नेताओं की अभिव्यक्ति पर जनता का तमाचा

सिद्धार्थ शंकर गौतम

बेतहाशा मंहगाई के इस दौर में जहां राजनीतिक अस्थिरता खुलकर सामने आ रही है वहीं आम-आदमी का गुस्सा भी अब फूटने लगा है| ताज़ा उदाहरण है- केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार को पड़ा तमाचा| इस तमाचे की गूँज पूरे देश ने सुनी और यकीन मानिए; राजनीतिक दलों के अलावा आम आदमी ने इस तमाचे को हाथों हाथ लिया| वैसे भी आम जनता अब नेताओं की कारगुजारियों और थोथे घोषणा पत्रों से आजिज आ चुकी है| वह सियासत से तंग है, भ्रष्टाचार से पीड़ित है और नेताओं द्वारा छली जा रही है| ऐसी स्थिति में यदि कोई व्यक्ति इन झूठे और मक्कार नेताओं को जगाने के लिए हिंसा का सहारा लेता है तो मीडिया और तमाम राजनीतिक दल उसे मानसिक दिवालियेपन का शिकार घोषित करने लग जाते हैं| क्या मीडिया और इन तथाकथित नेताओं ने आम-जनता के बीच जाकर यह जानने की ज़हमत उठाई है कि जनता आखिर उनसे क्या चाहती है? जब आम के पेट पर लात पड़ती है तो कोई कुछ नहीं कहता और जब किसी ख़ास के गाल पर तमाचा पड़ा तो हमाम के सभी नंगे एक हो गए| नेता यह क्यूँ नहीं समझना चाहते कि देश और जनता आखिर उनसे चाहती क्या है?

शरद पवार को तमाचा क्या पड़ा पूरे देश में हो-हल्ला मच गया| क्यों भैया? क्योंकि वह राजनेता हैं, लोकतंत्र में उनका मान-सम्मान है| और आम-जनता; उसका क्या? क्या वह लोकतंत्र का हिस्सा नहीं है? क्या उसका अपना कोई मान-सम्मान नहीं है? क्या वह नेताओं के हाथों खेलने वाली कठपुतली बन चुकी है? जब आम आदमी का गुस्सा शब्दों की अभिव्यक्ति से इतर हिंसात्मक रूप अख्तियार कर ले तो समझ लेना चाहिए कि कमी हमारी ही व्यवस्था में है; आम आदमी में नहीं| फिर जो भी सत्ता में रहेगा उसका आम आदमी के प्रति कुछ दायित्व होगा और यदि वह उन दायित्वों को निभाने में अक्षम साबित हुआ तो ज़ाहिर है आम आदमी का गुस्सा कहीं तो फूटेगा| देखा जाए तो हाल के वर्षों में नेताओं पर हमलों की जितनी भी वारदातें हुई हैं; अधिकांशतः कांग्रेस के बड़े नेताओं के साथ हुई हैं| इसकी भी वजह सत्ता है| कारण; सत्ता में रहने वाले को बढती मंहगाई, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों की जिम्मेदारी लेनी होगी लेकिन कांग्रेस के नेता इससे बचते रहे हैं| यही वजह है कि सरकार से जुड़े नेताओं के प्रति आम आदमी के मन में असंतोष है जिसकी परिणिति इस प्रकार के हमलों के रूप में सामने आ रही है|

पी.चिदंबरम, कलमाड़ी, जनार्दन द्विवेदी, सुखराम, शरद पवार जैसे वरिष्ठ कांग्रेसियों पर हुए हमले आम आदमी के सवालों को न सुलझा पाने का नतीजा थे| और ऐसा हो भी क्यों न? आखिर आम आदमी को इन बातों से कोई सरोकार नहीं कि प्रधानमंत्री की अमेरिका ने तारीफ़ की या आडवाणी एक और रथ यात्रा निकालने की तैयारी में हैं| वह तो सरकार से जानना चाहता है कि बेतहाशा बढ़ती मंहगाई पर लगाम क्यूँ नहीं लग पा रही है? क्या कारण है कि भ्रष्टाचार नासूर की तरह हमारी व्यवस्था में घर कर गया है? क्यूँ सरकार अपने ही घर में विफल हो गई है? क्यूँ नेता बे-लगाम बयानबाज़ी द्वारा स्वयं के हित साध रहे हैं? क्यूँ आम आदमी लोकतंत्र का हिस्सा होते हुए भी उससे छिटक गया है? जिस दिन जनता को उसके इन सवालों का जवाब मिल जाएगा; नेताओं को पड़ने वाले तमाचे भी बंद हो जायेंगे|

