जम्मू कश्मीर में सेना शिविर हटाने की नई रणनीति

police force डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री 

              जम्मू कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद अपनी ढलान पर है । श्रीनगर के लाल चौक में किसी कश्मीरी से बात करें तो वह यही कहता है कि अब यहाँ से गन कल्चर जा रहा है और उसके कारण पर्यटक आने शुरु हो गये हैं । मोटे तौर पर राज्य के आतंकवादियों के पक्ष में घाटी के सामान्य मुसलमानों की सहानुभूति समाप्त हो रही है । घाटी का शिया समाज , गुज्जर बक्करवाल , और पहाड़ी लोग तो पहले भी इस मामले में मुसलमानों के साथ नहीं थे । लेकिन आतंकवादियों पर विजय कैसे प्राप्त की जा सकी या फिर उनके हाथ से एनिशिएटव कैसे छीना गया , यह अपने आप में एक महत्वपूर्ण प्रश्न है । घाटी के मुसलमानों का आतंकवादियों और उन द्वारा दिखाए गये सपनों से मोह भंग हुआ , यह इसका एक कारण कहा जा सकता है । लेकिन इसका श्रेय मोटे तौर पर सेना , सीमा सुरक्षा बल और केन्द्रीय आरक्षित पुलिस बल को जाता है , जिन्होंने अपनी जान जोखिम में डाल कर भी आतंकवादियों से लोहा लिया । इसका कुल मिला कर असर यह हुआ कि आतंकवादी सशस्त्र बलों से डरने लगे थे । 
                लेकिन लगता है कि अब आतंकवादियों ने अपनी इस पराजय से घबराकर और घटते जन समर्थन को देख कर अपनी रणनीति बदली है और इस बदली रणनीति में कहीं न कहीं राज्य सरकार का भी प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग मिल रहा है ।यह सहयोग सरकार में छिपे आतंकवादियों के छदम् समर्थकों के कारण भी हो सकता है और या फिर उसकी नपुंसक प्रशासक होने के कारण भी । आतंकवादियों के सामने मुख्य प्रश्न था कि  पाकिस्तान या आज़ादी समर्थक सामान्य मुसलमानों के मन से सशस्त्र बलों का जो भय बैठ गया है , उसे कैसे समाप्त किया जाये ? आतंकवादियों के रणनीतिकार जानते थे कि एक बार सशस्त्र बलों का भय समाप्त हो जाये तो एनिशिएटिव फिर उनके हाथ आ सकता है । पिछले साल सशस्त्र बलों पर धुआँधार पत्थर फेंकने की घटनाएँ इसी व्यापक रणनीति का हिस्सा थीं । योजना साफ़ थी । लडके एक साथ सशस्त्र बलों पर पत्थर फेंकेंगे तो वे गोली चलायेंगे ही । गोली से मरने वाली लाशें हुर्रियत कान्फ्रेंस और आतंकवादी , दोनों के ही अपनी अपनी राजनीति चमकाने के काम आयेंगीं और राज्य से सेना हटाने का अभियान इन्हीं लाशों से चलाया जा सकता है । आन्दोलन चलाने के लिये लगभग जितनी लाशें चाहियें , उतनी तो यह योजना दे ही सकती थी । फिर जिन्दा लड़कों के लाश में बदलने का न तो हुर्रियत कान्फरेंस को कोई ख़तरा था , न ही पाकिस्तान में बैठकर ये सारी योजनाएँ क्रियान्वित करने वाले आकाओं को , क्योंकि पत्थर फेंकने वाले ज़्यादातर लडके भाड़े पर ही लिये गये थे । अनेक तो उत्तर प्रदेश और बिहार तक से थे । यह योजना और उसमें बनाई गई लाशें हुर्रियत कान्फ्रेंस को एक मुद्दा देने में तो कामयाब रहीं , लेकिन सेना के हटाने में कामयाब नहीं हुई । पर रणनीतिकारों को इससे कोई अन्तर नहीं पड़ने वाला था । एक कहावत है । गाजर की पीपनी ,  बज जाये तो बज जाये , नहीं तो खाने के काम आ जायेगी । यही बात आतंकवाद के पाकिस्तानी रणनीतिकारों ने मन में थी । पत्थर फेंकने वाले लड़कों का ग्रुप जितनी लाशें मुहैया करवा देगा , वे आन्दोलन भड़काने के काम आयेंगी और ग्रुप में से जो लडके जिन्दा बचे रहेंगे उन्हें राज्य की ही पुलिस में भर्ती करवा दिया जायेगा , जो बाद में भी किसी न किसी रुप में काम आते रहेंगे । और सचमुच राज्य सरकार ने धीरे धीरे पत्थर फेंकने वाले सभी लड़कों को पुलिस में भर्ती कर लिया और जो मारे गये थे , उनके परिवारों को करोड़ों रुपये देकर सहायता की । 
                 तब इस रणनीति का दूसरा हिस्सा मैदान में उतारा गया । इस योजना में आतंकवादियों को पर्दे के पीछे रहना था । अंग्रेज़ी मीडिया ने इसे एजीटेशनल आतंकवाद का नाम दिया । यानी आन्दोलनात्मक आतंकवाद । किसी एक स्थान पर आतंकवादी या उनके समर्थक सशस्त्र बलों पर आक्रमण करेंगे या फिर उन्हें उत्तेजित करेंगे । यदि इस के कारण सशस्त्र बलों की गोली से किसी की मृत्यु हो जाती है तो हुर्रियत कान्फ्रेंस या इसी प्रकार का कोई संगठन तुरन्त सशस्त्र बलों का कैम्प उस स्थान से हटाने की मांग करेगा । इस मोड़ पर राज्य सरकार तुरन्त दख़लंदाज़ी करेगी और जनभावनाओं को शान्त करने के नाम पर सेना या अन्य सशस्त्र बल का कैम्प वहाँ से हटाने की घोषणा करेगी । इतना ही नहीं राज्य सरकार सशस्त्र बलों के कुछ जवानों पर मुकद्दमा भी दायर करेगी । लगता है राज्य सरकार अथवा राज्य की नौकरशाही के कुछ महत्वपूर्ण चुनिंदा लोगों के सहयोग से आतंकवाद की इस नई रणनीति की पटकथा लिखने के बाद इसे अमलीजामा पहनाने के लिये बारामूला जिला के सोपोर में बोमई स्थान के सैन्य कैम्प का चयन किया गया । 

