जातिगत आंदोलन का नया रूप

भारतीय राजनीति की यह अपनी विशेषता है कि घटना के घट जाने के पश्चात उसे राजनीति के गहरे समुद्र में उतार दिया जाता है।ठीक उसी तरह की घटी उससे पूर्व की घटना के कारण जानने के लिए ,उसे दूर करने के लिए हम अग्रसर नहीं होते।आज कल रोहित वेमुला काफी चर्चा का विषय बना हुआ है।उसकी मृत्यु के बाद तमाम राजनीतिक दल पूर्व निर्धारित तरीके से राजनीति करने से पीछे नहीं हट रहे हैं।रोहित वेमुला को शहीद बताकर दलित आंदोलन एक बार फिर से उबाल पर है।

गौर करने की बात यह है राजग से पूर्व संप्रग की सरकार में भी उसी हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में 9 दलित छात्रों ने आत्महत्या की जो 1 के मुकाबले काफी ज्यादा है परन्तु क्या वह 9 आत्महत्याए अकारण ही की गयी थी?निश्चित रूप से उनके पीछे भी गहरे कारण रहे होंगे ।अगर उन 9 केसों पर ध्यान दिया जाये तो हमे उनमे से भी गूढ़ राज मिलेंगे परन्तु अब रोहित केस के आगे उस पर जाने का समय कहाँ है।परन्तु यह आत्महत्या किसी और कारण से चर्चा में रही और इसे बनाया भी गया।

जब बंदारु दत्तात्रेय के द्वारा पत्र लिखकर यह बात की गयी कि कुछ छात्र राष्ट्रविरोधी हरकतों में शामिल हैं तो इसमें कुछ भी गलत नही था क्योंकि रोहित वेमुला के फेसबुक वाल पर बीफ पार्टी व याकूब मेमन का समर्थन किआ गया था एवं इसी मसले पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से झड़प भी हुई।ज़ाहिर तौर पर याकूब का समर्थन राष्ट्र विरोधी बात थी तो वहीं गोमांस का मुद्दा भारत में रहने वाले बहुसंख्यक हिंदुओ की जनभावना से जुड़ा हुआ था।

परन्तु उस समूचे प्रकरण का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है जातिवाद को बढ़ावा देना जिसका उल्लेख बंदारु के पत्र में किया गया था और जिसके कारण आज यह आंदोलन का रूप ग्रहण कर रहा है।जब रोहित ने चिट्ठी लिखकर कुलपति से  अपनी पीड़ा ज़ाहिर की कि किस तरह से उसे प्रताड़ना झेलनी पड रही है तो हमे उस प्रताड़ित के साथ मानवीयता के कारण खड़ा होना चाहिये था।रोहित की मृत्यु के बाद तथाकथित लोग आज उसे अमर शहीद बनाकर श्रद्धाञ्जलि देने पहुच रहे हैं परन्तु वे ही लोग व संगठन उस वक़्त उनके साथ खड़े क्यों नही हुए।क्या रोहित ने इस बाबत आवाज़ नही उठाई थी?आवाज़ भी उठाई थी और अम्बेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन  के तहत प्रदर्शन भी कर रहे थे परन्तु तब वह राजनीतिक मुद्दा बन नही पाया,हमारी मीडिया को ऐसी घटनाओं में कोई दिलचस्पी नही क्योंकि एक आंकड़े के अनुसार भारत में दलितों पर हर 5 घण्टे पर कोई न कोई घटना घट जाती है और अगर ऐसी घटनाओ को हमारी मीडिया तूल देने लगी तो उसे मसाला जैसी चीज़ उपलब्ध नही हो पायेगी।यही वजह है की मृत्यु के बाद ही उसे मसाला मिला जिसे आज हर खबरिया चैनल व समाचार पत्र आगे बढ़ाकर पेश कर रहे हैं।

भारतीय समाज की समाजिक संरचना बहुत अलग किस्म की है जिसमे जातीय संकल्पना अति महत्वपूर्ण है और यह विश्व में अन्यतम है।भारतीय समाज के बारे में इसीलये जब राम मनोहर लोहिया जातीय संकल्पना को लेकर आगे बढ़ते हैं तो निश्चित रूप से वह जातीय संकल्पना के सकारात्मक पहलू को भी उजागर करते हैं एवम् राजनीति में जाति की महत्ता को स्वीकार करते हैं,पर वह स्वीकारना जातिवाद को बढ़ावा देने जैसा नही है।भारतीय समाज आज भी जातीय बन्धन में विशुद्ध रूप से जकड़ा हुआ है।समस्या यह है कि शिक्षित लोग भी जाकर खाप पंचायतों का समर्थन कर रहे हैं जो जातिगत मामलों को बढ़ावा दे रहा है।अगर हम वास्तव में एक बेहतर समाज की चाहत रखते हैं तो हमे इन जातिगत मामलों पर अपने समाज की संरचना को ध्यान रखते हुए विचार करना चाहिए।दलितों की स्थिति आज भी हमारे गांवों में बेहतर नही है।अभी भी उत्तर भारत के अधिकांश गांवों में दलितों की बस्ती गावँ के एक किनारे ही पायी जाती है।हमारे मानसिक ताने बाने ने अभी भी उन्हें अपने समकक्ष स्वीकार नहीं किया है।उच्च जाति जो ब्राह्मणों ,क्षत्रियों व अन्य सवर्णों को विरासत में मिली है, जिनकी वजह से उनका पालागन किया जाता है,मनुष्य की प्रकृति के अनुसार अभी भी लोग उस श्रेष्ठता को जीवित रखकर उच्च बने रहना चाहते हैं।दलितों को समाज में बेहतर स्थिति प्रदान करने के लिए हमे फुले,शाहू,अम्बेडकर, कांशीराम व दलित पैंथर  का ही इंतज़ार नही करना चाहिए।दलितों को केंद्र में रखकर बनी पार्टी बसपा भी दलितों के हितों पर ज्यादा ध्यान न देकर सत्ता पर ही निशाना साधती नज़र आती है।ऐसे में हम दलितों को भी मानव समझकर उन्हें अपने समकक्ष आने का अवसर प्रदान कर स्वयं से एक शुरुआत कर सकते हैं,तभी हम इन जाति के झगडों से बाहर निकलकर एक विकसित व बेहतर समाज की संकल्पना  कर सकते हैं।

अनुराग सिंह

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