खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे

विपिन किशोर सिन्हा

सरकार इतने निम्न स्तर पर आकर अपने विरोधियों के विरुद्ध कार्यवाही करेगी. कल्पना भी नहीं थी। अन्ना हज़ारे के जन आन्दोलन के समक्ष सरकार ने अत्यन्त बेबसी में घुटने टेके अवश्य, लेकिन शर्मनाक पराजय की एक कसक के साथ। तिहाड़ जेल में बन्द करने के बाद अन्ना के रामलीला मैदान में पहुंचने के पूर्व सरकार ने कई बार थूक कर चाटा। अब, जब लोकपाल बिल पर गंभीरता से कार्यवाही करके इसे जन आकांक्षाओं के अनुरूप कानून का रूप देकर अपनी भ्रष्टाचारी छवि से मुक्ति पाने का अवसर उसके पास उपलब्ध है, तो वह खिसियाहट में स्पष्ट दिखाई देनेवाली बदले की घटिया कर्यवाही पर उतर आई है। बाबा रामदेव, बालकृष्ण और अन्ना टीम के सदस्यों के खिलाफ सीबीआई, सीवीसी, इन्कम टैक्स और संसद के दुरुपयोग करने के प्रयास में सरकार ने समस्त नैतिक मूल्यों को तिलांजलि दे दी है। जबतक बाबा रामदेव से कुछ उम्मीद थी उनके लिए लाल कालीन बिछाई जा रही थी – चार-चार केन्द्रीय मन्त्री हवाई अड्डे पर स्वागत के लिए पहुंचते हैं। बात नहीं बनने पर बर्बरता की सीमा पार करते हुए आधी रात के बाद उन्हें गिरफ़्तार कर लिया जाता है, अहिंसक समर्थकों पर लाठी चार्ज किया जाता है। भविष्य में चुप बैठे रहने के लिए सीबीआई और सीवीसी के माध्यम से तरह-तरह के केस कायम कर यह संदेश दिया जाता है कि हमसे टकराने का यही अन्जाम होता है। अन्ना जी को कांग्रेस महाभ्रष्ट घोषित करती है। पासा उलटा पड़ जाने पर माफ़ी भी मांग लेती है। अब बारी आती है अरविन्द केजरीवाल, किरण बेदी और प्रशान्त भूषण की। इन्कम टैक्स विभाग और संसद की विशेषाधिकार समिति के विशेषाधिकारों का सहारा लेकर इन्हें भी मज़ा चखाने का अभियान आरंभ कर दिया गया है।

अगर सरकार यह समझती है कि वह अपने इरादों में कामयाब हो जाएगी और जनता चुपचाप देखती रह जाएगी, तो यह उसका भ्रम है। बाबा रामदेव से पुलिसिया ताकत के बल पर रामलीला मैदान खाली कराने के बाद सरकार के दंभ में आवश्यकता से अधिक वृद्धि हो गई। अन्ना हजारे की १६ अगस्त को गिरफ़्तारी इसी दंभ के कारण की गई। बाबा रामदेव की पैठ तो समाज के निचले तबके तक थी, लेकिन अन्ना को सरकार सिर्फ उच्चवर्ग और मीडिया प्रायोजित नेता मानती थी। सरकार का आकलन सरकार के पास ही धरा रह गया। अन्ना की गिरफ़्तारी के बाद जिस तरह पूरा हिन्दुस्तान सड़क पर उतर आया, वह सरकार के दर्प-दलन के लिए पर्याप्त था। अगर सरकार ने बाबा रामदेव के आन्दोलन को इतने अमाननवीय ढंग से कुचला नहीं होता तो अन्ना को इतना बड़ा जन समर्थन प्राप्त नहीं होता। उच्च दबाव पर गैस टंकी में भरी थी, सेफ़्टी वाल्व आपरेट कर गया।

अगर अरविन्द केजरीवाल ने आयकर चुकाने में हेराफेरी की है, तो आयकर विभाग अबतक आंखें क्यों बंद किए था? बाबा रामदेव ने अगर फ़ेरा का उल्लंघन किया था, तो सरकार उनके आन्दोलन के पहले क्यों चुप थी? बालकृष्ण ने अगर प्रमाण पत्रों में धांधली की थी, तो उनका पासपोर्ट कैसे बन गया? क्या जनता इतनी मूर्ख है कि समान्य कानूनी प्रक्रिया और बदला लेने की प्रक्रिया में अन्तर नहीं समझ सकती? सरकार खुशफ़हमी पाले रहे कि वह इनलोगों को मुकदमों में फंसाकर झुका लेगी। उसे फिर थूककर चाटना पड़ेगा।