बारामूला  ज़िले में सोपोर के बोमई नामक स्थान पर सेना का शिविर था । आतंकवादी काफ़ी लम्बे अरसे से इसे हटाने का प्रयास कर रहे थे । २१फरवरी २००९ को बोमई में एक मजहबी उत्सव के दौरान आतंकवादियों ने सेना के शिविर पर हमला किया । इस गोलाबारी में फंस कर दो स्थानीय युवक मारे गये । आतंकवादियों को मानो सेना के शिविर को हटाने के लिये आन्दोलन करने का मौक़ा मिल गया हो । राज्य सरकार भी तुरन्त सक्रिय हो गई । उसने वहाँ से सेना का शिविर हटाने का आदेश जारी कर दिया । केन्द्र सरकार इन सभी मामलों में राज्य सरकार की सहायक बन कर सिद्ध हुई । राज्य सरकार को उन युवकों की हत्या की जाँच करवाने का पूरा अधिकार था , और उसने वह जांच करवाई भी । सेना ने भी घटना की जांच करवाई और उसमें तीन सैनिकों को कुछ मामलों में दोषी भी पाया । उनके खिलाफ नियमानुसार कार्यवाही भी प्रारम्भ की । लेकिन उसे बहाना बना कर सेना के शिविर को हटाना , एक प्रकार से आतंकवादियों की योजना की सहायता करना ही था । सैन्य कैम्प हटाने का दूसरा सफल प्रयोग श्रीनगर के बेमिना स्थान पर किया गया । 