शरद पवार ने कृषि मंत्री रहते जो बे-लगाम भाषणबाजी की थी उससे कुछ हद तक मंहगाई बढ़ गई थी| मुनाफाखोरों ने उनके बयानों से जमकर चांदी काटी| फिर पवार का मन कृषि मंत्रालय संभालने में कम और आई.सी.सी. का अध्यक्ष बनने में अधिक था| महाराष्ट्र के प्रमुख नेता होने के कारण भी पवार महाराष्ट्र की राजनीति को प्रमुखता देते थे| बेटी सुप्रिया और भतीजे अजीत की आपसी राजनीतिक प्रतिद्वंदिता में पवार शायद यह भूल बैठे थे कि वह केंद्रीय मंत्री होने की वजह से जनता के प्रति भी जवाबदार हैं| उनके गाल पर पड़ा यह तमाचा शायद उन्हें अपने कर्तव्यों की याद दिला पाए|

सरकार में बैठे स्वयंभू नेताओं को समझ लेना चाहिए कि बार-बार लोकतंत्र की दुहाई देकर आप आम आदमी के सपनों को नहीं तोड़ सकते| हर बड़े नेता पर हुए हमले के बाद राजनीतिक पार्टियां एक दूसरे पर दोषारोपण करने लग जाती हैं| आखिर क्यूँ वे अपनी कमियों को दूर करने का प्रयास नहीं करतीं? सत्ता जहां व्यक्ति में उच्चता का भान कराती है; वहीं सत्ता से दूर होने का यह फायदा होता कि हम अपनी कमजोरियों को ढूंढ कर उन्हें दूर करने का प्रयास करें| मगर यहाँ तो सभी पद के लिए भूखे बैठे हैं| किसी को जनता की फ़िक्र नहीं| ऐसे में नेताओं पर तमाचे पड़ना एकदम जायज़ है| ज़रा सोचिए; यही तमाचा किसी गरीब या बेबस को पड़ता तो वह शर्म से गढ़ जाता मगर एक शीर्ष नेता के गाल पर पड़े तमाचे से भी नेताओं ने कोई सबक नहीं लिया| सभी लड़ रहे हैं और सरे-आम लोकतंत्र की हत्या कर रहे हैं| यही हाल रहा तो ऐसे हमले रोज़ सुनने व देखने को मिलेंगे| सरकार समेत सभी नेताओं को अब चेत जाना चाहिए वरना जनता अब जाग चुकी है और वह अब और शोषित होना नहीं चाहती|

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सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

2 COMMENTS

  1. कुछ लोग शरद पवार को थप्पड मारने वाले को शाबाशी दे रहे हैं, खुल कर पर नाज जाहिर कर रहे हैं, माना कि जो कुछ हो रहा है वह जाहिर तौर पर जन आक्रोश ही हे, वह सब वक्त की नजाकत है, उसके लिए पूरा सिस्टम जिम्मेदार है, मगर ऐसी हरकतों का समर्थन करके आज भले ही गौरवान्वित हो लें, मगर कल हम अराजकता के लिए तैयार रहें, अचरज तो तब होता है जब अपने आपको गांधीवादी कहने वाले अन्ना हजारे भी यह कह कर अराजकता का समर्थन कर रहे हैं कि बस एक ही थप्पड, यदि यह सही है तो हमको पाकिस्तान जैसी सैनिक क्रांति या मिस्र जैसी क्रांति के लिए तैयार रहना चाहिए

  2. हंगामा है क्यूं बरपा ,
    थोड़ी सी जो पी है, डाका तो नहीं डाला
    आआआआआ
    चोरी तो नहीं की है—

    हम आह भी भरते हैं तो होते हैं बदनाम
    वो कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती–

