sushmaगत 3 अप्रैल को हिन्दी भाषा के बिगड़ते स्वरूप एवं बोल-चाल से लिखने तक में तेजी से आयात हो रहे अंग्रेजी शब्दों की चिंता को लेकर विदेश मंत्रालय और माखनलाल

चतुर्वेदी पत्रकारिता विवि द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में लंबा विमर्श हुआ।

भाषा को लेकर माखनलाल विवि द्वारा एक शोध-पत्र जारी किया गया। इसमें सात-आठ हिन्दी भाषा के समाचार-पत्रों के अध्ययन के आधार पर उनमें इस्तेमाल होने वाले

अंग्रेजी के शब्दों को पांच-छह श्रेणियों में रखा गया था। पहली श्रेणी में वे शब्द जिनका हिन्दी में कोई विकल्प नही है। दूसरे में वे शब्द जिनका हिन्दी में मुश्किल विकल्प

है। तीसरी वह श्रेणी थी जिसमें अंग्रेजी के शब्द चलाऊ थे।

चौथी और पांचवीं श्रेणी में अंग्रेजी के उन शब्दों को रखा गया था जिनके हिन्दी में आसान और सहज विकल्प होने के बावजूद समाचार-पत्र उनका अंग्रेजी शब्द प्रयोग कर रहे हैं। शोध में यह कहा गया कि ऐसे लगभग 15,737 अंग्रेजी के शब्द इन सात-आठ हिन्दी के समाचार-पत्रों से खोजकर निकाले गए हैं। हालांकि जिन सात-आठ समाचार-पत्रों के आधार पर यह खोज की गई है उनमें दिल्ली से प्रकाशित होने वाले एक बड़े समाचार-पत्र को नहीं रखा गया है, वरना यह संख्या लगभग तीस हजार के पार होती। बिना नाम बताए भी आप उस समाचार-पत्र को जान गए होंगे? इस कार्यक्रम में खुद विदेश-मंत्री सुषमा स्वराज शामिल हुईं और गंभीरता से हर अध्ययन को बारीकी से देखा। इस आयोजन के बाद तमाम संपादकों के साथ विदेश-मंत्री ने ‘गोल-मेज’ बैठक भी की। इसमें कोई शक नहीं कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की यह चिंता सराहनीय है।

खैर, भाषा पर अपना कुछ ज्यादा अध्ययन नहीं रहा है। पिछले चार साल में मात्र बीस-पच्चीस लेख लिखे होंगे और चार-छह साक्षात्कार किये होंगे, लेकिन मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि बेहद घातक होते इस मर्ज का इलाज और रोग दोनों ही संपादकों के पास नहीं है, क्योंकि यह संपादकों अथवा समाचार-पत्रों एवं चैनलों की समस्या भी नहीं है। हालांकि यह एक कल्पना मात्र है कि समाचार-पत्र व टीवी ही हिन्दी भाषा को खराब कर रहे हैं। मेरा स्पष्ट मानना है कि अगर वाकई वे ऐसा कर भी रहे हैं तो वे आगे करते भी रहेंगे। न यकीन हो तो कल की उस गोल-मेज बैठक में शामिल संपादकों वाले संस्थानों की आज और आज से दस दिन बाद तक नियमित निगरानी करके एक शोध-पत्र बनाइए।

इस बैठक का अगर उनके संस्थान पर पांच फीसद भी सुधारात्मक प्रभाव दिख जाए तो बताइएगा। सीधी-सी बात है भाषा टीवी या समाचार-पत्रों की समस्या नहीं है तो भला वे समाधान की चिंता क्यों करेंगे ? आप बुलाए वे आ गए, सुन लिए, धन्यवाद जी। यह समस्या, आयात-निर्यात की है।

आयात-निर्यात का धंधा आप किनके साथ कर रहे हैं, इस पर सोचना होगा। जिनको हिन्दी के इतिहास का ज्ञान है वे इतना जरूर जानते होंगे कि हिन्दी के पास ‘अपना’ मूल शब्द कोई नहीं है। सभी शब्द लगभग 49 की 49 भारतीय भाषाओं (बोलियों भी कहा जाता है) से आए हैं, जो कालांतर में परिष्कृत एवं परिमार्जित किए गए हैं।

हिन्दी को सर्वाधिक शब्द दिल्ली से सटे अथवा सामाजिक तौर पर सर्वाधिक नजदीकी से जुड़े प्रदेशों, जिन्हें ‘हिन्दी-पट् टी’ कहा जाता है, से ही मिले हैं। मसलन उत्तर-प्रदेश, राजस्थान, बिहार, हरियाणा, पंजाब आदि से। इन राज्यों में जो तमाम भाषाएँ बोली जाती हैं, उन्हीं से आयात करके हिन्दी का निर्माण पिछले सौ-डेढ़ सौ वर्षों में हुआ है, लेकिन दुविधा देखिए कि जिन-जिन भाषाओं से हिन्दी ने सर्वाधिक शब्द लिये, उन भाषाओं को बोली बताते हुए संविधान में जगह नहीं दी गई। राजस्थानी, भोजपुरी, हरियाणवी,  ब्रज, अवधी अथवा और भी तमाम हैं। पंजाबी एक अपवाद है लेकिन गौर कीजिए कि पंजाबी से जो भी शब्द लिए गए हैं उन शब्दों का प्रयोग आज भी होता है। उनकी जगह पर बेवजह अंग्रेजी का प्रयोग नहीं होता है।

अंग्रेजी सिर्फ उन शब्दों को हिन्दी में भर रही है जिन शब्दों वाली भाषाओं को भारत के संविधान में जगह नहीं दी गई है। चूंकि संविधान में जगह न मिलने की वजह से उनका संवैधानिक अस्तित्व तो शून्य है ही, और सामाजिक आयात-निर्यात में आत्मबल का अभाव भी है।

