गैर-कांग्रेसवाद बनाम भाजपावाद

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-विजय कुमार

बिहार और उससे पूर्व झारखंड का घटनाक्रम देखकर सामान्य व्यक्ति यही निष्कर्ष निकालेगा कि भाजपा केवल और केवल सत्ता की भूखी है। इसीलिए शिबू सोरेन से समर्थन वापसी के बाद भी महीने भर तक फिर सरकार बनाने का नाटक चलता रहा। नीतीश द्वारा अपमान के बाद फिर सुशील मोदी उसकी विश्वास यात्रा में शामिल हो गये। भाजपा उस रीढ़विहीन केंचुए सी हो गयी है, जो कभी आगे चलता है, तो कभी पीछे; और कभी गोलमोल होकर स्वयं को सिकोड़ लेता है।

जहां तक सत्तामुखी होने की बात है, तो राजनीतिक दल होने के नाते भाजपा के कार्यकर्ता भी सत्ता और उससे मिलने वाले लाभ के लिए ही काम करते हैं; पर यह सिक्के का एक पहलू है। इसका दूसरा और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण पहलू है गैर-कांग्रेसवाद, जिसके कारण भाजपा का यह व्यवहार प्राय: दिखाई देता है।

1947 से पूर्व कांग्रेस एक राजनीतिक दल न होकर एक ऐसा मंच था, जिससे जुड़कर सभी विचारों के लोग स्वाधीनता के लिए संघर्ष करते थे। संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार भी नागपुर के सक्रिय कांग्रेस कार्यकर्ता थे। शाखा में तो प्रारम्भ में सब बच्चे ही आते थे; पर जिन बड़े लोगों को डा. हेडगेवार ने संघचालक आदि बनाया, वे सब प्राय: कांग्रेस से भी जुड़े हुए थे। इसलिए देश भर में कांग्रेस का नाम गांव-गांव तक पहुंच गया।

गांधी जी ने इसीलिए स्वाधीनता के बाद कांग्रेस को भंग करने को कहा था, जिससे लोग अपनी-अपनी राजनीतिक विचारधारा के अनुसार दल बनायें और फिर जनता जिसे चुने, वह शासन करे; पर महाशातिर नेहरू के लिए गांधी उस रद्दी अखबार की तरह थे, जिसे चूल्हे पर से बर्तन उतारने के बाद फेंक देते हैं। इसलिए वे कांग्रेस के नाम और उसके झंडे को भुनाते रहे।

कोढ़ में खाज की तरह इस अध्याय में गांधी हत्या का एक पृष्ठ और जुड़ गया। यह देश का दुर्भाग्य था; पर नेहरू का सौभाग्य। उसने इसका उपयोग देश, और विशेषकर उत्तर भारत में तेजी से शक्तिशाली हो रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कुचलने में किया। उन्होंने गांधी हत्या का घृणित आरोप लगाकर संघ को प्रतिबन्धित कर दिया। प्रचार माध्यमों पर दिन-रात झूठ बोलकर जनता के मन में संघ के प्रति घृणा भर दी और इस प्रकार अपने दल और वंश का राजनीतिक मार्ग निष्कंटक कर लिया।

संघ पर से प्रतिबन्ध तो दो वर्ष बाद हट गया; पर उसकी छवि पर जो आंच आयी, उसे साफ होने में 25 वर्ष लग गये। इस बीच डा. मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ की स्थापना की, जिसके कार्य के लिए अटल जी, सुंदरसिंह भंडारी, नानाजी देशमुख आदि संघ के कुछ कार्यकर्ता दिये गये।

नेहरू और शेख अब्दुल्ला ने श्रीनगर जेल में डा. मुखर्जी की चिकित्सकीय हत्या करा दी। इस प्रकार संघ की तरह जनसंघ को भी कुचलने का प्रयास किया गया। उन दिनों सीमित मीडिया के कारण यह बातें देश को मालूम नहीं हो पायीं। नेहरू के वे दस्तावेज सोनिया के निजी कब्जे में हैं। उनके खुलने पर शायद इन षड्यन्त्रों पर कुछ प्रकाश पड़े।

