– हृदयनारायण दीक्षित
पत्रकारिता भारत में ध्येय सेवा है, पश्चिम के देशों में यह व्यापार है। बाकायदा एक पेशा है। इतिहास भी पश्चिम के देशों में राजाओं के युध्दों और शासन का विवरण है लेकिन भारत का इतिहास अनुकरणीय नायकों का इतिवृत है। भारत की लोकमत निर्माण शैली में सत्य के साथ शिवत्व-लोकमंगल के बंधन है। भारत की पत्रकारिता राष्ट्र के लोकमंगल का अधिष्ठान रही है। पश्चिम की पत्रकारिता का लक्ष्य मुनाफा है इसलिए उसकी विश्वसनीयता और मानवीय उपयोगिता पर लगातार सवाल उठे हैं। गांधी जी ने भी पश्चिम की पत्रकारिता पर तीखे सवाल उठाये थे। पत्रकारिता लोकशिक्षण का ध्येयसेवी कर्म है। अखबार आम जनता की पाठ्य पुस्तक होते हैं। वे प्रतिदिन की इतिहास डायरी है लेकिन इंग्लैण्ड के अखबार ऐसे नहीं हैं। आम जनता उन्हें पढ़ती है, मन बनाती है, वोट देती है। गांधी जी ने ‘हिन्द स्वराज’ (पृष्ठ 36) में लिखा, जो अंग्रेज ‘वोटर’ हैं (चुनाव करते हैं), उनकी धर्म-पुस्तक (बाइबल) तो है अखबार। वे अखबारों से अपने विचार बनाते हैं।
इंग्लैण्ड ही क्यों भारत के मतदाता भी अखबारों से प्रभावित होते हैं। अखबार के प्रभाव में अपने विचार बनाते हैं। लोकसभा के आम चुनाव (2009) में कई अखबारों पर उम्मीदवारों या दलों के अनुसार समाचार छापने के आरोप लगे थे। कह सकते हैं कि भारतीय पत्रकारिता और अखबारी व्यवसायतंत्र पर अंग्रेजी पत्रकारिता का प्रभाव पड़ा है। गांधी जी के अनुसार इंग्लैण्ड के अखबार भरोसेमन्द नहीं थे। लोकसभा चुनाव के वक्त भारतीय अखबार भी अविश्वसनीय थे। गांधी जी ने इंग्लैण्ड के अखबारों के बारे में लिखा था, अखबार अप्रमाणिक होते हैं, एक ही बात को दो शक्लें देते हैं। एक दल वाले उसी बात को बड़ी बनाकर दिखलाते हैं, तो दूसरे दल वाले उसी को छोटी कर डालते हैं। एक अखबार वाला किसी अंग्रेज नेता को प्रामाणिक मानेगा, तो दूसरा अखबार वाला उसको अप्रामाणिक मानेगा। जिस देश में ऐसे अखबार हैं उस देश के लोगों की कैसी दुर्दशा होगी? (वही पृष्ठ 36)। अखबारों के बारे में गांधी जी की टिप्पणी बहुत महत्वपूर्ण है। बार-बार गौर किए जाने लायक है। लिखा है जिस देश में ऐसे अखबार हैं, उस देश के आदमियों की कैसी दुर्दशा होगी? अखबार सामान्य साहित्य नहीं होते। वे आम जनता का मन रचते हैं, बुध्दि तराशते हैं। विचारवान बनाते हैं। बुध्दि को तर्कशील बनाते हैं। सभ्य और सांस्कृतिक भी बनाते हैं। अखबारों को आदर्शनिष्ठ होना चाहिए। पत्रकारिता सामान्यवृत्ति नहीं है। विश्वमानवता से प्रगाढ़ प्रीति ही पत्रकार को ब्रह्मा, विष्णु, महेश बनाती है। पत्रकार सर्जक ब्रह्मा है, वह शुभपालक विष्णु है और अशुभ संहारक महेश भी है। पत्रकार/अखबार का प्रभाव क्षेत्र बड़ा है। उसकी छोटी सी गलती भी समाज को भारी क्षति पहुंचाती है। गांधी जी ने अखबार की ताकत को बहुत बड़ा बताया है। अखबारों के कारण इंग्लैण्ड में दुर्दशा है। इंग्लैण्ड की जनता अखबारों को बाइबिल की तरह पढ़ती है लेकिन वे सही नहीं लिखते।