हिन्दी में आज जो अंग्रेजियत बढ़ रही है, इसकी वजह सिर्फ यही है कि हमने हिन्दी के शब्द-स्रोतों को ही बंद कर दिया है। पहले तो यह स्वीकारना होगा कि हिन्दी के पास अपना कोई मूल शब्द नहीं है। उसे हमेशा शब्द लेना पड़ा है। आयातित शब्द ही आज उसके मूल शब्द हैं।

अब अगर आप यह हिन्दी को उन भारतीय भाषाओं से ही दूर करेंगे तो उसके पास अंग्रेजी से शब्द लेने के अलावा शब्दों की पूर्ति के लिए और विकल्प क्या बचेगा? बिगड़ती भाषाओं की समस्या का समाधान संपादकों के पास नहीं है। अगर कोई यह समझ रहा है कि हमारी भाषा को यह समाचार-चैनल अथवा समाचार-पत्र खराब कर रहे हैं, तो उसको अपने शोध को दुबारा देखने की जरूरत है।

इस समस्या के मूल में जाइए तो मर्ज कुछ और है। न यकीन हो तो किसी भोजपुरिया या राजस्थानी भाषा के व्यक्ति से उसकी अपनी भाषा में बात करके देखिए कि वो कितने अंग्रेजी के शब्द प्रयोग कर रहा है ? फिर उसी से हिन्दी में बात करके देखिए वो कितने अंग्रेजी के शब्द प्रयोग कर रहा है ? अंतर यही निकलकर आएगा कि अपनी मूल भाषा में वो कम से कम या न के बराबर गैर-जरूरी अंग्रेजी प्रयोग करेगा जबकि हिन्दी  में बात करते समय ज्यादा संख्या में गैर-जरूरी अंग्रेजी का प्रयोग करेगा।

विजय कुमार मल्होत्रा
पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय,भारत सरकार

वैबदुनिया से साभार

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3 Comments

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  1. ऊपरी परत पर मेरी खोज में प्रवक्ता.कॉम पर प्रस्तुत लेख, “विदेश-मंत्री सुषमा स्वराज की उपस्थिति में हिन्दी भाषा के समाचार-पत्रों के अध्ययन के आधार पर हिंदी में अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग पर चर्चा|” (लेखक : विजय कुमार मल्होत्रा) का गोरख धंधा देखते मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सोचता हूँ कि हिंदी भाषा को कौन और कोई क्यों नष्ट कर रहा है? गोरखपुर-टाइम्ज़ और ichowk.in पर छपे इसी लेख को “हिंदी का एक सच यह है कि उसका अपना कोई मूल नहीं है” शीर्षक के अंतर्गत शिवानन्द द्विवेदी सहर द्वारा लिखा बताया जाता है|

  2. माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय की रिपोर्ट—एक माह तक देश के ८ प्रमुख हिंदी समाचारपत्रों के संस्करणों में छपे अंग्रेजी भाषा के १५ हजार ७३७ शब्दों को चिह्नित कर एक मूल्यांकन रिपोर्ट पेश| हिंदी में भाषा सुधार को लेकर संगोष्ठी का आयोजन| हिंदी में अंग्रेजी शब्दों का चलन चिंताजनक: सुषमा स्वराज| विदेश मंत्री की चिंता—हिंदी भाषा को देश के हिंदी मीडिया द्वारा ही उपेक्षित किया जाना निराशाजनक; हिंदी समाचार पत्रों में अंग्रेजी शब्दों का अपमिश्रण चिंताजनक| हिंदी के साथ अंग्रेजी शब्दों की घुसपैठ समूचे हिंदी प्रेमियों के लिए चिंता का विषय बने हुई है|

    पाठकों से मेरा अनुरोध है कि प्रस्तुत महत्वपूर्ण विषय पर परिचर्चा करते अपने विचार लिखें|

  3. आज प्रातः श्री विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार का लेख “विदेश-मंत्री सुषमा स्वराज की उपस्थिति में हिन्दी भाषा के समाचार-पत्रों के अध्ययन के आधार पर हिंदी में अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग पर चर्चा।“ पढ़ा और इसमें विषय-वस्तु की साहित्यिक गुणवत्ता के तीव्र अभाव से हतोत्साहित हो सोचता हूँ कि अवश्य ही उनका यह लेख प्रवक्ता.कॉम पर श्री राकेश कुमार आर्य जी द्वारा प्रस्तुत “देश का वास्तविक गद्दार कौन?” श्रृंखला में चिरकाल से देश की बागडोर संभाले उल्लिखित गद्दारों द्वारा देश के प्रति षड्यंत्र के दुष्प्रभाव का एक प्रतीकात्मक उदाहरण है|

    मेरा प्रवक्ता.कॉम से अनुरोध है कि अपने पंजीकृत लेखकों, विशेषकर भारत सरकार के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक रह चुके प्रोफेसर महावीर सरन जैन—भले ही उनके पूर्व शासकीय सेवा अथवा शैक्षणिक व्यवस्था में रहते हिंदी भाषा के विकास, प्रचार एवं विस्तार में अपेक्षित उत्थान नहीं हो पाया है मैं उनके साहित्यिक हिंदी ज्ञान से प्रभावित रहा हूँ—को “हिन्दी भाषा के समाचार-पत्रों के अध्ययन के आधार पर हिंदी में अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग” जैसे महत्वपूर्ण विषय पर साहित्यिक लेख लिखने के लिए आमंत्रित करें| धन्यवाद|