नब्बे फीसदी मूर्ख जनता ही कायम लिए हुए लोकतंत्र

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प्रमोद भार्गव

संदर्भ-भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कण्डे काटजू का बयान । 

लगता है भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कडेंय काटजू को चर्चां में बने रहने का रोग लग गया है। इसलिए वे ज्यादातर कार्यक्रमों में कुछ न कुछ ऐसा जरूर बोलते है जिससे विवाद का उत्सर्जन हो। हाल ही में उन्होंने इंदौर में वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र्र जोषी की स्मृति में आयोजित एक कार्यक्रम में देश के 90 प्रतिषत लोंगो को मूर्ख ठहारते हुए कहा, यही वे लोग हैं जिनमें जातिवाद, सांप्रदायिकता और अंधविश्वास भरा होता हैं। मसलन इस 90 फीसदी आबादी में वह सब लोग आ गए जो मध्य व निम्न वर्ग के होने के साथ गरीब, दलित व वंचित तबकों से हैं। जाहिर है काटजू की दृष्टि पूर्वग्रही है और वे सामाजिक व्यवस्था को भेद की दृष्टि से देखते हैं। काटजू का लंबा जीवन न्यायायिक सेवा में बीता है और वे इस क्षेत्र के न्यायमूर्ति जैसे सर्वोच्च पद से सेवानिवृत हुए हैं। उन्हें अनुभूती होनी चाहिए की न्याय व्यवस्था आज देश में कायम है तो वह इसलिए है कि इसी 90 प्रतिशत लोक का विश्वास और आस्था न्यायपालिका में है, अन्यथा देश का जो 10 प्रतिशत पढ़ा – लिखा और आर्थिक व राजनीतिक रूप से सबल तबका है वह तो इस व्यवस्था में जो छेद हैं, उनमें से बच निकालता है।

आंदोलन चाहे अन्ना का हो या बाबा रामदेव का, इस बाबत यह भ्रम फैलाया जाना नितांत गलत है कि उसे मीडिया ने उत्सार्जित किया और पत्रकार तटस्थ पत्रकारिता करने की बजाय भावनाओं में बह गए और मीडिया द्वारा प्रयोजित छदम खबरों ने उसे परवान चढ़ाया। गाहे-वगाहे जब आंदोलन सरकारी हस्तक्षेप और हथकण्डों के चलते गुम्बदीय शिखर की उंचार्इयों का हिस्सा बन गया तो प्रिंट और इलेक्ट्र्रोनिक मीडिया की यह मजबूर अनिवार्यता हो गयी की वह आंदोलन का प्रसारण और प्रकाशन करे। मैं यहां आर्इबीएन 7 के प्रबंध संपादक आशुतोश से सहमत हुं की मीडिया खबरों को ईश्वर की तरह शून्य से सृजन करने की क्षमता नहीं रखता। अन्ना हजारे एक र्इमानदार व्यकित ही नहीं है, उन्होंने ग्रामीण विकास की जो रचनांए रालेगन सिद्धि में रची हैं और जनता को र्इमानदारी व कर्मठता का जो पाठ पढ़ाया है देश की आजादी के बाद के संसदीय इतिहास में षायद देश का ऐसा एक भी सांसद नहीं है जिसने सासंद निधि की उपलब्धता के बावजूद रालेगांव जैसा उदाहरण पेश किया हो ? हमारे सासंद और आर्इएएस ग्राम विकास की अवधारणा उधार लाने के बहाने दुनिया का सैर – सपाटा करने जाते है। क्या किसी सासंद या अधिकारी ने ऐसी अनूठी मिसाल पेश की सकता है कि उसने अपने कार्यकाल में कृषि, शिक्षा, जल – संग्रह, और सामाजिक कुरितीयों के क्षेत्र में उल्लेखीनीय एवं अनुकरणीय कार्य किया हो ?

ऐसे बहुआयामी व्यकितव के धनी अन्ना के पक्ष में यदि चंद खबरनवीष अन्ना आंदोलन का हिस्सा दिखार्इ भी दिए तो इसमें हर्ज क्या है ? अन्ना न तो कोर्इ राष्ट्रविरोधी गतिविधि चला रहे थे और न ही जातीय व सांप्रदायिक जहर अवाम में घोलने का काम कर रहे थे। वे उस भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चला रहे थे जो विधायिका और कार्यपालिका की रक्त धमियों का जरूरी हिस्सा बन गया है और न्यायपालिका भी उससे अछूती नहीं रह गर्इ है। मैं सम्मानीय काटजू साहब से पूछ सकता हूं कि उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान न्याय व्यवस्था को भ्रष्टाचार से मुक्ति और जनता को जल्द न्याय दिलाने के क्या उपाय किए ? प्रेस परिषद के जरिए पत्रकारिता को ही स्वच्छ व निष्पक्ष बनाने में वे कितने कामयाब हो पा रहे हैं ? पेड न्यूज छापने वाले अखबारों की खबर वे कैसे लेंगे ?