             शिव रात्रि के तीन दिन बाद तेरह मार्च २०१३ को श्रीनगर में बेमिना स्थान पर आतंकवादियों के एक फ़िदायीन दस्ते ने केन्द्रीय रिज़र्व पुलिस बल पर आक्रमण किया । पुलिस बल के पाँच ज़वान मौक़े पर ही मारे गये और पाँच अन्य गंभीर रुप से घायल हुये । फ़िदायीन दस्ते के दोनों आतंकवादियों को भी बाद में मार दिया गया । कश्मीर के हालात पर गहराई से नज़र रखने वालों का कहना है कि इस प्रकार का फ़िदायीन हमला तीन साल बाद हुआ है । 

                                 दरअसल सोनिया कांग्रेस और नैशनल कान्फ्रेंस की मिली जुली राज्य सरकार ने पहले ही आदेश निकाल दिया था कि सुरक्षा बल गश्त लगाते समय अपने पास अपने हथियार न रखें , क्योंकि उनकों हथियारों के साथ देखकर लोग भड़क उठते हैं । इतना ही नहीं , राज्य सरकार ने इस आदेश को सख़्ती से लागू भी करवाया । अब सारा मामला सीधा हो गया था । हमले के दिन हड़ताल के कारण चारों ओर सुनसान था । सड़क पर गश्त लगाते सी आर पी के पन्द्रह जवान निहत्थे थे । इसलिये वे फ़िदायीन के लिये आसानी से "सिटिंग डकस" में परिवर्तित हो गये । पाँच मारे गये और पाँच बुरी तरह ज़ख़्मी हुये । बाक़ी बाद में हुये मुक़ाबले में फ़िदायीन को तो मरना ही था ।  क्योंकि वे तो घर से आये ही मरने के लिये थे । फ़िदायीन का अर्थ ही मरना होता है । आत्मघात ।  लेकिन इस आक्रमण के बाद भूमिगत आतंकवादियों और प्रत्यक्ष रुप से काम कर रहे उनके घोषित अघोषित समर्थकों ने राज्य से सशस्त्र बलों के कैम्प हटावाने का मानों आन्दोलन ही चला दिया हो । आन्दोलनात्मक आतंकवाद को पहली सफलता इस नई रणनीति के तहत प्राप्त हो गई । 

