अम्बा चरण वशिष्ठ
‘भारत नीति प्रतिष्ठान’ के एक कार्यक्रम में एक साम्यवादी लेखक व नेता को मंच पर बिठाने व उस के सम्बोधन से उठे विवाद ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि हम भारतीय अवश्य हैं पर हमारे जनतन्त्र की आत्मा भारतीय नहीं है। बहुत हद तक इसकी मानसिक छाप विदेशी ही है।
सभी जानते हैं कि आक्रमणकारी शासकों के आगमन से पूर्व भारत के विभिन्न भागों में चाहे राजा-महाराजा ही राज करते थे पर शासक वही सफल रहे जिन्होंने जनता का मन मोहा और अपना राज्य जनभावना के अनुरूप चलाया। जब राज्य में अकाल की स्थिति होती थी या किसी वस्तु का अभाव होता था तो राजा-महाराजा उस संकट की घड़ी में जनता के साथ खड़ा मिलता था। तब वह आज के जनतान्त्रिक शासकों की तरह व्यवहार नहीं करते थे कि जनता तो अभाव व अकाल में जी रही है पर उसका असर शासकों को छू तक नहीं सकता। प्रदेश या शहर में पानी या बिजली की अति कमी हो पर हमारे शासकों को इसका सेक नहीं लगता। यदि कभी लग जाये तो उसके लिये उत्तरदायी अधिकारी की शामत आ जाती है। यही कारण था कि तब जनता अपने राजा-महाराजा के लिये मर मिटने को तैयार रहती थी। राजा का हाथ सदा अपनी प्रजा की नब्ज़ पर रहता था।
वर्तमान में उदाहरण केवल स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री का है जिन्होंने 1965 में हर सोमवार व्रत का आह्वान कर एक नया आदर्श स्थापित किया था जिस कारण देश के हर कोने में अन्न संकट से जूझने के लिये ब्रत रखा जाता था। होटलों तक में शाम को अन्न प्रयुक्त होने वाला भोजन नहीं मिलता था। यह सब इस लिये हुआ कि शास्त्रीजी ने स्वयं यह उदाहरण प्रस्तुत किया और वह सब से पहले व्यक्ति थे जिन्होंने स्वयं इस व्रत को रखा। यह है हमारे विशुद्ध भारतीय जनतान्त्रिक सोच का प्रमाण।
धर्मांधिता तथा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर अंकुश या अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर भारत में कभी अंकुश नहीं रहा। जनभावना को कुचलने का प्रचलन कभी नहीं रहा। जब एक धोबी ने माता सीता के बारे अपशब्द कहे तो राजा राम ने उस धोबी को सूली पर नहीं चढ़ाया। उसे जनभावना समझ कर माता सीता को ही त्याग दिया। किसी राजा ने किसी की ज़ुबान बन्द करने का प्रयास नहीं किया। रोज़ अपने घर के शिखर पर चढ़ कर वेदों को गाली देते थे। पर हिन्दु धर्म ने न उन्हें सूली पर लटकाया और न ही धर्म से ही निकाल दिया। उसे महर्षि माना। हिन्दू धर्म ने नास्तिक को भी हिन्दू ही माना, उसका निष्कासन नहीं किया।
मतैक्य पर ज़ोर अवश्य दिया पर मतभेद को दबाने का कभी प्रयास नहीं किया गया। इसके लिये वाद-विवाद द्वारा मतैक्य पैदा करने का प्रयत्न किया जाता था। जिसके तर्क में दम है उसे मानने के लिये हर व्यक्ति तत्पर रहता था। धर्म के किसी विषय पर यदि मतभेद होता था तो उसे शास्त्रार्थ के माध्यम से निपटाया जाता था।
पर आज तो जनतन्त्र न रह कर मतभेद उत्पादतन्त्र बन कर रह गया है। एक को दूसरे से तोड़ कर अपनी राजनैतिक व चुनावी रोटियां सेंकना ही प्रजातन्त्र बन कर रह गया है। किसी ने राजनीति की परिभाषा ठीक ही की है कि राजनीति ग़रीब से उसके वोट व अमीर से उसका धन एक को दूसरे से रक्षा करने का एक ढोंग है। यह परिभाषा भारत की राजनीति की यथार्थता पर बिलकुल सही उतरती है।
देश से जातीय व सामाजिक अश्पृश्यता तो बहुत हद तक समाप्त हो चुकी है पर हमारे कुछ राजनीतिज्ञ व बुद्धिजीवी एक और प्रकार की अश्पृश्यता को जन्म दे रहे हैं — वैचारिक अश्पृश्यता।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद विभिन्न राजनैतिक दलों व विचारों के लोग अपने विरोधियों के विचारों को भी सुनने जाते थे ताकि वह उनके तर्क—वितर्क का सही उत्तर दे सकें। यदि हम अपने विरोधी की बात ही नहीं सुनेंगे तो उसके तर्क का सही उत्तर कैसे दे पायेंगे ?
