पार्टी अध्यक्ष प्रचंड का कहना है कि भट्टर्राई पार्टी में विभाजन करना चाहते हैं जबकि भट्टर्राई का आरोप है कि दाहाल पार्टी पर एकाधिकार स्थापित करने के फिराक में हैं।

पालुङटार की बैठक में प्रचंड, भट्टराई और सूरज वैद्य के बीच जो विवाद हुआ उसके पीछे कार्यनीति, नेतृत्व और कार्यषैली को जिम्मेवार माना जा रहा था लेकिन वर्तमान विवाद तो केवल केवल नेतृत्व को लेकर है, ऐसा अधिकतर लोगों का मानना है। सबसे बडी बात यह है कि नेपाल का माओवादी नेतृत्व अब यह मान लिया है कि संर्घर्ष का दौरा समाप्त हो गया है। माओवादी एक बार सत्ता में आ जाने के बाद यह सोचने लगे हैं कि किसी भी प्रकार नेपाल की कमान उन्ही के हाथ में होनी चाहिए। प्रचंड चाहते हैं कि नेपाल में अब जो भी हो उन्ही के नेतृत्व में हो लेकिन साम्यवादी लोकतंत्र एवं नेपाली राष्टवाद का समर्थक माने जाने वाले डॉ0 बाबूराम भट्टराई का मानना है कि वेषक प्रचंड को देश का कमान सौंपा जाये लेकिन किसी भी कीमत में प्रचंड को निरंकुष नहीं रहने दिया जा सकता है। भट्टराई दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विष्वविद्यालय में पढ चुके हैं तथा पार्टी के अंदर उन्हें थिंक टैंक माना जाता है। साथ ही दुनियाभर में फैले साम्यवादी समूह से भी भट्टराई का संबंध है। भट्टराई अच्छी तरह जानते हैं कि निरंकुष सत्ता किसी का कल्याण नहीं करती है। इसलिए वे ऐसा मानते हैं कि पहले पार्टी के अंदर आंतरिक जनवाद को बढावा दिया जाये। जिसके नहीं रहने के कारण रूस जैसे देष में साम्यवादी आन्दोलन अंततोगत्वा असफल हो गया। भट्टराई का यह भी मानना है कि चीन अब सचमुच का साम्यवादी देष नहीं रहा। उसने पूंजीवाद को अपना लिया है जो एक नवश्रृजिस माओवादी देष को कभी भी अपने पैरों पर खडा होते नहीं देखना चाहेगा। नेपाल के सामने उत्तर कोरिया, वितनाम आदि कई देशों का उदाहराण है। मुख्य रूप से देखा जाये तो नेपाल के माओवादियों का वर्तमान संकट सिध्दांतों को लेकर कम और पार्टी नेतृत्व को लेकर अधिक है। प्रचंड अपनी कुर्सी छोडना नहीं चाहते हैं। इधर भट्टराई चाहते हैं कि वे पार्टी का कमान सम्हाल लें। पार्टी की कमान सम्हालने के लिए वैद्य भी लालायित हैं। क्योंकि तीनों नेताओं को इस बात का भरोसा है कि आने वाले समय में पार्टी को देश का कमान मिलने वाला है। इधर एक प्रगति और हुई। जहां देष के अन्य दलों के लोग और देष की संवैधानिक ईकाई प्रचंड नेतृत्व को नकारा वहीं केवल माओवादी ही नहीं अन्य लोगों ने भी प्रधानमंत्री के रूप में डॉ0 भट्टराई का समर्थन किया है। इससे प्रचंड और बैखलाये हुए हैं और चाहते हैं कि चाहे जो हो भट्टराई को निवटाया जाये। लेकिन प्रचंड के सामने सबसे बडी समस्या है कि भट्टराई की स्वीकार्यता पार्टी में तो है ही पार्टी के बाहर भी है। साथ ही भट्टराई दुनिया भर के साम्यवादी लडाकाओं के संपर्क में भी है।

अब भट्टराई के खिलाफ प्रचंड ने दोहरी राजनीतिक चाल चली है। एक तो उन्होंने वैद्य का समर्थन करना प्रारंभ कर दिया है। दूसरी ओर वे चाहते हैं कि बाबूराम पर अनुषासनात्मक कर्रवाई कर पार्टी से उन्हें बाहर कर दिया जाये। दाहाल चाहते हैं कि पूर्व अध्यक्ष शालिकाराम जमकट्टेल के नेतृत्व में राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजक समिति का गठन किया जाये जिसका न केवल भट्टराई विरोध कर रहे हैं अपितु वैद्य भी उनके इस निर्णय से सहमत नहीं हैं। दोंनों गुटों के समर्थकों का मानना है कि जमकट्टेल में अधिनायकवादी प्रवृति है। इसलिए उन्हें स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

सबसे बडी बात तो यह है कि पालुङटार की बैठक के बाद से माओवादी लडाकों में भी फूट पड गया है। लडाके अब तीन समूहों में विभाजित हो गये हैं। इन गुटों में किसका गुट शक्तिशाली है यह कहना कठिन है लेकिन इन गुटों में सबसे ज्यादा स्वीकार्यता वैद्य की बतायी जा रही है। इस स्वीकार्यता को भुनाकर प्रचंड वैद्य को बाबूराम के स्थान पर फिट करना चाहते हैं।

बाबूराम के खिलाफ पार्टी के अंदर दो बार अनुशासनात्मक कार्यवाही हो चुकी है। अब प्रचंड की रणनीति है कि भट्टारई को निवटाने के लिए सर्वप्रथम वैद्य को अपने साथ रखा जाये और जब भट्टराई निवट जाएं तो वैद्य को भी निवटा दिया जाये। वैद्य प्रचंड की रणनीति से भिज्ञ लगते हैं इसलिए वे दोनों वरिष्ट नेताओं के खिलाफ बोलने से परहेज कर रहे हैं। वैद्य चुप्पी साधो और देखो की रणनीति पर काम कर रहे हैं। हालांकि कुछ प्रेक्षकों का यह भी मानना है कि वैद्य चीन समर्थक हैं तथा नेपाल में चीन की रणनीति को अमली जामा पहनाने के फिराक में हैं। इसलिस संभव है कि आने वाले समय में वैद्य को पार्टी का कमान सौंपा जाये। इधर पार्टी एवं देष के अन्य संगठनों में अपनी पकड बनाये रखने के लिए भट्टराई को पार्टी के अंदर अनुशासनात्मक कार्रवाई का सामना करना पर सकता है लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि अगर ऐसा होता है तो पार्टी को टुटने से कोई नहीं बचाएगा। तब भट्टराई देश के सर्वमान्य प्रधानमंत्री भी चुने जा सकते हैं। इससे माओवादी आन्दोलन को नेपाल में जबरदस्त झटका लगेगा।

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  1. इस आलेख में मोहन वैद्य के बदले सूरज वैद्य मैंने लिख दिया जो गलत है। आलेख में सूरज के स्थान पर मोहन वैद्य होगा। कृपया संसोधन कर पढे।

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