भारत की जनता भी अखबारों को आदरणीय मानती है। उनमें छपी सूचनाओं/टिप्पणियों से मन बनाती है। इंग्लैण्ड के अखबार गलती करते हैं। क्यों करते हैं? गांधी जी ने लिखा, इसमें अंग्रेजों का कोई खास कसूर नहीं है, बल्कि यूरोप की आजकल की सभ्यता का कसूर है। इंग्लैण्ड के अखबार मालिक और पत्रकार एक खास सभ्यता के प्रभाव में हैं। छवि निर्माण और छवि ध्वंस इंग्लैण्ड की सभ्यता है। पूंजीवाद और साम्राज्यवाद इंग्लैण्ड की सभ्यता है। मुनाफावाद पश्चिम की सभ्यता है। पत्रकार मनुष्य हैं। वे अपनी सभ्यता से प्रभावित हैं। भारत में भी पश्चिम की सभ्यता का प्रभाव है। संवैधानिक और सामाजिक संस्थाए लोकमंगल से दूर हैं। अखबार मालिक और पत्रकार असामाजिक प्राणी नहीं है। देशकाल का असर उन पर भी पड़ता है। बेशक वे मार्गदर्शक हैं, लेकिन पूंजीवाद, राजनैतिक दलतंत्र और स्वार्थी पश्चिमी सभ्यता की अपनी जरूरतें हैं। आधुनिक सभ्यता नग्न तस्वीरों वाले अखबारों की मांग करती है। आधुनिक सभ्य लोग सूखा, गरीबी, भुखमरी और वनवासी, आदिवासी समस्याओं पर मेहनत से तैयार टिप्पणियों की तुलना में विपाशा-जान अब्राहम या कैटरीना कैफ-सलमान के किस्सों को ज्यादा तवज्जों देते हैं। वे अखबार में क्रिकेट पर ज्यादा सामग्री चाहते हैं, खेल खबरों की मांग ज्यादा है। पुलिस हिरासत में हो रही मौतों पर छपी खबरें कम पढ़ी जा रही हैं। अखबारों में प्रतिस्पर्धा है, पत्रकारों पर शामत है। सुधी पत्रकार तनावग्रस्त हैं, बावजूद इसके पत्रकार अग्रिम मोर्चे पर बलिदानी योध्दा की भूमिका में हैं। उन्हें प्राचीन भारतीय जीवन मूल्य आकर्षित करते हैं, वे ‘बाजारू मूल्यों’ से लड़ रहे हैं।
गांधी जी अखबार और पत्रकारिता की शक्ति से परिचित थे। वे अनेक अखबारों में लिखते थे। ‘हिन्द स्वराज’ भी ‘इण्डियन ओपीनियन’ नाम के अखबार में लेखमाला के रूप में छपी थी। ‘हिन्द स्वराज’ (1909) लिखने के पहले सन् 1903 में उन्होंने ही दक्षिण अफ्रीका में इण्डियन ओपीनियन शुरू करवाया था। अखबार चार भाषाओं हिन्दी, अंग्रेजी, तमिल और गुजराती में था। गांधी जी ने प्रवेशांक में लिखा, देश (भारत) में जो रीति-परम्परां आवश्यक नैतिक मार्गदर्शन के द्वारा त्रुटियों का परिमार्जन करती रहती हैं, दक्षिण अफ्रीका में बसे हुए हमारे भारतीय उनके नेतृत्व से वंचित हैं। जो यहां कम उम्र में आ गए या जो यहीं पैदा हुए उन्हें अपनी मातृभूमि के इतिहास या महानता को जानने का अवसर नहीं मिल पाया। यह हमारा कर्तव्य होगा कि हम यथाशक्ति इंग्लैंड, भारत और इस उपमहाद्वीप के समर्थ लेखकों के लेख देकर उन्हें पूरा करें। (सम्पूर्ण गांधी वाड्.मय 3/406)
