नए परिप्रेक्ष्य में भारत-नेपाल संबंध

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अरविंद जयतिलक

modiभारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पड़ोसी देश नेपाल की यात्रा ने दोनों देशों के रिश्तों में जान फूंक दी है। हजारों साल पुराने दरकते रिश्ते को नयी ऊंचाई देते हुए 17 साल के खालीपन को मिठास से भर दिया है। नेपाल की संसद में मोदी के भाषण की सराहना न केवल भारत-नेपाल में हो रही है बल्कि विश्व समुदाय भी स्वागत कर रहा है। मोदी ने अपने दिए भाषण में नेपाल को विष्वास दिलाया कि वह भारत के सवा करोड़ लोगों की ओर से दोस्ती और सद्भावना का संदेश लेकर आए हैं और उनकी इच्छा है कि भारत और नेपाल विकास की डगर पर कंधा से कंधा मिलाकर चलें। यह कितना सुखद है कि कल तक जो माओवादी नेता भारत को अपना विरोधी मानते थे वह भी संसद में मोदी के नेपाल प्रेम से अभिभूत दिखे। मोदी ने अत्यंत सहज भाव से नेपाल की संसद में भारत के विचारों को रखा और दोनों देशों के रिश्ते को गंगा और हिमालय की तरह अटूट और पवित्र बताया। पहाड़ की पानी और जवानी का उल्लेख कर संदेश दिया कि दोनों देशों का विकास परस्पर निर्भरता से ही संभव है। गौर करें तो मोदी ने अक्टूबर 1956 में नेपाल की यात्रा पर गए भारतीय राष्ट्रपति डा0 राजेंद्र प्रसाद के उस वक्तव्य को ही आगे बढ़ाया है जब उन्होंने कहा था कि नेपाल की शांति व सुरक्षा के लिए कोई भी खतरा भारतीय शांति व सुरक्षा के लिए खतरा है। नेपाल के मित्र हमारे मित्र हैं और नेपाल के शत्रु हमारे शत्रु हैं। यह सच्चाई भी है कि हिमालय की उपत्यका में बसे नेपाल का भारत से ऐतिहासिक व सांस्कृतिक संबंध रहा है। भारत ने सदैव बड़े भाई की तरह नेपाल से व्यवहार किया है और नेपाल सामरिक दृष्टि से भारत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। चीन द्वारा तिब्बत को हस्तगत कर लेने के बाद भारत-चीन संबंधों में नेपाल की सामरिक स्थिति का महत्व बढ़ गया है। यह उचित है कि मोदी ने नेपाल की मदद के लिए कुछ अहम घोषणाएं की है जिनमें नेपाल के विकास के लिए दस हजार करोड़ नेपाली रुपए की सहायता देने के अलावा नेपाली छात्रों के लिए भारतीय संस्थानों में छात्रवृत्ति दिया जाना शामिल है। मोदी ने नेपाल की संसद को यह भी अहसास कराया कि उनके पास भारत को रोशन करने की असीम शक्ति है और वह पन बिजली के रुप में अपनी जलशक्ति का उपयोग करके नेपाल को खुशहाल बना सकते हैं। मोदी ने यह भी कहा कि भारत की इच्छा नेपाल को हिट करने यानी हाइवे, आइवे और ट्रांसवे के क्षेत्र में सहयोग देने की है। गौर करें तो नेपाल के विकास कार्यों में अधिक धन भारत का ही लगा हुआ है। कोलंबों योजना के तहत भारत ने अनेक नेपाली नागरिकों को प्रशिक्षण दिया है। आजादी के बाद से ही भारत नेपाल को हर तरह का प्रशिक्षण, तकनीकी और गैर तकनीकी सहयोग देता रहा है। भारत ने नेपाल की कई परियोजनाओं में बढ़चढ़कर सहयोग दिया है। इनमें देवी घाट, त्रिशुल करनाली और पंचेश्वर जल विद्युत परियोजनाएं महत्वपूर्ण हैं। भारत त्रिभुवन गणपथ, काठमांडु त्रिशुली मार्ग तथा त्रिभुवन हवाई अड्डा के निर्माण में भी भरपूर सहयोग किया है। इसके अलावा भारत नेपाल के भू वैज्ञानिक अनुसंधान तथान खनिज खोजबीन के काम में भी मदद करता है। भारत ने काठमांडु घाटी के एक उप नगर पाटन में एक औद्योगिक बस्ती की भी स्थापना की है। विडंबना यह है कि भारत के भरपूर सहयोग एवं ऐतिहासिक व सांस्कृतिक संबंधों के बावजूद भी नेपाल के मन में कुछ आशंकाएं हैं। मसलन वह अब भी भारत के संदर्भ में जुनियर भागीदार के मनोविज्ञान से ग्रसित है तथा दक्षिण के पड़ोसी के आधिपत्य की आशंका का भूत उसे सताता रहता है। नेपाल भारत और चीन के साथ समदूरी सिद्धांत के आधार पर संबंधों का निर्वहन चाहता है। गौर करें तो यह उसकी परंपरागत नीति है। 