अगस्त 2011 में रामलीला मैदान में अन्ना आंदोलन की यह कामयाबी थी कि पूरी संसद में लंबी बहस के बाद अन्ना की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम से जुड़ी तीन महत्वपूर्ण मांगो को माना और फिर संसद ने इस वचन को भंग भी किया । देश की जनता ने आजादी के बाद पहली बार चष्मदीद बनकर देखा कि संसद की भावना एक छदम प्रपंच थी, जो कैसे संसद की झूठ में बदलती चली गयी। यह अन्ना आंदोलन ही है कि उसने प्रत्यक्ष जता दिया कि सासंद कैसे जन-भावनाओं से खिलवाड़ करते हैं। 90 फीसदी मूर्ख जनता सब समझती है और वक्त आने पर सत्ता परिर्वतन का कारण भी यही जनता बनती है।

यदि अन्ना आंदोलन को महिमामंडित करने की सामर्थ्य मीडिया में होती तो वह अब तक कांग्रेस के राजकुमार और तथाकथित भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी का भी महिमामंडन कर चुकी होता। अब प्रियंका गांधी अमेठी और रायबरेली संभालने जा रही है, क्या उनका महिमामंडन करने में मीडिया कामयाब हो जाएगा ? मीडिया कुछ भी कर ले वह जन आकांक्षाओं के केंद्र में राहुल और प्रियंका को लाने में सफल नहीं हो पाएगा। कांग्रेसियों द्वारा बार – बार राहुल की रीतिकाल के तर्ज पर विरूदावली पढ़ी जाने और मीडिया द्धारा उछाले जाने के बावजूद वे व्यकितव का वह आर्कशण व सन्मोहन पैदा नहीं कर पाए हैं, जो अन्ना और बाबा रामदेव में अभी भी बदस्तूर है। अन्ना के जतंर मतंर पर हाल ही में हुए नाकाम प्रदर्शन के बाद, बाबा रामदेव रामलीला मैदान में तीन दिन के लिए प्रगट हुए हैं। क्या मीडिया यहां जो जन सैलाब उमड़ा है, उसे नजरअंदाज कर देगा ? सभी चैनलो और समाचार पत्रों में बाबा ही बाबा हैं ? अन्ना आंदोलन के चलते, मीडिया की हुर्इ पर्याप्त आलोचना के बाद अब मीडिया दूध का छाछ भी फूंक – फूंक कर पिए की तर्ज पर चल रहा है। लेकिन क्या इस प्रदर्षन को मीडिया मुख्य हेडलाइनों में नीचे खिसका पाया ? नहीं, क्योंकि अब यही प्रमुख खबर है। और बाबा जिस परिपक्व सोच, ओज और जोश के साथ मंच पर हैं, उससे जाहिर है कि उन्होंने अपनी भूलों व खामियों से सबक लिया है। लिहाजा वे जनमानस में पैठ बनाने मे कामयाब हो रहे हैं। इस पैठ का विस्तार मीडिया को दिखाना लाजिमी है, इसमें पक्षधरता का सवाल कहां है ?

जो समाजसेवी अपनी धुन के प्रति प्रतिबद्ध होते हैं, वह मीडिया के मोहताज नहीं होते ? मेधा पाटकर दो दशक से भी ज्यादा लंबे समय से नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़ी हैं, उन्हें मीडिया ने कितनी तरजीह दी ? इसके बावजूद क्या वे सफल आंदोलनकारी नहीं हैं ? पीवी राजगोपाल आदिवासी एकता परिषद के वेनर तले आदिवासियों को जल, जंगल और जमीन से जोड़ने के लिए देश व्यापी अंदोलन चला रहे हैं, उन्हें मीडिया कितना महत्व दे रहा है ? र्इरोम शर्मिला पिछले 12 साल से सशस्त्र बल विषेशाधिकार अधिनियम को हटाने की मांग कर रही हैं, क्या मीडिया उन्हें संजीवनी देने का काम कर रहा है। इन सभी जन हितैशी मुददों को प्रणवायु उसी 90 फीसदी अवाम से मिल रही है, जिसे जब – तब मूर्ख जताते हुए सक्षम तबका खिल्ली उड़ाता रहता है। इन आंदोलंनो में एकाध का पटाक्षेप भले ही हो जाए, लेकिन बदलाव बयार इन्हीं आंदोलनों की पृश्ठभूमि से उठती रहेगी। कहते हैं न, कि राख में दबी आग एकाएक ठण्डी नहीं पड़ती

2 COMMENTS

  1. जस्टिस मार्कंडेय काटजू का प्रत्येक कथन अक्षरश; सत्य हुआ करता है.वे किसी की नौकरी -चाकरी में नहीं हैं जो उन्हें किसी लाग लपेट की जरुरत आन पड़े. वे जिस पद पर हैं वो बिलकुल स्वायत्त है ठीक बहुचर्चित ‘केग’ की तरह या भारतीय न्याय तंत्र की तरह; वे उसी ख्यातनाम न्याय व्यवस्था के श्रेष्ठतम इतिहास पुरुष हैं जिसने वर्तमान व्यवस्था की सडांध को उजागर किया और जिस पर कतिपय तत्व राजनैतिक रोटियां सेंकने में जुट गए हैं.जस्टिस काटजू को संवैधानिक सीमाओं का ज्ञान बखूबी है,और अभिव्यक्ति के प्रजातांत्रिक अधिकार तथा कर्तब्य किसी ऐरे गेरे नथ्थू खेरे से सीखने की तो उन्हें कतई आवश्यकता नहीं.दरसल जरुरत तो इस बात की है कि संस्कृत के इस सुभाषितानि को आप लोगो भूल गए हैं
    शेले शेले न मानिक्यम,मोक्तिकम न गजे-गजे:
    साधवा न लोकेषु ,चन्दनं न वने-वेने:

  2. उनकी अपनी कुछ मजबुरीया है, कुछ प्रतिबध्तायें हैं,अतः ऐसे कमेन्ट देना लाजिमी है,वे अब किस पद पर हैं यह तो उन्हें और देश की जनता को धयान है और इस नौकरी को चलाये रखने के लिए ऐसी बातें कहना जरूरी हो जाता है,देश की जनता को इन बातों को अपने दिल पर नहीं लेना चाहिए.

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