समाचार पत्रों पर हावी होती राजनीतिक पत्रकारिता

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भारत सेन

भारतीय विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता और जनसंचार के पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेने वाले ज्यादातर छात्रों की बुनियादी शिक्षा कला संकाय की होने के कारण राजनीतिक पत्रकार तैयार हो रहे हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में चिकित्सा, इंजिनियरिंग, वाणिज्य, कृषि, विज्ञान और विधि के छात्रों को जोडऩे की दिशा में सकारात्मक कदम उठाया जाना अभी बाकी हैं। पत्रकारिता में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने वाले छात्रों को चिकित्सा, इंजिनियरिंग, वाणिज्य, कृषि, विज्ञान, ग्रामीण विकास, लोक प्रशासन और विधि में विशेषज्ञता की उपाधि प्रदान करने एवं इन्ही शाखाओं में पीएचडी की उपाधि प्राप्त करने की व्यवस्था भारतीय विश्वविद्यालयों में नहीं हैं। इसका असर भारतीय समाचार पत्रों में स्पष्ट रूप से दिखता हैं। राष्ट्रीय, प्रादेशिक, जिला, तहसील, विकास खण्ड और ग्रामीण स्तर के राजनीतिक समाचारों से समाचर पत्र भरे पड़े रहते हैं। समाचर पत्र के अंतिम पृष्ठ तक राजनीतिक समाचारों का प्रतिशत ज्यादा होता हैं और शेष अन्य समाचारों का बहुत कम। राजनीति प्रथम और राजनेता प्रथम पृष्ठ पर होते हैं। भ्रष्टाचार के आरोप पर जेल भेजे जाने वाले राजनेता भी समाचार पत्र के पृथम पृष्ठ पर होते हैं। कारागार में उनकी सुख सुविधाए समाचार पत्र के समाचार बनते रहते हैं। भारतीय जनमानस पर इसका प्रभाव पड़ा हैं। आम आदमी अपने नेता और अभिनेता दोनो का ही अनुकरण करते हैं। आम आदमी को लगता हैं कि भ्रष्टाचार, अपराध, जातीवाद, क्षेत्रीयता, सांप्रदायिकता यही जीवन का प्रमुख आधार हैं। इस भ्रष्ट जीवन शैली को आम आदमी अपनाता चला जा रहा हैं। राजनीति में नेता करोडपति बन रहे हैं तो सरपंच और सचिव भी पीछे नही हैं। भारतीय विश्वविद्यालयों ने राजनीतिक पत्रकार बड़ी संख्या में दिए हैं जिन्होने राजनीति और राजनेता को महत्वपूर्ण बना दिया हैं। समाचर पत्रों मे राजनीतिक पत्रकारों ने यह साबित कर दिया हैं कि राजनीति से बढ़कर कुछ भी नही हैं। राजनीतिक पत्रकारिता ने कानून और न्याय, प्रशासन, विकास, समाज और आर्थिक न्याय सभी कुछ को बौना साबित कर दिया हैं।

भारतीय जनमानस को प्रभावित करने वाले समाचार पत्रों ने राजनीतिक पत्रकारिता के जरिये बड़ी ताकत प्राप्त कर ली हैं। नवसमाचार पत्रों के शुभारंभ पर सत्तासीन राजनेताओं की भरमार देखी जा सकती हैं। समाचार पत्र राजनीतिक दलों को साधते भी हैं। राजनेताओं की छवी भी बनाते हैं। सरकार गिरा सकने का भय दिखाकर भरपूर दोहन भी करते हैं। राजनीतिक पत्रकारिता ने पत्रकारों को भस्मासुर बना दिया हैं। समाचार पत्र मालिको के अपने कई कारोबार होते हैं। समाचार पत्र साप्ताहिक हो या पाक्षिक हो या फिर दैनिक अखबार मालिकों का दूसरा कारोबार बढ़ाने में मद्दगार होता हैं। शासन और सत्ता तक पहुँच बनाने का जरिया बन जाने के बाद तो समाचार पत्र मालिक दिन दुगनी और रात चौगुनी तरक्की करता हैं। अखबार मालिक कम समय में करोड़पति से अरबपति बन जाते हैं। समाचार पत्र मालिकों पर कभी आयकर, विक्रयकर तो कभी प्रवर्तन निदेशालय के छापे पड़ते हुए सुने भी नही गए हैं। अखबार मालिकों को आय से अधिक सम्पत्ति के मामलों मे जेलजाते हुए कभी सुना और देखा नही गया हैं। इसके ठीक विपरीत अखबार मालिक को एक के बाद दूसरा अखबार अन्य भाषाओं में अन्य राज्यों शुरू करते हुए देखा और सुना जरूर गया हैं। यह सतसंग का लाभ हैं। हमारे वेदो पुराणों और शास्त्रों में भी यही लिखा हैं कि सत्संग का लाभ तो मिलता ही हैं और यह लाभ स्वर्ग के सुख से भी बढ़कर हैं।

