मीडिया से दूर कभी नहीं रहता संघ

प्रमोद दुबे

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विषय में हमेशा यह भ्रांति रही है कि संघ प्रचार कार्य से दूर रहते हुए अपने कार्यो में बेहद गोपनीयता रखता है। संघ के विभिन्न अखिल भारतीय कार्यक्रमों का आयोजन हो या चिंतन शिविर, संघ मीडिया से दूरी बनाकर रखता है। मीडियाकर्मियों के बीच हमेशा यह भ्रम की स्थिति बनी रहती है कि संघ के कार्यक्रमों में उनका यह सम्मान है या अपमान? ऐसी ही भ्रमपूर्ण, असमंजसपूर्ण स्थितियां हाल ही में उज्जैन में आयोजित संघ की पांच दिवसीय अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा के दौरान सामने आईं। संघ द्वारा मीडिया को इस कार्यक्रम से दूर रखा गया। आयोजन के प्रथम दिन संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्यजी पत्रकारों के सामने आए और पत्रकारों के इस भ्रम को दूर किया। वहीं, तीसरे दिन पुनः संघ के सरकार्यवाह भैयाजी सहित मनमोहन वैद्य भी पुनः सामने आए और पत्रकारों के समक्ष चिंतन शिविर का सार रखा।
भारतीय मीडिया को संघ के इस कदम से यह सबक लेना होगा कि संघ मीडिया से दूरी नहीं रखता, वरन बौद्धिक स्तर पर मर्यादा व संघ संस्कारों की यह ऐसी रेखा है, जिसका सम्मान बनाए रखना आवश्यक है। मीडिया से संघ की दूरी एवं प्रचार के प्रति संघ के दृष्टिकोण को संघ के नजरिए से-डॉक्टरजी के यहां स्वयंसेवकों से अनौपचारिक वार्तालाप के समय पुणो के एक अखबार में प्रकाशित समाचार का उल्लेख हुआ। वह समाचार पुणो में संपन्न स्वयंसेवकों के निजी कार्यक्रम से संबंधित था। एक स्वयंसेवक ने कहा कि संघ के कार्यक्रमों को यदि समाचार पत्रों में प्रकाशित किया जाए, तो संघ के विचारों को लोगों तक पहुंचाना आसान होगा। इस पर अन्य स्वयंसेवक ने कहा कि यदि यह पद्धति अपनाई गई, तो आगे चलकर स्वयंसेवक यह भी सोचने लगेंगे कि संघ के उत्सवों के निमंत्रण घर-घर जाकर देने की अपेक्षा वर्तमान पत्रों में ही उनका प्रकाशन करना उचित होगा।

फिर किसी स्वयंसेवक ने यह आशंका प्रकट की कि अखबार संघ के कार्यक्रमों का वृत्त सही ढंग से प्रकाशित करेंगे, इसका क्या भरोसा? डॉक्टरजी ने कहा-समाचार-पत्रों में प्रसिद्धि के कार्य में लाभ होने वाला हो, तो इसमें कोई आपत्ति नहीं है, पर यदि प्रसिद्धि के चक्कर में संघ कार्य को क्षति पहुंचे, तो उसे उचित नहीं माना जा सकता। यह विषय महत्व का है। इस पर सभी को सावधानीपूर्वक विचार करने की आवश्यकता है, सभी इसका विचार करें। अवसर मिलने पर हम पुनरू इसका विचार अवश्य करेंगे। दो-चार दिन बाद विचार-विनिमय अवसर उपलब्ध हुआ। इस बीच दिल्ली का संघ से संबंधित समाचार प्रकाशित हुआ था, जिसमें कहा गया था कि श्री बाबासाहब आपटे और श्री वसंतराव ओक, यह दोनों संघ प्रचारक इन दिनों संघ कार्य करने हेतु दिल्ली आए हुए हैं और वे संघ की शाखाएं खोलेंगे। भारत की राजधानी में संघ का कार्य प्रारंभ होने जा रहा है, यह जानकर स्वयंसेवकों के मन में प्रसन्नता और समाधान की भावना पैदा हुई।