पर अब विचार में परिवर्तन आ गया है। हम दूसरे की बात सुनना ही नहीं चाहते। हम ही ठीक हैं, हमारे विरोधी सब ग़लत। अब तो बात यहां तक बिगड़ गई है कि अपने विरोधी दल की जनसभा में जाना ही पार्टी-विरोधी गतिविधि बन गया है। बात यहीं खत्म नहीं होती। अब तो बात यहां तक बिगड़ गई है कि एक ही पार्टी के लोग पार्टी में ही अपने विरोधी के सुख-दुख में शामिल होने से कतराते हैं और यदि कोई हो जाये तो बुरा मनाते हैं। अपने विरोधी के भी सुख-दुख में शामिल होना हमारा सामाजिक कर्तव्य माना जाता था पर इस कर्तव्य के निर्वाहण में भी राजनीति आड़े आ गई है। राजनीति हमारी सामाजिक कर्तव्यभावना में वाधक बन चुकी है।
हमारे नेता व बुद्धिजीवी वैसे तो अपने उदारवादी होने का बड़ा ढोंग करते हैं पर अपनी संकीर्णता छुपा नहीं पाते जब वह अपने ही साथी को अपने विरोधी के साथ देखते हैं। अब तो हालत यह आ गई है कि यदि कोई मुख्य मन्त्री दूसरे मुख्य मन्त्री से औपचारिकता स्वरूप हाथ मिला लेता है तो कुछ राजनीतिज्ञों को इस पर भी आपत्ति हो जाती है। वह इसमें भी राजनीति करते हैं।
क्या विडम्बना है कि हमारे कुछ नेता अपने विरोधी राजनीतिज्ञों से बात नहीं करना चाहते, उनकी बात भी नहीं सुनना चाहते और उनसे इतनी दूरी बनाये रखना चाहतें कि उनके विचार सांक्रामिक रोग उन्हें न लपेट ले पर वे इतने उदार हैं कि भारत के दुश्मनों, पाकिस्तान व चीन, से बिना शर्त दोस्ती करना चाहते हैं। अपने राजनीतिक विरोधियों को तो अस्पृश्य मानते हैं पर आतंकवादियों, माओवादियों व नक्सलवादियों से हाथ मिलाना चाहते हैं जिनके हाथ नि:सहाय व निर्दोष लोगों के रक्त से लथपथ हैं।
आवश्यकता तो यह है कि हम संकीर्णता छोड़ें। अपने विरोधी की बात भी सुनें। यदि ठीक है तो उसे मानने से कोई परहेज़ न करें। हमें ”मैं न मानूं” की प्रवृति का त्याग करना होगा। तभी सच्चा लोकतन्त्र बन पायेगा। आइये, अपने लोकतन्त्र को हिंसा व घृणा से दूर रखकर इसे जोड़-तोड़तन्त्र बनने से बचायें।
साधुवाद.