भारत में औद्योगिक घरानों की तर्ज पर समाचार पत्र समूह बन गए हैं। इन व्यापारियों के समूह के अपने अपने कारोबार हैं जिन्हे समाचार पत्र के पाठक तक नही जानते हैं। पाठक तो केवल विज्ञापन देखता हैं और समाचार पत्र पढ़ता हैं। समाचार पत्र की संख्या समाचार पत्र की सबसे बड़ी ताकत हैं। यह ताकत विज्ञापन जगत से ज्यादा राजनीति में महत्व रखती हैं। मसलन एक व्यक्ति एक वोट राजनीतिक समानता हैं। हर व्यक्ति की आर्थिक परिस्थिति वोट की संख्या को प्रभावित करती हैं। एक आम आदमी का वोट और बाबा रामदेव के पास भी उसका अपना एक वोट राजनीतिक समानता हैं। आम आदमी के पीछे उसका अपना एक मात्र वोट हैं लेकिन बाबा रामदेव के वोट के पीछे हजारों और लाखों निर्णायक वोट हैं। बाबा रामदेव किसी उद्योगपति की तरह ही एक आर्थिक शक्ति हैं। यही स्थिति समाचार पत्र मालिकों की हैं वे भी बड़ी संख्या में जनमत को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। इस स्थिति का वे चुनाव के दौरान पूरा दोहन करते हैं। भारत चुनाव आयोग चुनाव के दौरान समाचार पत्र की नकेल कभी कस नही सका हैं? इसका परिणाम आम जनता को भोगना पड़ता हैं। वकील और समाजसेवी चुनाव हार जाते हैं और अपराधी पार्टी के टिकिट पर चुनाव जीत जाते हैं।

समाचार पत्रों में पिछले कुछ समय से देश के समाज सेवकों ने आर्थिक न्याय की बात करना शुरू कर दिया हैं। भारत आर्थिक विषमता का शिकार हैं। भारत में आर्थिक असमानता पहले भी थी और आज भी हैं। प्राचीन धर्म ग्रंथों में दान का महत्व और अपरिग्रह का सुझाव बताता हैं कि भगवान बुद्ध और महावीर के काल की सामाजिक और आर्थिक दशा भला क्या रही होगी? बुद्ध, महावीर जैसी प्रतिभा ने आर्थिक विकास के सूत्र भारत की गरीब जनता को नहीं दिया। भारत में केवल हिन्दू वर्ण व्यवस्था थी और बहुसंख्यक समाज के पास आर्थिक चिंतन या कोई अर्थशास्त्र नहीं था। अगर होता तो आज हम विश्व की प्रमुख आर्थिक शक्ति जरूर होते। बुद्ध और महावीर के समय पत्रकारिता नही होती थी और पत्रकार नहीं थें। इसलिए उस काल के बारे में हमारी जानकारी बहुत सीमित हैं। पत्रकारिता आज के युग की बिलकुल नई चीज हैं। पत्रकारिता को क्रांति का पर्याय समझना कोई गलती नही होगी। पत्रकारिता से सबकुछ किया जा सकता हैं। दो देशों के बीच युद्ध भी करवाए जा कसते हैं तो विश्व में शांति की स्थापना भी संभव हैं। भारत में अब गरीबी, बेरोजगारी और आर्थिक विकास की बात की जा रही हैं। हमारे कुछ महापुरूष भ्रष्टाचार और विदेशी बैंको में जमा काला धन जो करीब बीस लाख करोड़ रूपए का हैं को भारत की बदहाली, गरीबी का प्रमुख कारण बता रहे हैं। भारत कोई गरीब देश नही हैं। भारत की समृद्धि काले धन के रूप में दफन हैं जिसे बाहर लाना होगा। भारत में काला धन वापस लाकर आम आदमी की रोटी, कपड़ा, मकान और रोजगार की समस्या का समाधान किया जा सकता हैं। हमारे विश्वविद्यालयों ने आर्थिक पत्रकार तैयार तो नही करे हैं जो गरबी, बेरोजगारी, महँगाई और ग्रामीण विकास जैसे आर्थिक विषयों पर पत्रकारिता करके जनमत तैयार कर पाते। इसलिए यह काम हमारे समाज सेवकों को करना पड़ा और देश की सबसे बड़ी अदालत अपनी न्यायिक शक्ति के जरिए आथर््िाक न्याय की जिम्मेदारी को पूरा कर रही हैं। समाचार पत्र के पाठकों को समझना होगा कि विश्वविद्यालयों में अर्थशास्त्र पढ़ाया जरूर जाता हैं लेकिन यह विषय आज भी पत्रकारिता से बहुत दूर हैं। आर्थिक मसलों पर जितनी अधिक पत्रकारिता होगी हमारी व्यवस्था में उतना ही सुधार होगा। बिना आर्थिक पत्रकारिता के हम गरीबी और बेरोजगारी को कभी इस देश से मिटा नही पाऐंगे और भ्रष्टाचार को कभी समाप्त नही कर पाऐंगें। आथर््िाक पत्रकारिता के अभाव में हम भ्रष्टाचार से होने वाले नुक्सान का आंकलन तक नही कर पाते हैं। भारत, कुछ लोगो के लिए सोने की चिडिय़ा था, कुछ लोगों के लिए आज भी हैं। भारत की आम जनता को एक एैसा अर्थशास्त्र चाहिए जिसमें उसमें उसकी आर्थिक समस्या का समाधान हो।