डॉक्टरजी ने कहा-दिल्ली में अभी हाल ही में जैसे-तैसे संघ का कार्य प्रारंभ होने जा रहा है। अतरू ऐसे समय में समाचार-पत्र में ऐसा समाचार प्रकाशित होना ठीक नहीं हुआ। संघ का कार्य वहां जड़ जमाए, इसके पूर्व ही ऐसे समाचार के प्रकाशन से चतुर और तीक्ष्ण बुद्धि वाले अंग्रेज शासकों का ध्यान भी उस ओर आकषिर्त होगा, जो यह नहीं चाहते कि संघ कार्य बढ़े। कार्य बढ़ने के बाद सार्वजनिक कार्यक्रम का वृत्त भले ही वह संक्षेप में क्यों न हो, यदि प्रकाशित होता है, तो चल सकता है। हमारे कार्य की प्रसिद्धि और प्रचार संघ शाखाओं के प्रभाव से होनी चाहिए। डॉक्टरजी ने कहा-उक्त आशय का पत्र मैंने श्री वसंतराव के नाम भेजा है और भविष्य में इस बारे में सावधानी बरतने की सूचना भी दी है। कुछ दिनों बाद प्रसिद्धि का यह विषय पुनरू चर्चा में आया। नागपुर के विजयादशमी महोत्सव के अध्यक्षीय भाषण का वृत्त तैयार कर समाचार-पत्रों में प्रकाशनार्थ भेजा गया था।

वह प्रकाशित हो, ऐसा अनुरोध भी डॉक्टरजी ने संपादकों से किया था। भूतपूर्व राज्यपाल श्री तांबे और सर मोरोपंत जोशी संघ के उत्सव में अध्यक्ष और प्रमुख अतिथि के नाते उपस्थित हुए थे। सरकारी-दरबार में उनके शब्दों का वजन था। इस कारण समाचार-पत्रों में प्रकाशित उनके भाषणों का अच्छा परिणाम हुआ। संघ व सरकारी सेवाओं में कार्यरत स्वयंसेवकों पर किसी प्रकार की पाबंदी लगाने का विचार करने वाले वरिष्ठ अधिकारियों को, इन भाषणों के बाद, संघ पर कोई आरोप लगाने या आपत्ति उठाने का विचार कुछ काल के लिए त्यागने को विवश होना पड़ा, क्योंकि उक्त दोनों वक्ता महोदयों ने अपने भाषणों में संघ कार्य की प्रशंसा की थी।

एक बार बैठक में ‘आईना’ और उसकी उपयोगिता की चर्चा निकल पड़ी। एक स्वयंसेवक ने कहा-हम कैसे दिखाई देते हैं, आईना हमें बिना किसी झिझक के बताता है। सिर के बाल ठीक से संवारे नहीं हों, शर्ट की कॉलर एक ओर से भीतर की ओर दबी हुई हो, आंखों की किनार साफ नहीं हो, चाय की कुछ बूंदें मूछों पर जमी हों, तो यह सारी बातें अपने उसी स्वरूप में हमें आईना ही दिखाता है। डॉक्टरजी ने कहा-हम कैसे दिखाई देते हैं, यह तो आईना हमें बताता है, किंतु हम दिखते कैसे हैं, इसकी अपेक्षा सिर में निरपेक्ष देशभक्ति के विचारों पर ही हमें अधिक बल देना चाहिए। डॉक्टरजी की बातें स्वयंसेवक बड़ी गंभीरता से सुन रहे थे। समाचार-पत्रों में संघ का वृत्त प्रमुखता से प्रकाशित हो, इसकी बजाय हमें अपनी संघ शाखाओं को अधिक सुदृढ़ करने, स्वयंसेवकों की संख्या बढ़ाने, उनमें आत्मीय संबंध बढ़ाने, अनुशासन को जीवन का स्थाई भाव बनाने आदि बातों पर अधिक बल देना चाहिए। एक बैठक में, विजयादशमी महोत्सव की निमंत्रण पत्रिकाओं की वितरण-व्यवस्था पर चर्चा हो रही थी।

