नये वर्ष का दिखावापन

new yearहिन्दू नववर्ष शुक्ल पक्ष के प्रतिपदा को मनाया जाता है। 2014 में यह 31 मार्च को है लेकिन हिन्दू नव वर्ष आने और समापन होने तक का आभाष नहीं होता और इसके विपरित अंग्रेजी नव वर्ष के दिन होने वाले विभिन्न प्रकार के आयोजनों से समूचा भारत रंग जाता है। भारत में स्व राष्ट्र, स्व समाज, स्व परिवार से लेकर हर जगह स्व विरोध का अनावरण हो चुका है। इसी विरोधाभाषी रवैये की वजह से हमारी अवन्नति जारी है। आज समाज में दिखावापन व्याप्त हो चुका है। इसी दिखावेपन की वजह से हमें दूसरों की वस्तुएं, दूसरों की भाषायें और दूसरों का परिवार अपने परिवार से बेहतर दिखने लगा है। एक तरफ हम कहते जरूर है मेरा परिवार, मेरा देश, मेरा समाज लेकिन सच्चाई इसके विपरित है हमें अच्छा तो दूसरे का ही लगता है। और इसके लिए जिम्मेदार हमारे देश के ज्ञानी माने जाने वाले लोग हैं। क्योंकि यही ज्ञानी लोगों का यह सब करा धराया है। हमारे देश में जितना विदेशी भाषा को मान प्राप्त है उतना ही विदेशी भाषाओं का विरोध लगभग विश्व के सभी देशों में होता है। चीन में तो रोमन अंक तक का प्रयोग नहीं किया जाता। हमारे एक मित्र अभी चीन होकर आये हैं उन्हांेने बताया कि वहां इलेक्ट्राॅनिक उत्पादों के ढेर लगे होते है और अगर आपको कुछ खरीदना है तो वे चीनी लोग अपने कैलकुलेटर के आॅप्शन में चीनी अंक की जगह रोमन अंक परिवर्तन करके फिर कैलकुलेटर पर लिखकर बताते है, उसके बाद फिर कैलकुलेटर के अंक को चीनी भाषा में परिवर्तित कर लेते हैं लेकिन रोमन का प्रयोग जारी नहीं रखते। चारो ओर से मुस्लिम राष्ट्रों से घिरे हुये एक छोटे से देश इजराइल के पास अपनी भाषा तक नहीं थी लेकिन इसने न सिर्फ अपने स्वाभिमान के लिए एक नये भाषा का निर्माण किया वरन उसे आत्मसात भी किया लेकिन एक हम हैं जो अंग्रेजी नववर्ष को भी इस प्रकार से मनाते है जैसे हमारे लिये किसी गर्व का पर्व हो। यह दिखावा नहीं तो और क्या है। उनकी नकल ही करनी थी तो जो हम अंग्रेजों के नव वर्ष पर कर रहे हैं उसे हम शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को भी कर सकते हैं। एक बहुत प्रचलित कहावत है जो दिखता है वह बिकता है।

