नक्सलों और आदिवासियों में फर्क कीजिए

प्रभात कुमार रॉय

नक्सलवाद अथवा माओवाद के विषय में प्रायः कोई राष्ट्रीय विचार विमर्श तभी होता है, जबकि कोई भयानक खूंरेज घटना अंजाम दे दी जाती है, अन्यथा इस ज्वलंत राष्ट्रीय प्रश्न पर प्रायः उदासीनता और खामोशी व्याप्त रहती है। छत्तीसगढ़ के बीजापुर इलाके में 28/29 जून 2012 के रात्रिकाल में सीआरपीएफ और माओवादियों के मध्य अंजाम दी गई मुठभेड़ पर अच्छा-खासा हंगामा बरपा हो गया। इल्जाम आयद किया गया कि सीआरपीएफ के जवानों ने बेगुनाह आदिवासी किसानों की बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी। मृतकों में अनेक आदिवासी औरतें और बालक भी शामिल थे। मानव अधिकारों के पैरोकारों ने मांग पेश कर दी कि केंद्रीय गृहमंत्री को बर्खास्त किया जाए और प्रधानमंत्री को स्वयं घटना के लिए जनजातियों से माफी मांगनी चाहिए। मामले की गंभीरता समझते हुए छत्तीसगढ़ सरकार ने मुठभेड़ की न्यायिक जाँच का हुक्म दे दिया। दुर्भाग्य से राष्ट्र में प्रत्येक महत्वपूर्ण प्रश्न पर स्तरहीन राजनीतिक बहस होने लगती है और आरोप-प्रत्यारोप के मध्य ज्वलंत सत्य प्रायः दफन हो जाता है। सुरक्षा बलों और नक्सलों के मध्य मुठभेड़ के विषय में भी दुर्भाग्यवश ऐसा ही कुछ घट रहा है। नक्सल आतंकवाद की संक्षेप में विवेचना करना, कठोर-कटु सत्य पर पहुंचने के लिए अति आवश्यक होगा। नक्सल समस्या के प्रति हुकूमत ने इतना उपेक्षापूर्ण रुख अख्तयार न किया होता तो 45 वर्ष पूर्व सन् 1967 में नक्सलबाड़ी इलाके से उभरे नक्सल संग्राम का इतना भयावह विस्तार कदापि संभव नहीं हो पाता। राष्ट्र के तकरीबन 20 करोड़ आदिवासी किसानों के प्रति हुकूमत के उपेक्षापूर्ण बर्ताव और शेष भारतीय समाज की बेरुखी ने नक्सल समस्या को वस्तुतः इस मक़ाम तक पंहुचा दिया कि प्रधानमंत्री के अल्फाज़ में नक्सल अब आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन चुके हैं।