    और भी बहुत कुछ आप याद कर सकते हैं- और
    पूछ सकते हैं कि–
    आपको किसने परमिट दिया है साथियों के कपड़े फाड़ने का , पेपर एवं पेपरवैट फेंकने का, फाइले फाड़ने का , चेयर से पेपर छीन लेने का , कुर्सियां मेज माइक तोड़ने का– कितनी ही खूनी घटनाएं देश टीवी पर देख चुका सदनों के भीतर की —— फिर एक विवश ( शायद मानसिक रोगी ) के प्रति यह व्यवस्था इतनी निर्मम हो जाएगी कि शायद उसकी जान लेलेगी और हमारे मीडिया में एक छोटी सी खबर छपेगी फिर सब भूल जाएंगे- फिर भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में करोड़ों टन गेहूं सड़ेगा, चूहे और सूअर खाएंगे और देश में प्रतिदिना करोड़ो लोग भूखे पेट सोएंगे- बच्चे भूख से दम तोड़ेगे कोई मा अपनी लाज बेचेगी और सीमा पर एक भावुक फौजी अपनी जान दे देगा –और ये अपनी अरबों की कोठियों में सुख चैन की नींद सो रहे हौंगें फौजी की विधवा तमाम तरह के प्रमाणपत्रों के लिए भूखी प्यासी घूम रही होगी– स्टेशन पर आपके फेंके हुए पत्ते चाटने के लिए कई भिखमंगे आपस में ही लड़ मर रहे होगे –एक अदालत इस बेचारे को जाने जाने किस किस धारा के तहत सजा सुना देगी– —आज सिहं नाम का व्यक्ति प्रतीक है इस व्यवस्था की निर्दयता का जिसमें आखरी अंजाम का खौफ नहीं रह जाता- इतनी घृणा होती है मन में सामने वाले के लिए । हम इनकी चिंता क्यों करें जब हमारे मूंह पर हमारे परिवार के मुहं पर बूढे मा बाप के ऊपर छोटे छोटे नादना बच्चों के मूहं पर इनके मुस्टंडे दिन रात तमाचा मारते हैं तब इन्हें हम पर तरस आता है- क्या रेल में हमें हमारी रिजर्व जगह पर कोई बैठने देता है और ये बहां भी घपले कर साले सालियों को रिश्तेदारों को रखैलों को सांसदों के पास पर यात्रा कराते हैं- ये किस सहानुभूति के पात्र हैं, हम हमारे नौनिहाल अस्पताल के बरांडे में फर्श पर पड़े होते हैं बहुत ही नाजुक हालत में दम तोड़ रहा होता है हमारा बच्चा और इनके नौनिहालों की दो बार की खांसी जो कि मैक्डोनल्ड में पीजा बर्गर और कोका कोला रात में दो बजे तक पार्टी में बियर के साथ मिलाकर पीने से आती है उसे दिखाने सीध डाक्टर के पास पहुंच जाते हैं और सफेद कोट जो हम पर गरीया रहाथा उठ कर खडा हो जाता है — अरे साब क्या क्या लिखे ?
    व्यक्तिगत रुप से अच्छा न लगने के बाबजूद भी ये दो सभ्यताओं दो वर्गों पीडित और आततायी, शोषित और शासक भेडिये और मेमने के द्वंद का प्रतीक है– आखिर यह सब तो होगा ही क्योंकि अब पानी हर जगह सर से ऊपर जा चुका है – अंग्रेजों के खिलाफ भी आजादी ( हालांकि मिली नहीं सिर्फ कागजों में है ) की शुरुआत छिटपुट घटनाऔं से ही हुई थी अब इसकी प्रतिक्रिया सत्ता बहुत तीब्र करेगा तो यह प्रतिरोध भी भड़केगा और अगर संदेश को समझ कर राजनेता सेवक के रुप में काम करना शुरु करेंगे तो शायद स्थिति सुधर भी सकती है- शायद आप जानते होंगे कि 545 में से कितने सांसद घोषित रुप से करोड़पति है और अघोषित संपत्ति का तो कहना ही क्या-
    मैं तो अपनी कायरता दब्बूपन आलस्य और बेगैरती पर शर्मिंदा हूं कि अभी तक क्रांति हूई क्यों नहीं हमें सब कुछ सहने की आदत होती जा रही है. हम अन्ना का साथ छोड़ते जा रहे है बाबा का साथ छोडते जा रहे हैं ये चालाक सत्ता फिर कुछ टुकड़े फेंक देगी और हम उन्हे खाने को दौड़ पड़ेगे और एक दूसरे को ही नोचने खोसने लग जाएंगे- पता नहीं इतिहास का इतना गौरवशाली देश इतने पतन तक कैसे पहुंच गया- माना कि एक करोड़ लोग किसी न किसी रुप में सत्ता हैं तो बाकी के 109 करोड़ क्या कर रहे हैं – अरे सात्विक हुंकार भी भरदें तो सिंहासन हिल जाएं ।
    आप एक साल टैक्स मत भरिए आपकी जान को बन आएंगे- क्या आप जानते हैं कि कितने माननीयों पर सरकारी कंपनियों का कितना किराया. टैक्स, बिजली विल. पानी बिल. यात्रा बिल, टेलीफोन बिल,——————– बकाया है, आखिर इनकी संपत्ति के बढ़ने का क्या सूत्र है विदेशों मे लगा पैसा किसका है अंडरवर्लड में लगा पैसा किसका है, हे भगवान इस भूमि को पावन प्रणाम पर अगर यहां एसा ही रहना है और तुझे अगर मुझे आदमी बनाना है तो इस देश में मत पैदा करना चाहे कीडां मकोडा कुत्ता बना देना, पर बनाना अमेरिका में….इटली में, जापान में, सिंगापुर में, कम से कम वहां कानून का शासन तो चलता है और भ़ष्टों को सजा होती है वहा वीवीआईपी नाम का फंडा नहीं है और अगर वहां कहीं वेंकेंसी न हो और भारत ही लास्ट चोइस हो ते फिर. किसी नेता के घर में– भारत का आम आदमी मत बनाना बस इतनी सी प्रार्थना है ।

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