गांधी जी के अखबार और पत्रकारिता के उद्देश्य साफ हैं। वे अफ्रीका में रहने वाले भारतवासियों को भारत के गौरव और इतिहास बोध से लैस करना चाहते हैं। स्वराष्ट्र का गौरव और इतिहासबोध आदर्श नागरिक होने की प्राथमिक गारंटी है। अखबार की अपनी उपयोगिता है। गांधी जी सत्याग्रही थे, आन्दोलनकारी थे लेकिन इससे भी ज्यादा सर्वोपरि रूप में वे भारतीय थे। भारतीय सभ्यता के आग्रही थे। उन्होंने लिखा मेरी मान्यता है कि जिस लड़ाई का आधार आंतरिक बल हो वह लड़ाई अखबार के बिना नहीं चलाई जा सकती है। किन्तु साथ ही मेरा अनुभव है कि इण्डियन ओपीनियन से हमें कौम को आसानी से शिक्षा दे सकने और संसार में जहां जहां हिन्दुस्तानी रहते थे वहां वहां हमारी हलचलों की खबरें भेजते रहने में आसानी हुई। (वही 29/109-110) कोई 103 बर्ष पहले गांधी जी ने बिना विज्ञापन ही सफलतापूर्वक लोकप्रिय अखबार चलाया था। गांधी जी के अनुसार ‘इण्डियन ओपीनियन’ की प्रसार संख्या 3000 से ज्यादा थी। (वही, 35.110-111)
गांधी जी सजग पत्रकार थे। उन्होंने ‘यंग इण्डिया’ और हरिजन’ जैसे अखबारों में नियमित लिखा। नवजीवन, ‘क्रानिकल’ आदि में वे लिखते ही थे। उन्होंने ‘यंग इण्डिया’ में कार्यरत एक पत्रकार लालचन्द को 2 मई 1920 के दिन नसीहत दी कि तुममें जो उत्तम हो वह देश को दो और नये हफ्ते में अपने काम का स्तर पिछले हफ्ते से ऊपर उठाओ। ऐसा करने के लिए तुम्हें स्वदेशी का अध्ययन करना होगा। दत्त राधाकमल मुखर्जी, बैरो और हिन्दुस्तान के उद्योगों पर लिखने वाले अन्य सभी लेखकों की चीजें पढ़ डालो। (वही, 17/413) यहां अच्छे पत्रकार के लिए ‘स्वदेशी विचार के अध्ययन की अपरिहार्यता है। पत्रकार को अपनी सर्वोच्च प्रतिभा को देश को अर्पित करने का आह्वान है। लेकिन प्रतिभा जन्मजाम नहीं होती। उसे नियमित अध्ययन और श्रम (तप) से ही निखारा जा सकता है। गांधी जी ने उन्हें समझाया, तुम्हे सरकारी रिपोर्टो (ब्ल्यू बुक्स) और आंकड़ों के सार पढ़ते रहना चाहिए और हर हफ्ते आंकड़ों और तथ्यों से पाठकों को सराबोर करते रहना चाहिए। मुझे यह मत कहना कि तुम्हारे पास पुस्तकालय नहीं है। अहमदाबाद जाकर सारे पुस्तकालय छान डालों और जो जरूरी चीजें मिल सकें, उन्हें ढूंढ निकालो। इसी प्रकार हिंदी और प्रादेशिक भाषाओं के प्रश्न को समझने के लिए इंग्लैंड में नॉर्मन युग में लोगों को फ्रेंच से जो मोह हो गया था, उसका इतिहास, कुछ अंग्रेजी-प्रेमी लोगों ने किस प्रकार अंग्रेजी राष्ट्र को बचाया उसकी कहानी, रूस में सिर्फ एक प्रोफेसर की मेहनत और लगन के कारण किस तरह रूस की शिक्षा पध्दति में क्रांति हो गई उसका विवरण और किस तरह लगभग उसी समय से रूस का राष्ट्रीय जागरण प्रारंभ हुआ, उसका वृत्तांत पढ़ना चाहिए। (वही) पत्रकार को लगातार पढ़ना चाहिए। भाषावार प्रान्तीय पुनर्गठन का अध्ययन भी करना चाहिए। गांधी जी ने उनसे कहा, भाषावार क्षेत्रीय विभाजन का प्रश्न लो। मेरे कागजात में इस संबंध में कुछ सामग्री मिल जायेगी। तुम स्वयं भी सामग्री एकत्र कर सकते हो। इन सबसे जब तुम्हें वित्त व्यवस्था संबंधी ज्ञान मिल जायेगा तब तुम्हे हर हफ्ते परोसने के लिए काफी सामग्री मिल जायेगी। (वही, 17/413-14) गांधी जी के सभी परामर्श हम जैसे सभी पत्रकारों के लिए उपयोगी हैं।