भारत की जनता के खिलाफ समाचार पत्र कही कोई षडयंत्र तो नही करता हैं। राजनेता, नौकरशाह और अपराध का गठजोड़ की बात तो सुनी थी, कही इस गठजोड़ में सबसे बड़े समाचार पत्र समूह शामिल तो नही हैं। इस गंभीर आरोप को सीरे से नकारा तो नही जा सकता हैं। समाचार पत्र के पाठक इसकी स्वयं भी पड़ताल कर सकते हैं। समाचार पत्र कुछ समाचारों को दबाते हैं तो कुछ को बड़ी खबर बना देते हैं। जनता के बीच में आधा सच ही पेश किया जाता हैं। आधा सच, झूठ से ज्यादा खतरनाक होता हैं। इसका मतलब झूठ बोलने से जो नुक्सान होता हैं उससे ज्यादा नुक्सान आधा सच बोलने से होता हैं। हमारे समाचार पत्र पाठको को क्या पूरा सच बताते हैं? समाचार पत्रों मालिकों की नीति लाभ कमाने वाली होती हैं और अपने लाभ के लिए वे सब कुछ करते रहे हैं। समाचार पत्र संगठन खड़ा ही इस तरह से किया जाता हैं जिसमें विधिक, लोकप्रशासन इत्यादि विषयों के पत्रकार कभी न रहें। आम आदमी के सामने समस्याएँ तो पेश होती हैं लेकिन समाधान गायब रहते हैं। लोक तंत्र में विधिक पत्रकारिता और लोकप्रशासन का सबसे ज्यादा महत्व हैं लेकिन समाचार पत्र संगठन में इन विषयों के पत्रकार कभी नही मिलेगें। समाचार पत्र का ब्यूरो चीफ कानून और न्याय का जानकार अधिवक्ता नही होगा लेकिन राजनीति विषय का जानकार जरूर होगा। पत्रकारिता के स्वरूप का असर हमारी व्यवस्था पर पड़ता हैं। अखबार मालिक कह सकते हैं कि हम जनता की रूची पर चलते हैं, जनता जो पसंद करती हैं हम वही प्रकाशित करते हैं। लेकिन यह कहना गलत हैं। आज से कुछ सौ साल पहले तक हमने मोटर कार या रेल गाड़ी के बारे में सोचा और देखा भी नही होगा। लेकिन मोटर कार और रेलगाड़ी को जनता के बीच में लाया गया और जनता कार खरीदने लगी और रेल मे यात्रा होने लगी। लोक तंत्र में असली ताकत जनता के हाथ में हैं तो समाचार पत्र की असली ताकत पाठकों के हाथ में हैं। समाचार पत्र के पाठक संगठित होकर फोरम बना सकते हैं या फिर समाचार पत्र, सम्पादक को अपनी पसंद बार बार अपनी प्राथमिकता जाहिर करके परिवर्तन ला सकतें हैं? समाचार पत्र को नकार भी सकते हैं। समाचार पत्र, पाठको से बंधे हैं या फिर पाठक समाचार पत्र से बंधे हैं। इस तथ्य को समाचार पत्र पाठकों को समझाना होगा। भारतीय विश्वविद्यालयों को पत्रकारिता एवं जनसंचार के पाठ्यक्रमों में परिवर्तन लाकर समाचार जगत को विशिष्ट पत्रकार उपलब्ध करवाना होगा

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