नक्सलों की नेतृत्वकारी पाँतों में प्रारम्भ से ही साम्यवादी आदर्शवाद से प्रेरित नौजवानों का प्रभुत्व रहा। भारत में साम्यवादी किसान-मजदूर क्रांति का दिवास्वप्न लेकर विश्वविद्यालयों का परित्याग कर गाँव-देहात और जंगलों की ओर रुख करने वाले ये उच्च मध्यवर्गीय नक्सल नौजवान हिंसक जल्दबाजी और उतावलेपन का शिकार हो गए और वस्तुतः नशृंस आतंकवादियों की तरह आचरण अंजाम देते रहे। राजसत्ता की बाजार परस्त आर्थिक नीतियों के कारण विगत वर्षों में नक्सलों को दण्डकारण्य के घोर गरीबी और बदहाल आदिवासी किसानों के मध्य जबरदस्त गुरिल्ला आधार क्षेत्र विकसित करने का सुअवसर प्राप्त हो गया। भारत के आदिवासियों ने सदैव ब्रिटिश राज से जोरदार लोहा लिया और जंगे-ए-आजादी के इतिहास में आदिवासियों के अविरल संग्रामों का इतिहास सुनहरे अक्षरों से लिखा गया। दुर्भाग्यवश आजादी के दौर में भी कोटि कोटि आदिवासी किसानों को बर्बर आर्थिक शोषण, उत्पीड़न और दमन से कदाचित मुक्ति हासिल नहीं हुई। 1970 के दशक के प्रारम्भ में नक्सल नौजवान माओवादी राजनीतिक दर्शन से प्रेरित होकर दंडकारण्य के जंगलों में आदिवासियों के मध्य आए थे। दंडकारण्य के अत्यंत गरीब किसानों ने फितरत से आतंकवादी, किंतु प्रण-प्राण से अत्यंत समर्पित रहे नक्सलों को अपना मुक्तिदाता समझ लिया। नक्सलों के माओवादी दर्शनशास्त्र में राजसत्ता का जन्म बंदूक की नली से होता है। सदियों से गुरबत और दमन झेलते आदिवासियों का सहज आकर्षण नक्सलों की ओर महज इसलिए हुआ कि भारत की जनतांत्रिक राजसत्ता अपने सांमती-पूँजीवादी चरित्रिक रुझानों के चलते राष्ट्र के करोड़ों किसानों के समुचित आर्थिक विकास के लिए किसी कारगर राष्ट्रीय नीति का निर्माण करने में पूरी तरह विफल सिद्ध हुई। आदिवासी किसानों के प्रायः सभी इलाके जोकि खनिज तत्वों के अकूत खजानों से लबरेज रहे हैं, अतः उन्हे वहां से बेदखल करने की सभी साजिशों में काँरपोरेट सैक्टर को हुकूमत से बाकायदा सहायता और समर्थन हासिल होता रहा। राजसत्ता की इस कुटिल कुनीति का परिणाम हुआ कि अपने पुश्तैनी क्षेत्रों से बेदखल हुए लाखों आदिवासी किसान स्वतः ही नक्सलों के समर्थक बन गए, जोकि कॉरपोरेट सैक्टर की दखंलदाजी का प्रण-प्राण से सशस्त्र खूनी विरोध करते रहे।

नक्सलों से भारत की राजसत्ता को पूरी तरह से निपटना है तो फिर राष्ट्र के नीति नियंताओं को नक्सलों और आदिवासियों के मध्य ज्वलंत फर्क को स्पष्ट तौर पर बखूबी समझना होगा। नक्सल एक हिंसक राजनीतिक दर्शन से सदैव प्रेरित और उद्वेलित रहे हैं, जबकि आदिवासी किसान अत्यंत सरल, निश्छल, बेहद भोले-भाले हैं और अपने मूल चरित्र एवं स्वभाव में पूर्णरुपेण अहिंसक और जनतांत्रिक हैं। किसी भी तौर से आदिवासी किसान हिंसक फितरत के बिलकुल नहीं रहे। भारतीय राजसत्ता की कुटिल कॉरपोरेट परस्त नीतियों से उत्पन्न दुशःपरिणामों ने किसानों को कहीं पर लाखों की तादाद में आत्महत्या करने को विवश कर दिया तो कहीं उन्हें हिंसक नक्सलों का समर्थक बनने के लिए मजबूर कर दिया। किसानों हितों के अनुकूल आर्थिक नीतियों के निमार्ण और इन नीतियों के ईमानदार निष्पादन से ही नक्सलों से निपटा जा सकता है। यह तथ्य ठीक है कि नक्सलों द्वारा सदैव ही आदिवासी किसानों को गुरिल्ला युद्ध में अपनी हिफाजत लिए मानव-कवच की तरह इस्तेमाल किया, किंतु करोड़ो आदिवासी किसानों को नक्सलों का मानव-कवच बन जाने के लिए दुर्भाग्यपूर्ण हालात आखिरकार किन शक्तियों द्वारा निर्मित किए गए? भारत की राजसत्ता पर काबिज अत्यंत भ्रष्ट और कॉरपोरेट परस्तों ने यदि राष्ट्र के करोड़ों किसानों को इस कदर बरबाद और तबाह न किया होता तो संख्या में कुछ हजार रहे, नक्सलों की क्या बिसात है कि वे आंतरिक सुरक्षा के लिए इतनी गंभीर चुनैती बन जाते कि भारतीय राजसत्ता के लिए उनसे निपट पाना ही बेहद दुश्वार हो जाता।