निमंत्रण पत्र बांटने में काफी समय लगता है। किसी कम परिचित या अपरिचित के यहां निमंत्रण पत्र देते समय उसके साथ इसी निमित्त परस्पर वार्तालाप करना ही पड़ता है। वह उत्सव में अवश्य पधारे, इसका प्रयास किया जाता है। यह प्रयास कुछ मात्र में सफल भी होता है, किंतु इस प्रकार निमंत्रण पत्र वितरण में केवल 4-6 सज्जनों के यहां जाना ही संभव हो पाता है। एक स्वयंसेवक ने अपना उक्त अनुभव सुनाया। डॉक्टरजी बोले-इसी पद्धति से निमंत्रण पत्रों का वितरण हो। हां, निमंत्रण-पत्रों का ठीक ढंग से वितरण करने के बाद हम उसे समाचार-पत्रों में प्रकाशित कराएं, तो उपयोगी होगा। संघ की कार्यपद्धति में उत्कृष्ट संघ शाखाओं के निर्माण पर ही बल दिया जाता है। लोग संघ पर यह आरोप लगाते थे कि संघ प्रसिद्धि से दूर भागता है। आज अनेक सत्ताधारी नेता भी कहते पाए जाते हैं कि संघ प्रसिद्धि के पीछे कभी नहीं रहा, इसलिए संघ की शक्ति कितनी है, इससे हम बेखबर रहे। संघ के प्रारंभिक काल में प्रसिद्धि के संबंध में इस प्रकार समन्वय साधने की नीति संघ कार्य पद्धति का स्वाभाविक अंग बन गई।

 

(सहयोग-‘संघ कार्यपद्धति का विकास’ पुस्तक से)

1 COMMENT

  1. जब भारत में ७५-७६ में आपातकाल तत्कालीन इंदिरा शासन ने घोषित किया था, तब प्रसिद्धि विन्मुख कार्य पद्धति के कारण ही, आर एस एस के स्वयंसेवकों के, कुछ के ही पासपोर्ट जप्त हुए थे| और बाकियों के नाम और छाया चित्र कभी समाचार में ना होने के कारण आंदोलन अमरीकन शासन की ओरसे दबाव लाने में सफल हुआ था|
    यह बहुत बहुत बड़ा लाभ संघ की प्रसिद्धि विन्मुख कार्य प्रणाली का है| यह कम से कम ऊर्जा खर्च करवाती है| और अधिकाधिक सफलता दिलवाती है| नाम के पीछे भागने वाले नाम पा लेते हैं, इस लिए गरीबों के घर जाकर फोटू खिंचवाना ही कार्य बन जाता है|
    ऐसे तरीकों से नाम मिलता है, पर सही काम नहीं हो सकता| सारी कि सारी दिशा बदल जाती है| सारी राजनीति नाम और प्रचार और समाचार में सम्मिलित किया जाना, इत्यादि पर निर्भर रहती है| ठोस काम के लिए यह “बड़ा घाटा” सिद्ध होता है| जाना कहां था?, और पहुंचे कहाँ?
    नाम के लिए काम, नाम मात्र ही होता है| फिर तो तस्वीर के लिए ही बन जाता है|
    जिस परम वैभवं के लिए संगठन कटिबद्ध है, भारत राष्ट्र कि सनातन विश्व हितैषी, सर्व कल्याण कारी संस्कृति को, विश्व गुरु के स्थान पर आसीत देखना चाहता है| उसे गुमराह करने वालों सावधान!
    डॉ साहब सही है, आज भी सब घपला करने वाले “नाम के पीछे दौड़ाने वाले ही है|
    अनगिनत स्वयं सेवक जो ठोस काम कर पाए हैं, उनका नाम कहीं पर भी लिखा नहीं होता, चित्र छापा नहीं होता, समाधि पर दीपक तक जलाने वाले कभी कभार होते हैं
    मिटटी में गड़ जाता दाना|
    पौधा ऊपर तब उठता है||
    पत्थर से पत्थर जुड़ता जब|
    नदिया का पानी मुड़ता है||
    इतिहास की दिशा मोड़ने वालों के लिए नाम का कोई औचित्य नहीं, यह एक मरीचिका है, गुमराह कर देगी| जय भारत|

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