नये बैंकों से किसकी भरेगी झोली

0
132

बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पीछे सरकार की मंशा थी, आम आदमी को बैंकों से जोड़ना। उसके स्वरुप को कल्याणकारी बनाना। सरकारी योजनाओं का लाभ जनता तक पहुँचाना तथा रोजगार सृजन के द्वारा उन्हें आत्मनिर्भर बनाना। स्वंय सहायता समूह एवं अन्यान्य सरकारी योजनाओं के माध्यम से लोगों को उनका हक दिलवाने में सरकार बहुत हद तक कामयाब भी रही है। जाहिर है सरकारी बैंकों की महत्ती भूमिका के बिना यह संभव नहीं था। ध्यातव्य है कि राष्ट्रीयकरण से पहले बैंकों की कुँजी राजाओं के हाथ में थी, जिनका उद्देशय केवल लाभ अर्जित करना था। उस वक्त भी आज की तरह निजी बैंक महाजनी खेल में माहिर थे। आमजन के कल्याण या फायदे से उनका कोर्इ सरोकार नहीं था।

किसी भी देश को सुचारु रुप से चलाने के लिए सरकार का बैंकों पर नियंत्रण होना जरुरी है। मंहगार्इ, मुद्रास्फीति, विकास दर इत्यादि पर बैंकों के द्वारा ही नियंत्रण संभव है। देश को विकास की पटरी पर लाने के लिए जनसाधारण को पूँजी की जरुरत है और पूँजी का प्रवाह बैंकों के माध्यम से हो सकता है। आजकल बाजार में पूंजी के कम होने की बात कही जा रही है। लघु उधोग और रियल्टी कंपनियों को सस्ते दर पर कर्ज की दरकार है। निवेश की गति धीमी हो गर्इ है। बैंकिंग व्यवस्था द्वारा पूंजी निवेश के मामले में काफी कमी आर्इ है। इस मद में 2003-04 में 5.6 लाख करोड़ रुपये खर्च किये गये थे, जो घटकर 2011-12 में 50000 करोड़ रुपये रह गये। रिजर्व बैंक वस्तुस्थिति से वाकिफ है। इसलिए उसने फिर से बैंकों के नकद आरक्षित अनुपात (सीआरआर) में 25 आधार अंकों की कटौती किया है। अब सीआरआर घटकर 4.25 प्रतिशत हो गया है। इस कटौती से बाजार में 17000 करोड़ की नकदी आ गर्इ है। वैसे रिजर्व बैंक वित्त वर्ष 2012-13 की अपनी दूसरी तिमाही के मौदि्रक समीक्षा में नीतिगत दरों में कटौती कर सकता था, लेकिन फिलवक्त उसने अपने इस तीर को कमान के अंदर रखा है। रिजर्व बैंक के द्वारा उठाये गये इस कदम के बाद बैंकों के पास पूंजी तो आ गये हैं, किन्तु कुछ बैंक जरुरतमंदों को सस्ता कर्ज देने के लिए राजी नहीं हैं। यधपि भारतीय स्टेट बैंक ने कर्ज दर में कटौती करने के संकेत जरुर दिये हैं।

इस संदर्भ में काले धन को रोकने में बैंकों की महत्वपूर्ण भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। बैंक पर हमारी निर्भरता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। आज मनरेगा के तहत लाभार्थी को बैंक के माध्यम से मजदूरी देना हो या फिर दूसरी योजनाओं के लाभार्थियों के बैंक खातों में सीधे सबिसडी की राशि जमा करनी हो, कोर्इ कार्य बैंक की सहभागिता के बिना संभव नहीं है।

बीते दिनों में सीडीआर में डालने के बाद भी अनेकानेक कारपोरेटस खाते गैर निष्पादित परिसंपत्तियां (एनपीए) हो चुके हैं। इस श्रेणी में किंगफिशर एक बड़ा नाम है। खुदरा कारोबार के खिलाड़ी कुटोन्स, सुभिक्षा और विशाल मेगामार्ट के खाते भी एनपीए हैं। आष्चर्यजनक रुप से डिफाल्टर कंपनियों को कर्ज देने में निजी बैंकों की भागीदारी बहुत ही कम है। स्पष्टत: निजी बैंक कारपोरेटस की करतूत व रवैया दोनों से वाकिफ हैं। लिहाजा कारपोरेटस को बड़े कर्ज देने में वे परहेज बरतते हैं। दूसरी तरफ उन्हें कर्ज की नीति में बदलाव करने के लिए सरकारी दबाव को भी नहीं झेलना पड़ता है। कंसोर्टियम लेंडिंग अरेंजमेंट के तहत कर्ज मुहैया करवाने में भी निजी बैंकों की रुचि नगण्य है। दरअसल इसतरह से कर्ज देने की व्यवस्था में सभी सदस्य बैंक मिलकर कर्ज की शर्तों को तय करते हैं, जिससे किसी सदस्य बैंक को मनमानी करने का मौका नहीं मिलता है।

