नये साल पर श्रमजीवी पत्रकारों के लिये सरकार का तोहफा

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rdप्रगति मंजूषा के नाम से पहली प्रतियोगी मासिक पत्रिका निकालने वाले व प्रतियोगिता दर्पण के कर्णघारों को जमीन देने वाले रतन दीक्षित का नाम आज किसी परिचय का मोहताज नही है। लोग उन्हें प्यार से दादा इसलिये कहते है कि ईमानदार छवि को आज तक संभालकर उन्होने रखा और उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले के ममफोर्डगंज क्षेत्र से दादा पिछले कई दशकों से लगातार सभासद रहते आये है । इसके लिये उन्होने संधर्ष भी किया और इसकी शुरूआत उन्होने अपने ही जिले मेें मेयर बनने वाले रवि भूषण बधावन के द्वारा पैसे से सभासद खरीदकर मेयर बनने की प्रथा का घोर विरोध किया। इसके बाद पत्रकारों की लडाई लडी व कई लोगों को दिल्ली व बडे प्रतिष्ठानों में अपने बल पर पहुंचाया। इलाहाबाद से दिल्ली के जंतर मंतर तक की लडाई लडने वाले दादा इस समय पत्रकारों की संस्था राष्ट्रीय पत्रकार संध में महासचिव पद पर नियुक्त हुए है और अपनी नियुक्ति के कुछ महीने के बीच ही उन्होने पत्रकारों की लडाई को जिस मुकाम पर पहुंचाया । उससे सरकार को यह सोचना पड रहा है कि आखिर पत्रकारों को इतनी दिक्कत थी । तो वह अभी तक चुप क्यों थे। पिछली सरकारों ने उनके लिये कुछ किया क्यों नही । इसका असर भी आरएनआई की साइट पर दिखने लगा है और अब अखबार मालिकों पर लगाम कसने का काम सरकार ने शुरू कर दिया है।
अब इसमें शक नही, कि दादा को उनको ही लोगों ने यहां तक पहुंचाया और जिसमें साजिशें भी रही, दादा ने जिन गरीब लोगों को प्रगति मंजूषा पढने के लिये फ्री में दी और वह आज वरिष्ठ पदों पर बैठे अधिकारी बन गये वह उन्हें नही भूले , दादा आज भी उनके आदर्श है वह उनकी बात नही टालते और क्षेत्रवाद या प्रदेशवाद उनके मामले में नही चलता। सभी उनकी ईमानदारी के कायल है। इसमें भी दोराय नही कि यदि रीता बहुगुणा जोशी चाहती तो दादा आज उप्र की असेम्बली में सदस्य रहते या फिर केन्द्रीय कांगे्रस में किसी दमदार पद पर रहते। मगर क्यों नही चाहा यह एक राजनीतिक पहलू है जिसे हमें भूल जाना चाहिये । बहरहाल दादा इस समय पत्रकारों के लिये संधर्ष कर रहें है और उन पत्रकारों का सहयोग उन्हें नही मिल रहा है जो पत्रकारिता के नाम पर अपनी दुकान चला रहें है। बडे प्रतिष्ठानों का बिल्कुल नही मिला, जिसके नुमाइदे शशि शेखर व प्रताप सोमवंशी है जो उनके अपने का दम भरते है और कभी करीबी हुआ करते थे और साथ बैठा करते थे।इनके अलावा भी कई बडे महानुभाव है जो दादा से नही उनके काम करने की शैली से ईष्या रखते है।
सही मायनों में देखा जाय तो समस्या यह नही है। समस्या यह है कि दादा उन लोगो केा नही पच रहें है जिन्होने अपने यहां खच्चरों की जमात इकट्ठा कर अपने मालिको को संतुष्ट कर रखा है और वह सभी एक व्यवस्था का हिस्सा है जो उनके दल में ही चल सकते है क्योंकि भेडो को समूह की आवश्यकता होेती है और अकेले वह रास्ता भटक जाता है। यह कहावत इस व्यवस्था को चरित्रार्थ करता है। दादा की इच्छा है कि एैसे खच्चरों की पहचान कर योग्य लोगों को जगह दी जाय ताकि समाज मे अच्छा संदेश जाय लेकिन यह होगा केसे इस बात पर मंथन जारी है क्योंकि इसी आंदोलन के कुछ दिनो पहले अध्यक्ष रास बिहारी ने अपनी असमर्थमता जताकर सभी को हैरान कर दिया था। इतने बडे प्रदर्शन के बाद अब सरकार के पाले में ंगेंद है कि वह इस मामले में क्या करें। हलाकि कुछ दिन पहले केन्द्र सरकार ने इस मामले को गंभीरता से लेते हुए देर से दीपावली मिलन पर पत्रकारों के लिये भोज का आयोजन किया था और अपनी बात ईशारों में कही थी । जिसका फायदा भी छोटे अखबार में काम करने वाले पत्रकारों को मिला।
दिल्ली के अखबार मालिको , चैनल मालिको ने इस कार्यक्रम पर उतना उत्साह नही दिखाया जितना होना चाहिये था। जंतर मंतर पर जो खेल खेला गया वह सरकार के ईशारे पर ही था। जिसे पहले से समझ लेना चाहिये था। इस बात को लेकर भी चर्चाओं का बाजार गर्म है अब सर्कुलेशन के वेरिफेकेशन का फार्म क्या गुल खिलायेगा यह तो समय ही जाने या फिर आरएनआई गांधी जी के बंदरों की तरह इसे भी ठंडे बस्ते में डाल देेगा यह समय ही बतायेगा लेकिन एक बात तो तय है कि अब तक सार्टिफिकेट जारी करने वाले चार्टर एकाउंटेट की समझ में भी आ गया होगा कि उनके पैरों में भी बेडी पडने वाली है और वह दिन दूर नही जब सरकार उनके लिये भी रास्ता तैयार करेगी कि वह सही रास्ते पर आ जाय।
जहां तक सरकार की बात है तो सरकार इस मामले पर गंभीर है और नये साल की शुरूआत में हो सकता है एैसी घोषणा हो कि अखबारों के रजिस्टेªशन के लिये कागजात जमा करते समय उसके साथ पीएफ व ईएसआई का भी प्रमाणपत्र व स्टाफ का विवरण भी दाखिल करना पडे। अगर एैसा हुआ तो सरकार की तरफ से पत्रकारों के लिये एक बडा तोहफा व रतन दीक्षित के सीने पर एक और तमगा होगा , जिससे उन लोगों की चूल्हे हिल जायेगी जो अपनी बिरादरी में किसी और को अपने बराबर नही देखना चाहते।
क्या है अखबार कर्मचारियों की दिक्कतें:
1. अखबार कर्मियों को सबसे पहली दिक्कत मालिको द्वारा असमय बिना किसी नोटिस के निकाल दिया जाना
2. पीएफ न दिये जाने व चिकित्सा समेत कई अन्य सुविधा जैसे यात्राव्यय , मकान भत्ता न दिया जाना है।
3. सरकार द्वारा किसी योजना का न होना जिससे कि उन्हें वरीयता के आधार पर कोई लाभ मिल सके या परिवार को राहत पहुंच सके यदि मिलता भी है तो सरकारी अधिकारी उसे मिलने नही देते।

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