बहुत प्राचीन कहावत है एक राजा के दरबार में एक व्यापारी पहुंचा और राजा से बोला की मैं आपके लिये देवताओं के कपड़े लाकर दे सकता हूँ लेकिन आपको बहुत सारे धन खर्च करने होंगे। राजा सहर्ष तैयार हो गया। फिर वह व्यापारी राजा से थोड़े से समयांतरालों पर स्वर्ण मुद्राएंे लेता रहा। कुछ दिनों बाद जब देवताओं के कपड़े लाने की नियत तिथि आ पहुंची तब राजा के गुप्तचरों ने उस व्यापारी के मकान पर सख्त सुरक्षा के प्रबंध करवा दिये ताकि वह व्यापारी धोखा न दे पायें। लेकिन वह व्यापारी भी काफी चालाक था। नियत तिथि पर एक सुन्दर सन्दूक में देवताओं के कपड़े लेकर वह राजा के सामने उपस्थिति हुआ और राजा से बोला की महाराज इस सन्दूक में जो कपड़े है वह देवताओं के कपड़े हैं अतः यह उसी व्यक्ति को दिखाई देगा जो अपने पिता का असली पुत्र होगा। राजा के दरबार के सभी लोग सन्दूक और उस व्यापारी को आश्चर्य भरी निगाहों से देखने लगे। उस व्यापारी ने सन्दूक खोलने के पश्चात् उसमें हाथ डालकर कोट निकाला और राजा से कहां देखिये महाराज यह देवता का कोट है आप अपना कोट उतारें और कृपया इसे पहनने का सौभाग्य प्राप्त करें। फिर दरबार में तालियों की गड़गड़ाट गूंज उठी। राजा भी विस्मय भरी निगाहों से समूचे दरबार को देखने लगा। मामला राजा के समझ से बाहर हो गया। फिर राजा ने सोचा जब सबकों दिख रहा है तो कोट होगा ही। वास्तव में राजा को कुछ भी नहीं दिख रहा था और साथ में दरबार के लोगों को भी लेकिन यह सब असली पिता के पुत्र के शर्तों के कारण थी। राजा सम्मान के खातिर उस व्यापारी के खाली हाथ से बनावटी रूप में कपड़े लेकर पहनने लगा। इस तरह उस राजा ने अपने सभी कपड़े उतारकर व्यापारी के सभी कपड़े पहन लिये। राजा नंगा दरबारियों के सामने खड़ा था और सभी दरबारी ताली बजा रहे थे। उसके बाद व्यापारी ने राजा से कहा की कपड़ें उपलब्ध करवाने वाले ने कहा था कि राजा जब कपड़े पहन ले तो उनका जुलूस जरुर निकलवा देना क्योंकि ऐसी प्रथा है। फिर राजा का जुलूस शहर में निकला। असली पिता पुत्र वाली बात सारे शहर में फैल चुकी थी। अतः सबको राजा के कपड़े दिख रहे थे। एक दूसरे शहर का व्यक्ति भी जुलूस देख रहा था उसने कहा कि कैसे मुर्ख लोग हैं राजा नंगा है सब तालियां पिट रहे हैं तब वहां मौजूद लोगों ने उसे मारते पिटते हुए कहां तुम अपने असली पिता के पुत्र नहीं हो इसीलिये तुम्हे यह कपड़ा नही दिख रहा। कुछ यही हाल हमारे देश का हो गया हैं। अंग्रेजी बहुसंख्यों के समझ से बाहर है लेकिन अंग्रेजों के सम्पन्नता से प्रभावित हमारा समाज आज भी अंग्रेजों के अंग्रेजी को ढो रहा है। हमारे समाज में सब ईमानदारी का राग अलाप रहे है लेकिन सभी को पता है बेईमानी के चादर पर ईमानदारी की चादर चढ़ायी गयी है। पुलिस वाले हफ्ता वसूल रहे हैं, सरकारी अधिकारी कमीशन का खेल खेल रहे हैं। हमारे नेता भी कमीशन के लिये ही तो करोड़ों रुपये सिर्फ चुनावों के सीट खरीदने में खर्चते है क्योंकि इन्हें पता है कि विभिन्न प्रकार के निधियों से लेकर अनेकों प्रकार के कमीशन से उससे कई गुणा प्राप्त हो जायेगा।