सरकार और रिजर्व बैंक के प्रयासों के बाद भी आज ग्रामीण एवं कस्बार्इ इलाकों की एक बड़ी आबादी बैंकों से जुड़ नहीं पार्इ है। समस्या की गंभीरता को समझकर वित्त मंत्रालय के निर्देश पर भारतीय रिजर्व बैंक ने हाल ही में सरकारी बैंकों को ताकीद किया है कि वे वित्तीय समावेशन की संकल्पना को पूरे देश में शत-प्रतिशत लागू करने की दिशा में कार्य करें। इसके लिए सरकार ने भारत के हर योग्य नागरिक का खाता बैंकों में खोलने का लक्ष्य रखा है। इस लक्ष्य को दो तरह से पूरा किया जा सकता है। बैंक शाखाओं की संख्या को बढ़ाकर या फिर ग्रामीणों को बैंकों से जोड़कर। बिहार में इस दिशा में तेजी से काम किया जा रहा है। वित्तीय वर्ष 2012-13 मेंं विभिन्न बैंकों के द्वारा बिहार में तकरीबन 4800 (अड़तालीस सौ) शाखा खोले जाने की संभावना है। 4800 में से 3600 शाखाएँ छोटे स्तर की यानि अल्ट्रा स्माल होंगी, जोकि एक अधिकारी के द्वारा संचालित होगा। इसी क्रम में बिजनेस फेसिलिटेटर एवं बिजनेस कोरेस्पोडेन्ट नाम के दो पद भारतीय स्टेट बैंक में सृजित किये गये हैं। इस पद पर भर्ती ग्रामीणों के बीच में से की जाती है। इनका मुख्य काम होता है गाँवों में घूम-घूमकर योग्य ग्राहकों की पहचान करना एवं उनका खाता खुलवाना। रिकवरी की जिम्मेवारी भी इन्हें दी गर्इ है, लेकिन ग्राहकों से जमा राशि स्वीकार करने के मामले में सीमा रखी गर्इ है।

ज्ञातव्य है कि सरकार द्वारा नये बैंक खोलने के लिए फरवरी, 2010 में लाइसेंस देने की घोषणा की गर्इ थी। अगस्त, 2010 में भारतीय रिजर्व बैंक ने परामर्ष पत्र जारी किया। फिर उसके ठीक एक साल के बाद अगस्त, 2011 में रिजर्व बैंक के द्वारा मसौदा नियमावली को प्रस्तुत किया गया। बावजूद इसके बैंकिंग नियमन कानून (बीआरए) में संशोधन के मुद्दे पर मामला अधर में लटक गया। वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक के बीच शुरु से ही इस मुद्दे पर एकमतता नहीं थी। दरअसल प्रस्तावित नये बैंकों पर अपना नियंत्रण बनाये रखने के लिए रिजर्व बैंक, बैंकिंग नियमन कानून में संशोधन करवाना चाहता है, क्योंकि प्रस्तावित संशोधन के बाद केन्द्रीय बैंक जरुरत पड़ने पर किसी भी बैंक के बोर्ड का अधिकार अपने नियंत्रण में ले सकता है। चेयरमैन, प्रबंध निदेशक और दूसरे निदेशकों को उनके पद से हटा सकता है। इसके अलावा रिजर्व बैंक इस संशोधन के द्वारा जमाकर्ताओं के हितों को भी सुनिश्चित करना चाहता है। फिलहाल वित्त मंत्री पी चिदंबरम को रिजर्व बैंक का यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं है। उनके अनुसार संशोधन की औपचारिकता बाद में भी पूरी की जा सकती है। उनका कहना है कि लाइसेंस जारी करने और नये बैंकों का परिचालन शुरु करने तक की अवधि के बीच में काफी वक्त है, जिसमें बैंकिंग नियमन कानून में संशोधन किया जा सकता है। वित्त मंत्रालय चाहता है कि रिजर्व बैंक यथाशीघ्र बैंकिंग लाइसेंस जारी करने के लिए आवष्यक कार्रवार्इ पूरी करे। श्री चिदंबरम ने कहा है कि रिजर्व बैंक अंतिम नियमावली के स्वरुप को जल्द से जल्द फाइनल करे और इच्छुक प्रतिभागियों से आवेदन आमंत्रित करे। इसके बरक्स उल्लेखनीय है कि रिजर्व बैंक के गवर्नर श्री डी सुब्बाराव ने पूर्व में संभावित उम्मीदवारों के आवेदनों की जाँच करने के लिए एक समिति गठित करने की बात कही थी। लेकिन वित्त मंत्रालय के हालिया निर्देश के आलोक में श्री सुब्बाराव ने बैंकिंग लाइसेंस जारी करने की दिशा में काम शुरु कर दिया है। उनके अनुसार पहला लाइसेंस जारी करने में अनुमानत 8 से 9 महीना का समय लगेगा। श्री चिदंबरम के अनुसार शीतकालीन सत्र में बैंकिंग कानून में संशोधन किया सकता है। यदि संशोधन शीतकालीन सत्र में किसी कारण से नहीं किया जा सका, तो उसे बजट सत्र में जरुर अमलीजामा पहनाया जाएगा।