इस सबसे ऐसा वातावरण बन गया कि शासन करने वाला दल और परिवार तो बस एक ही है। बाकी लोग शोर भले ही मचाएं; पर शासन नहीं चला सकते। इसे बदलने को डा. राममनोहर लोहिया ने गैर-कांग्रेसवाद का नारा दिया।

जनसंघ के तत्कालीन संगठन मंत्री नानाजी देशमुख ने 1967 में कांग्रेस से चरणसिंह को तोड़कर पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनवा दी। चरणसिंह मुख्यमंत्री बनने की शर्त पर ही जनसंघ के साथ आये थे। उनके पास केवल 13 विधायक थे, जबकि जनसंघ के पास 98; पर वे मुख्यमंत्री बना दिये गये। इस प्रकार गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर जनसंघ द्वारा दी जाने वाली कुर्बानियों का दौर शुरू हुआ।

1975 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल थोप दिया। संघ पर प्रतिबन्ध, विपक्षी नेताओं को जेल, समाचार पत्रों पर सेंसरशिप, नागरिक अधिकारों का स्थगन, कांग्रेसियों की गुंडागर्दी आदि उसके अन्य पहलू थे। इसके विरुद्ध संघर्ष में 90 प्रतिशत योगदान संघ और जनसंघ वालों का था।

1977 के चुनाव में जनता ने इंदिरा गांधी को धूल चटा दी; पर सबसे अधिक 98 सांसद होते हुए भी शासन में जनसंघ घटक को केवल तीन कैबिनेट मंत्री पद मिले, जबकि मोरारजी, चरणसिंह, जगजीवनराम आदि कांग्रेसी खलीफा फिर ऊंची कुर्सियों पर जा बैठे।

दुर्भाग्यवश यह प्रयोग कांग्रेसियों और समाजवादियों की सत्ता लोलुपता के कारण विफल हो गया। इंदिरा गांधी फिर से सत्ता में आ गयीं। उसका नारा ही था – सत्ता उन्हें दो, जो राज करना जानते हैं। जनसंघ घटक की गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर की गयी कुर्बानी बेकार गयी और अगले 15 साल कांग्रेस फिर दिल्ली में राज करती रही।

विश्वनाथ प्रताप सिंह के काल में मंडल आयोग की संस्तुतियां लागू होने के बाद राज्यों में सत्ता के समीकरण बदले। वहां पिछड़े वर्ग (ओ.बी.सी) के नेता और उनके व्यक्तिगत दल हावी होने लगे। कांग्रेस का वर्चस्व टूटने लगा। इंदिरा और फिर राजीव गांधी की हत्या से विपक्ष और भाजपा को काफी हानि हुई। समाजवादी तथा कांग्रेस से निकले या निकाले गये लोग अपने जेबी दल बनाकर कांग्रेस से सौदेबाजी कर राज्य या केन्द्र में सत्ता सुख भोगने लगे। लालू, मुलायम, ममता, मायावती, अजीत, शरद पवार, फारूख आदि इसके उदाहरण हैं। इस प्रकार गैर-कांग्रेसवाद के आंदोलन को चलाने का पूरा भार भाजपा पर आ गया।

प्रश्न उठता है कि गैर-कांग्रेसवाद का यह विचार मूलत: गलत है या अब अप्रासंगिक हो चुका है? इसके उत्तार के लिए हमें फिर पीछे लौटना होगा।

1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भाजपा को संसद में केवल दो स्थान मिले थे। उस दौर में लालकृष्ण आडवाणी के हाथ में भाजपा की कमान आयी थी। उन्होंने कांग्रेसी रेखा को मिटाने की बजाय भाजपा की रेखा को बड़ा करने पर बल दिया। उन दिनों श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन की धूम थी। आडवाणी ने रथयात्रा के माध्यम से इसे नया मोड़ दिया। इससे आंदोलन को लाभ हुआ या हानि, यह अलग विषय है; पर भाजपा को बहुत लाभ हुआ। वह आगे बढ़ते हुए ससंद में सबसे बड़ा दल बन गयी।