नक्सलों के विरुद्ध कारगर रणनीति का निर्माण करते वक्त दंडकारण्य की वस्तुगत परिस्थितियों का भी भारत के नीति नियंताओं को समुचित तौर पर ध्यान रखना चाहिए। किसी आदिवासी गाँव में नक्सल यदि बलपूर्वक शरण लेते है तो उस समस्त गाँव को नक्सल समर्थक करार नहीं दिया जाना चाहिए। आदिवासी किसान प्रायः निहथ्थे होते हैं और वे अपने बल-बूते पर आधुनिकतम अस्त्र-शस्त्रों से लैस नक्सलों को शरण प्रदान करने से कदाचित इंकार नहीं कर सकते। शरणदाता आदिवासी किसानों को नक्सल समर्थक मान लेना और फिर उनसे शत्रुवत व्यवहार अंजाम देने की रणनीति के कारण हिंसक नक्सलों को भरपूर फायदा हासिल हुआ है। एक ओर नक्सलों से निपटने की शस्त्रबल रणनीति का अनुसरण किया जाए तो दूसरी ओर आदिवासी किसानों का संपूर्ण विश्वास हासिल किया जाए, तभी नक्सल आधिपत्य वाले विशाल इलाकों को बाकायदा फिर से दख़ल किया जा सकेगा।

गृहमंत्री पी.चिदंबरम के ग्रीन हंट आपरेशन के तो परखचे उड़ ही चुके हैं, क्योंकि जो नक्सल समस्या मूलतः सामाजिक-आर्थिक चरित्र की रही, उसे काबिल और कानूनविद् गृहमंत्री महोदय कानून-व्यवस्था की समस्या करार देते रहे हैं। नक्सल समस्या का निदान वस्तुतः आदिवासी किसान-मजदूरों का दिल-दिमाग जीत कर किया जा सकता है। आदिवासी किसानों का समुचित आर्थिक विकास अंजाम देकर ही यकीनन नक्सल समस्या का निपटारा होना है। नक्सल समस्या से केवल बंदूक के बल पर निपटाने चल दिए देश के गृहमंत्री महोदय। माओवादियों की राजसत्ता का जन्म यकीनन बंदूक की नली से होता है, किंतु भारत की राजसत्ता का जन्म तो संवैधानिक तौर पर कोटि-कोटि जन-गण की समझ,सोच और सहमति से होता है। नक्सल समस्या के निदान में सशस्त्र बलों की प्रबल दरकार है, किंतु इस संग्राम में सशस्त्र बल निर्णायक शक्ति नहीं है। सशस्त्र बल तो केवल इस दीर्घकालिक संग्राम की सहायक शक्ति हैं। वस्तुतः इस संग्राम की निर्णायक शक्ति हैं कोटि कोटि आदिवासी किसान, जिनका समर्थन खोते ही नक्सल तत्व एकदम धराशाही हो जाएगें, किंतु इस कामयाबी के लिए राजसत्ता को अपना कॉपोरेट परस्त चरित्र त्यागकर वास्तव में ही किसानों का प्रबल समर्थक बनना होगा। भ्रष्टाचार को पूर्णतः अलविदा कहे बिना राजसत्ता किसानों के आर्थिक विकास को समुचित गति प्रदान नहीं कर सकेगी। आदिवासी किसानों के समुचित आर्थिक विकास में नक्सलों की निर्णायक शिकस्त निहित है। कुछ पूंजीशाह घरानों को अमीर से और अधिक अमीरतर बनाने और करोड़ो किसानों को गुरबत और लाचारी के अंधकार में धकेलने वाली मनमोहनी आर्थिक नीतियों और चिदंबरम् की कुटिल रणनीति के बाकायदा जारी रहते नक्सलों के भयावह विस्तार को कदापि रोका नहीं जा सकेगा

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