भारत सबसे ज्यादा युवाओं वाला राष्ट्र है। लेकिन हम अपने जनशक्ति का प्रयोग नहीं कर पा रहें। हम हमेशा से गमले में खेती करते रहे हैं और गमले की खेती से देश का पेट नहीं भरने वाला। दो प्रतिशत लोगों के लिए समूचे देश को अंग्रेजी के लिए विवश करना गमले में खेती नहीं तो और क्या है? देश का पेट भरने के लिए हमें खेतों में खेती करनी होगी। हमें उन नीतियों को अंगीकार करना होगा जो स्वदेशी हो। हमारे देश के युवा बेरोजगारी से बेहाल हैं और हमारे देश में लगभग उत्पाद विदेशी कंपनीयों के पटे पड़े हैं। दवा, उपकरण से लेकर रोजमर्रा के उपभोग के लगभग समान हम विदेशी कंपनीयों के खरीद रहे हैं। विदेशी कंपनीयां हमारे देश में कंपनी खोलकर सभी प्रकार के उत्पाद बना रही हैं और उसपर गर्व से लिख रही है मेड इन इंडिया। विकसित देशों के लिये कहा जाता हैं कि ये अपने लगभग कच्चें मालों का दोहन कर लेते हैं। लेकिन हमारे देश के कच्चें उत्पाद ज्यादातर विदेशों को निर्यात कर दिया जाता है अथवा विदेशी कंपनीया हमारे देश में अपना संयंत्र लगाकर उनका दोहन कर उससे बने उत्पाद हमारे देश में बेचकर मुनाफा अपने देश लेकर चली जाती है। अगर एक किलो से लोहे से हम सूई बनाकर बेचे तो उससे कई गुणा कीमत वसूल हो जाती है यह है उत्पादन का फायदा। शोध और निर्माण के क्षेत्र में हमारा देश इस समय फिसड्डी हैं। जीरों तकनीकी से लेकर तकनीकी आधारित लगभग समान विदेशी कंपनीयां यहां बना रही हैं और यहां की मुद्रा अपने देशों में ले जा रही हैं। हिटलर ने अपने जीवनी में लिखा है कि अगर झूठ को बारबार प्रचारित किया जाये तो वह भी सच हो जाता है। कुछ यहीं स्थिति हमारे देश में हो चुकी है। ब्रिटिश इंडिया से प्रचलित हुये अनेकों झूठ इस समय सच सरीखे हो गये है। हमारे देश की नियति बन चुकी है स्व विरोध का। हम अपनों को कमतर साबित कर हमेशा विदेशी सहायता पर आश्रित रहे हैं चाहे कश्मीर पर कब्जा को लेकर संयुक्त राष्ट्र जाना हो अथवा मेट्रो बनाने के लिए हम विदेशी कंपनीयों का मुंह ताकना अथवा विदेशी निवेश के लिए विदेशों की ध्यान लगाना।

एक तरफ हम मंगल पर उपग्रह भेज रहे हैं तो दूसरी तरफ हमारे देश में लगभग सूचना तकनीकी का उपकरण चीन से आ रहा है। हम अपने सैनिकों के जूते विदेशों से खरीद रहे हैं। यह सब इसलिए हुआ है क्योंकि हमने अपने घरों में विदेशियों को पाला, उनकी भाषा को जगह दी, उनके तकनीक को जगह दी, उनके साहित्य, उनकी शिक्षा पद्धति, उनके विधि व्यवस्था, उनके धर्म, उनके कर्म, उनके आचरण आदि को जगह दी। आपलोगों को याद होगा आजादी पश्चात् महात्मा गांधी ने विदेशी कपड़ों की होली जलवायी थी उसके बाद अंग्रेजों के हालत पस्त हो गये थे। अगर हमने जल्द ही स्वदेशी का राग नहीं अलापा तो वह दिन दूर नहीं हमें कहना होगा कि अब पछतायें होत क्या जब चिडि़या चुग गयी खेत। शुरुआत हम 1 जनवरी की जगह 31 मार्च (चैत्र 10-शुक्लपक्ष की प्रतिपदा) को मनाकर कर सकते हैं।

2 COMMENTS

  1. सर्वांग सुंदर आलेख के लिए बधाई।
    आप शायद जिसे रोमन अंक कह रहे हैं, वे हिंदू अंक है।
    रोमन अंक I II III IV V VI ऐसे होते हैं।

  2. मुझे अनहद ख़ुशी हो रही है कि इतनी कम उम्र में आप इतने सुदृढ़ विचार और भारत वर्षा कि इस दयनीय अवस्था के बारे में काफी गहरा ज्ञान रखते हैं– हमारी चिंता कुछ तो कम हुई आप का लेख पढ़के . पर , जो भी अगले चुनाव में आयेंगे , विरोधि पक्ष के जर्रूर हो , पर हिमालय पर्वत तय करने का सा काम होगा , उनके सामने — कोंग्रेसियों के पास देश को लूटने का ७० साल का अनुभव है — उन्हें निकालना आसान नहीं पर , नामुमकिन भी नहीं —
    भारत वर्ष पर परमात्मा का अनुग्रह हो . स्वदेश , स्वाभिमान वाला फिर से हो जाए– यही शुभ मनोकामना

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