1769 में आधुनिक नेपाल की स्थापना के साथ ही उसके निर्माता पृथ्वी नारायण शाह ने नेपाल की विदेश नीति निर्धारित कर दी थी। उन्होंने कहा था कि नेपाल देश दो चट्टानों के बीच खिले हुए फूल के समान है। हमें चीनी सम्राट के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध रखने चाहिए तथा हमारे संबंध दक्षिणी सागरों के सम्राट से भी संबंध मधुर होना चाहिए। नेपाल उसी नीति पर कायम है। हालांकि मोदी ने दोनों देशों के रिश्तों पर जीम बर्फ को पिघलाकर दोनों बीच सहयोग और भरोसे का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। अच्छी बात यह है कि नेपाल ने भी उर्जा के क्षेत्र में भारत से समझौता करने को हामी भरी है। एक समझौते के तहत दोनों ने महाकाली नदी पर 5600 मेगावाट की पंचेश्वर बहुउद्देश्यीय परियोजना के काम शुरू करने पर सहमति की मुहर लगा दी है। गौरतलब है कि यह परियोजना महाकाली नदी पर समन्वित संधि के तहत आती है और इस पर 1996 में हस्ताक्षर हुआ था। नेपाल के लोगों का दिल जीतने और उनके मन में भारत को लेकर ढेरों आशंकाओं को मोदी ने दूर करने के लिए एक तरह से अफसोस जताया कि दोनों देशों के बीच दूरी अत्यंत कम होने के बावजूद भी किसी भारतीय प्रधानमंत्री को यहां पहुंचने में 17 साल लग गए। उनके इस भावुक बयान से नेपाल की संसद भावुक दिखी। गौरतलब है कि इंद्र कुमार गुजराल के बाद द्विपक्षीय यात्रा पर नेपाल जाने वाले मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है कि 17 साल के इस कालखंड में दोनों देशों में किसी ने भी आगे बढ़कर संबंधों में मधुरता लाने की कोशिश नहीं की और उसका नतीजा यह हुआ कि दोनों देशों के बीच अविश्वास की खाई चौड़ी हुई और आर्थिक प्रगति का मार्ग भी अवरुद्ध हुआ। हालात तब ज्यादा बिगड़ा जब 1987 में राजीव गांधी की सरकार ने नेपाल को अनाज, तेल और गैस की आपूर्ति बंद कर दी। सिर्फ इसलिए कि काठमांडों स्थित पशुपतिनाथ मंदिर में राजीव गांधी और उनकी पत्नी सोनिया गांधी को प्रवेश और पूजा-अर्चना की अनुमति नहीं मिली। भारत के प्रतिबंध के बाद नेपाल की जनता सड़क पर उतरी और भारत विरोधी नारे लगाए और इसका फायदा चीन उठाने में सफल रहा। नेपाल के राजनीतिक जीवन में चीन अपनी आर्थिक ताकत के बूते एक तरह से निर्णायक भूमिका में आ गया है। नेपाली शासक और चीन के प्रबल पक्षधर राजा ज्ञानेंद्र को नेपाली जनता द्वारा खाजिर किए जाने के बाद भी आज वहां चीन की पक्षधरता करने वालों की कमी नहीं है। नेपाल में एक ऐसा वर्ग तैयार हो गया है जो अपने यहां चीन की दखलादांजी को अनुचित नहीं मानता। यह सच्चाई है कि भारत की घेराबंदी करने में जुटा चीन अब पाकिस्तान के बाद नेपाल को अपना मोहरा बनाना चाहता है। इसलिए वह नेपाल के विकास के नाम पर अरबों लुटाने को तैयार है। अपने सामरिक हित को ध्यान में रखते हुए उसने नेपाल में रेलवे लाईन बिछाने से लेकर बेहतरीन सड़कों के निर्माण का कार्य भी तेज कर दिया है। इसके अलावा वह शिक्षा और बिजली-पानी के क्षेत्र में भी नेपाल की बढ़ चढ़कर मदद कर रहा है। नेपाल के लोगों को प्रभावित करने के उद्देष्य से वहां पुस्तकालय, विज्ञान प्रयोगशाला के अलावा हजारों की संख्या में स्कूल खोल रहा है। त्रासदी यह है कि नेपाल में चीन की बढ़ती दखलादांजी को वहां के माओवादियों का खुला समर्थन भी मिल रहा है जो भारत के लिए बेहद खतरनाक है। दूसरी ओर नेपाली माओवादी भी भारत-नेपाल रिश्ते में अवरुद्ध पैदा कर रहे हैं। वे 1950 की भारत-नेपाल मैत्री संधि का शुरूआत से ही विरोध कर रहे हैं जबकि यह संधि भारत के सामरिक लिहाज से अति महत्वपूर्ण है। बता दें कि नेपाल के साथ 1950 में की गयी यह संधि इस समय भारत-नेपाल संबंधों में असहमति का एकमात्र मुद्दा है। संधि के मुताबिक नेपाल यदि हथियारों का कोई आयात करेगा तो भारत को सूचित करेगा। यह प्रावधान इसलिए है कि नेपाल को हथियारों के आयात की आवश्यकताओं की भारत से ही पूर्ति की जा सके और उसे अपनी विदेशी मुद्रा इस पर खर्च न करनी पड़े। लेकिन नेपाल द्वारा जिस तरह इस संधि को परिभाषित किया जा रहा है उससे प्रतीत होता है कि वह इस संधि को अपनी संप्रभुता का हनन मानता है। उचित होगा कि दोनों देश इस संधि पर सकारात्मक रुख प्रदर्षित करें। देखना दिलचस्प होगा कि मोदी की नेपाल यात्रा दोनों देशों के संबंधों में कितना प्रगाढ़ता लाती है।

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