ऐसा होते ही विभिन्न राज्यों के छुटभैये नेता सत्ता की मलाई खाने के लिए कांग्रेस छोड़कर उसके साथ आ जुटे। भाजपा वाले इसे गैर-कांग्रेसवाद समझते रहे, जबकि यह सत्तावाद था।

छह वर्ष दिल्ली में शासन करते समय भाजपा गैर-कांग्रेसवाद के बोझ से दबी रही। उसके मन में बैठ गया कि अपने सिद्धान्तों पर बल देने से गठबंधन टूट जाएगा और कांग्रेस फिर सत्ता में आ जाएगी; पर वे भूल गये कि अपने मूल सिद्धान्तों को छोड़कर तो वे कांग्रेस के ही सेक्यूलर एजेंडे को आगे बढ़ायंगे।

इस प्रकार गैर-कांग्रेसवाद के बैनर पर कांग्रेसवाद ही हावी हो गया। इसलिए अच्छा शासन होने पर भी भाजपा का आम कार्यकर्ता 2004 के चुनाव में मन से नहीं लगा। नेता अति आत्मविश्वास में डूबे रहे और सरकार चली गयी।

ऐसे में जो नेता भाजपा के साथ थे, वे कांग्रेस की गोद में बैठ गये। गैर-कांग्रेसवाद का स्वप्न एक बार फिर धराशायी हो गया। वैसे अब यह मुद्दा निरर्थक है; चूंकि कश्मीर, गोरक्षा, राममंदिर, अंग्रेजी, समान नागरिक कानून, घुसपैठ, पाकिस्तान आदि पर सब दलों का व्यवहार एक सा है।

बिहार की घटनाओं को इसी दृष्टि से देखना चाहिए। नीतीश, लालू, पासवान, शरद यादव.. और कांग्रेस के चेहरों में अंतर हो सकता है; पर विचारों में नहीं। इसलिए जब-जब इनकी शर्तों पर भाजपा सत्ता में रहेगी, तब-तब कांग्रेसवाद और ये लोग आगे बढ़ेंगे, भाजपा नहीं।

बिहार में भाजपा का कार्यकर्ता इस समय बहुत हताश है। यह निश्चित है कि चुनाव में नीतीश पिछली बार की अपेक्षा भाजपा को कम स्थान देंगे। वह नरेन्द्र मोदी या वरुण पर आपत्ति करेंगे और भी कई शर्तें वे लादेंगे। ऐसे में भाजपा की शक्ति विधानसभा में कम ही होगी। यह भी संभावना है कि चुनाव से पूर्व वह नवीन पटनायक की तरह भाजपा से पल्ला छुड़ा ले। यदि नीतीश का दल सबसे बड़े दल के रूप में आ गया, तो कांग्रेस या अन्य दल वाले उससे मिल जाएंगे और गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर भाजपा फिर टापती रह जाएगी।

इसलिए उसे कुछ बातें स्पष्ट कर देनी चाहिए। जैसे दोनों दल आधी-आधी सीट लड़ें और बहुमत मिलने पर इस बार सुशील मोदी मुख्यमंत्री और नीतीश उपमुख्यमंत्री रहें। यदि नीतीश राजी हों, तो ठीक; अन्यथा भाजपा सब सीटें लड़े। इससे नि:संदेह उसकी स्थिति पहले से अच्छी ही होगी।

यदि भाजपा को सत्ता के माध्यम से कुछ सार्थक काम करना है, तो उसे लम्बी दौड़ के घोड़े की तरह गैर-कांग्रेसवाद के बदले नये मुद्दे तलाशकर, हनुमान की तरह अपनी भूली हुई शक्ति को जगाकर फिर भाजपावाद की अलख जगानी होगी। इसी से उसका उद्धार संभव है। बिहार का भावी परिदृश्य यह बताएगा कि उसने अपनी केंचुआवृत्ति छोड़ी है या नहीं?

(लेखक  ‘राष्ट्रधर्म’ मासिक पत्रिका के पूर्व सहायक संपादक हैं)

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