                    इसके बाद एक अन्य स्थान का तुरन्त चयन किया गया । यह था चिनाव घाटी में रामबन ज़िला में संगलदान-धर्मपुर का क्षेत्र । यहाँ भी 18 जुलाई  2013 को कुछ  लोगों को आगे करके सीमा सुरक्षा बल के जवानों पर क़ुरान शरीफ़ का अपमान करने का आरोप लगाया गया और एकत्रित भीड़ पर राज्य पुलिस ने ही गोली चला कर एक युवक की हत्या कर दी । उसके तुरन्त बाद राज्य के मुख्यमंत्री ने ही कहना शुरु कर दिया सीमा सुरक्षा बलों ने निहत्थे लोगों पर गोली चलाई है । आश्चर्य तो इस बात का है तहसीलदार ने ही घोषणा कर दी कि धर्मपुर से सीमा सुरक्षा बल का कैम्प धर्मपुर से हटा लिया जायेगा । परन्तु उससे भी ज़्यादा आश्चर्य तब हुआ जब केन्द्र सरकार ने उस कैम्प को वहाँ से हटा दिया । 
                      अब शोपियाँ का केन्द्रीय आरक्षित पुलिस बल का कैम्प आतंकवादियों की लिस्ट में आ गया था । वहाँ भी केन्द्रीय आरक्षित पुलिस बल का शिविर है । शोपियाँ , कुलगाम और पुलवामा जिलों के सीमांत पर स्थित गैगरेन गाँव में यह शिविर सामरिक लिहाज़ से अत्यन्त महत्वपूर्ण है ।  आतंकवादी लम्बे अरसे से उसे वहाँ से हटवाने के प्रयास में थे । श्रीनगर में ज़ुबान मेहता का कन्सर्ट उनको उचित अवसर मिल गया । एक निशाने से दो शिकार हो सकते थे । हुर्रियत कान्फ्रेंस ने इस कार्यक्रम का विरोध करना शुरु कर ही दिया था । वह किसी भी योजना का पहला हिस्सा होता है । हुर्रियत ने अपना हिस्सा पूरा कर दिया । दूसरा हिस्सा पाकिस्तान द्वारा संचालित आतंकवादियों ने सुरक्षा बलों के शिविर पर हमला करना होता है । योजना का वह हिस्सा उन्होंने भी ठीक समय पर पूरा कर दिया । सात सितम्बर २०१३ को उन्होंने इस शिविर पर धावा बोल दिया । दोनों और से गोलियां चलीं , जिनमें लश्करे तोयबा के अब्दुल्ला हारुन समेत पांच लोग मारे गये । पूरी योजना में आतंकवादियों का हिस्सा पूरा हो चुका था । 
                        उसके तुरन्त बाद राज्य सरकार का काम शुरु होता है । उसे सुरक्षा बलों को हतोत्साहित करने के लिये सुरक्षा बल के सैनिकों के खिलाफ प्राथमिक सूचना रपट दर्ज करने के बाद सुरक्षा बलों का वह शिविर वहाँ से हटाना होता है । राज्य सरकार ने योजना के उस हिस्से को भी पूरा कर दिया । शोपियाँ के गैगरेन गांव से के.आ.पु.बल का शिविर हटा दिया गया । इस प्रकार अल्पकाल में ही जम्मू कश्मीर से सुरक्षा बलों के चार शिविर हटा दिये गये । यह एजीटेशनल आतंकवाद की अल्पकाल में ही भारी सफलता कही जायेगी । इसका सबसे बडा दुष्परिणाम यह हुआ कि सुरक्षा बलों का भय समाप्त होने लगा है । जिस प्रकार पुलिस का भय या प्रभाव समाप्त होने से समाज में गुँडा एवं अपराधी तत्वों का भय व्याप्त हो जाता है । इसी प्रकार सुरक्षा बलों का भय समाप्त हो जाने से राज्य में आतंकवादियों का भय पुनः बढ़ सकता है , जिसे सेना ने अनेक बलिदान देकर समाप्त किया था । 
                     अब आतंकवादियों के निशाने पर सेना के दो और शिविर हैं , जिन्हें वे हटवाने चाहते हैं । सेना के ये शिविर हटवाने में पाकिस्तान की ज़्यादा रुचि है , क्योंकि ये शिविर सैन्य दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं । बडगाम ज़िला में तोसमदां स्थान पर सेना का प्रशिक्षण स्थल है । यहाँ सैनिक चांदमारी का अभ्यास करते हैं । पाकिस्तान की सीमा भी यहाँ से ज़्यादा दूर नहीं है । १९६४ में सेना ने राज्यसरकार से यह ज़मीन लीज़ पर पचास साल के लिये ली थी । कुछ महीने बाद २०१४ में यह लीज़ समाप्त हो रही है । राज्य सरकार किसी भी प्रकार से सेना से यह ज़मीन वापिस ले लेना चाहती है । जबकि सेना के लिये यह शिविर अत्यन्त महत्वपूर्ण है । 
                         सेना का दूसरा शिविर बारामुल्ला के ओल्ड एरिया में है । आतंकवादी इसे भी यहाँ से हटवाने चाहते हैं । यह जानना रुचिकर ही रहेगा कि सरकार इन शिविरों को हटाने के लिये कौन सा तरीक़ा अपनाती है । लेकिन कुल मिला कर जम्मू कश्मीर में हालत यह हो गई है कि सशस्त्र बल अपने शिविरों को बचाने और आतंकवादियों से लड़ने के बाद राज्य सरकार द्वारा दर्ज किये गये मुक़द्दमों की तारीखें भुगतने को ही विवश हो गये हैं । राज्य में आतंकवाद से लम्बी लड़ाई लड़ने के बाद , सुरक्षा बलों ने मनोवैज्ञानिक तौर पर भी और सैन्य लिहाज़ से भी आतंकवादियों को सुरक्षात्मक रवैया अपनाने और बचाव पक्ष वाली स्थिति में पहुँचा दिया था । लेकिन अब राज्य सरकार आतंकवादियों की योजना के अनुसार सैन्य शिविरों को स्थान स्थान से हटवाकर शायद एक बार फिर पहल आतंकवादियों के हाथ में दे देना चाहती है ।

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