उल्लेखनीय है कि अगस्त, 2011 में पेश किये गये मसौदे में नये बैंक शुरु करने के लिए आवष्यक शर्तों को अंतिम रुप दे दिया गया था। इस मसौदे के मुताबिक नये बैंक शुरु करने के लिए 500 करोड़ की पूँजी होनी चाहिए। इच्छुक उम्मीदवार का कारोबार कम से कम 10 साल पुराना हो। कंपनी के पवर्तक का भारतीय और र्इमानदार छवि वाला होना आवष्यक है। बोर्ड में विदेशी पवर्तक हो सकते हैं, लेकिन नियंत्रण भारतीय पवर्तकों के हाथ में होना चाहिए।

अगर इन सारे शर्तों को कोर्इ कारपोरेट पूरा करता है तो वह नये बैंक शुरु करने के लिए आवेदन दे सकता है। सूत्रों के अनुसार टाटा, बिड़ला और अंबानी जैसी नामचीन हसितयाँ बैंकिंग के व्यवसाय में अपना कदम रख सकते हैं।

आज भ्रष्टाचार ने सरकारी बैंकों के काम-काज को प्रभावित किया है। आम आदमी को उनका हक मुषिकल से मिल पा रहा है। सूचना का अधिकार कानून, 2005 के असितत्व में आने के बाद से हालत बदले हैं। भ्रष्टाचार तो निजी बैंकों में भी हैं। खुलासामैन (अरविंद केजरीवाल) का एचएसबीसी के विरुद्ध लगाया गया आरोप इस तथ्य की ओर स्पष्ट इशारा करता है। पड़ताल से स्पष्ट है कि सरकारी बैंकों पर लगाम लगाने के लिए पचास रास्ते हैं, लेकिन निजी बैंकों पर नकेल कसने के मामले में सरकार एकदम असहाय है। ऐसी परिस्थिति में कारपोरेटस को नये बैंकों के लिए लाइसेंस देने के लिए वित्त मंत्रालय द्वारा तत्परता दिखाना सरकार की मंशा को संदेहास्पद बनाता है। यहाँ यह भी सवाल उठता है कि क्या निजी बैंक सरकारी बैंकों के रास्ते पर चलने के लिए तैयार हैं? निश्चित तौर पर निजी कंपनियां बैंकिंग क्षेत्र में समाज सेवा करने के लिए नहीं आ रही हैं। सामाजिक और कल्याणकारी बैंकिंग की संकल्पना उनके लिए बेकार की बातें हैं। उनका उद्देष्य होगा सिर्फ और सिर्फ मुनाफा कमाना। समाज और देश को इनसे किसी भी प्रकार की अपेक्षा रखना बेमानी है।

सतीश सिंह

 

Previous articleदास्ताँ-ए-कसाब का हुआ अंत
Next articleस्वच्छंदजी बोले
सतीश सिंह
श्री सतीश सिंह वर्तमान में स्टेट बैंक समूह में एक अधिकारी के रुप में दिल्ली में कार्यरत हैं और विगत दो वर्षों से स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। 1995 से जून 2000 तक मुख्यधारा की पत्रकारिता में भी इनकी सक्रिय भागीदारी रही है। श्री सिंह दैनिक हिन्दुस्तान, हिन्दुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण इत्यादि अख़बारों के लिए काम कर चुके हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here