किरण बेदी, प्रशान्त भूषण और केजरीवाल पर संसद की अवमानना का ब्रह्मास्त्र चलाया गया है। यह ठीक उसी तरह का मामला है – ककड़ी के चोर को कटारी से काटना। अव्वल तो इन तीनों में से किसी ने संसद की अवमानना नहीं की है, हाँ, सांसदों पर करारा व्यंग्य अवश्य किया था। पीड़ित पक्ष सामान्य न्यायिक प्रक्रिया के तहत अदालत में मानहानि का मुकदमा दायर कर सकता था जहां पहली सुनवाई में ही इसे खारिज हो जाने की प्रबल संभावना थी। अतः संसद का सहारा लिया गया है। लेकिन सरकार और कांग्रेस यह गांठ बांध ले कि सौमित्र सेन और अन्ना में जमीन आसमान का अन्तर है।

संसद सर्वोच्च है, लेकिन सांसद? देश की जनता की याद्दास्त इतनी भी कमजोर नहीं कि वह भूल जाय कि शिबू सोरेन ने करोड़ों रुपए का लेनदेन करके नरसिंहा राव की सरकार को कैसे बचाया था, कैसे जुलाई, २००८ में करोड़ों रुपयों के बंडल विश्वास मत के दौरान लोकसभा में लहराए थे, अमर सिंह एंड कंपनी ने कैसे मनमोहन सरकार को बचाया था। विभिन्न कंपनियों/ फर्मों/व्यक्तियों से धन लेकर संसद में प्रश्न पूछने के संगीन अपराध के लिए इसी संसद को अपने आधे दर्ज़न से अधिक सदस्यों की सदस्यता समाप्त करने पर मज़बूर होना पड़ा था। संसद हमें वाध्य नहीं कर सकती कि विभिन्न घोटालों और भ्रष्टाचार में सिर से पांव तक डूबे राजाओं, लालुओं, मारनों, शिबुओं, चिदंबरमों, सिब्बलों, अमर सिंहों…………………….को विशेषाधिकार समिति के भय से हम जबरन सम्मान दें। टीम अन्ना ने ऐसे सदस्यों पर ही तो टिप्पणी की थी। यूपी का एक पूर्व मन्त्री, आज़म खां भारत माँ को डायन कह सकता है, अरुन्धती राय कश्मीर को एक अलग राष्ट्र बता सकती हैं, करुणानिधि-जयललिता भारत के राष्ट्रपति और सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना करते हुए राजीव गांधी की प्राण-रक्षा के लिए विधान सभा में प्रस्ताव पारित कर सकते हैं, केन्द्र सरकार द्वारा नियुक कश्मीर के वार्ताकार दिलीप पडगांवकर और राधा कुमार पाकिस्तान की कुख्यात खुफ़िया एजेन्सी आईएसआई के एजेण्ट गुलाम नबी फ़ई के आमंत्रण पर वाशिंगटन के सेमिनार में आईएसआई के खर्चे से जाकर पाकिस्तान के पक्ष में खुलकर विचार व्यक्त कर सकते हैं, राष्ट्रविरोधी वक्तव्य दे सकते हैं (सज़ा देने के बदले सरकार ने उन्हें अब भी वार्ताकारों की टीम में बरकरार रखा है) नीरा राडिया स्वतंत्र घूम सकती है, उमर अब्दुल्ला देश के खिलाफ़ ट्विटर पर कुछ भी लिख सकते हैं, कश्मीर के आतंकवादी सरकारी संरक्षण में सरकार की नाक के नीचे, दिल्ली में पाकिस्तान की विदेश मंत्री से मंत्रणा कर सकते हैं, सोनिया के इशारे पर बड़बोले दिग्विजय सिंह किसी का चरित्र-हनन कर सकते हैं, लेकिन भारत की जनता राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के द्वारा बताई गई अहिंसक विधि से भी इनके विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द नहीं कर सकती। यक्ष प्रश्न है – क्या ऐसी सरकार को आनेवाले तीन वर्षों तक सत्ता में रहने का अधिकार प्राप्त है?

सत्ता के मद में अंधी सरकार अपने विरुद्ध चल रहे जन आन्दोलन को कुचलने के लिए चाहे जो भी दमनकारी कार्यवाही कर ले, अब यह तूफ़ान थमने वाला नहीं है। एक अच्छी शुरुआत हो चुकी है। भारत की युवा पीढ़ी व्यवस्था में परिवर्तन चाहती है। ज़िन्दा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करतीं।

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विपिन किशोर सिन्हा
जन्मस्थान - ग्राम-बाल बंगरा, पो.-महाराज गंज, जिला-सिवान,बिहार. वर्तमान पता - लेन नं. ८सी, प्लाट नं. ७८, महामनापुरी, वाराणसी. शिक्षा - बी.टेक इन मेकेनिकल इंजीनियरिंग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय. व्यवसाय - अधिशासी अभियन्ता, उ.प्र.पावर कारपोरेशन लि., वाराणसी. साहित्यिक कृतियां - कहो कौन्तेय, शेष कथित रामकथा, स्मृति, क्या खोया क्या पाया (सभी उपन्यास), फ़ैसला (कहानी संग्रह), राम ने सीता परित्याग कभी किया ही नहीं (शोध पत्र), संदर्भ, अमराई एवं अभिव्यक्ति (कविता संग्रह)

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