सुरेश हिन्दुस्थानी
भारत की राजनीति में किस प्रकार के उतार चढ़ाव देखने को मिलते हैं, यह कारनामा महाराष्ट्र की राजनीति में देखने को मिला। जहां केवल कुर्सी की खातिर वर्षों की दोस्ती को किनारा कर दिया। वर्तमान में राजनीति का पूरा खेल ही कुर्सी केन्द्रित हो गया है। महाराष्ट्र की राजनीति में चारों प्रमुख दल भारतीय जनता पार्टी, कांगे्रस, शिवसेना और राष्ट्रवादी कांगे्रस पार्टी मुख्यमंत्री पद को अपने पास रखने की कवायद करते हुए सीटों की अधिकतम संख्या अपने पास रखने की जुगत में रहीं। राजनीतिक जानकार भी मानते हैं कि गठबंधन की राजनीति में हमेशा ही यह होता आया है कि जिस दल के विधायकों की अधिक रही उसका ही मुख्यमंत्री बना है।
जहां तक कांगे्रस की बात है तो मेरा मानना है कि कांगे्रस को राष्ट्रवादी कांगे्रस पार्टी की बात को स्वीकार कर ही लेना चाहिए था क्योंकि आज कांगे्रस की जो हालत है, उससे यह कतई उम्मीद नहीं की जा सकती कि उसे जनता सिर आंखों पर ले लेगी। कुछ माह पूर्व ही संपन्न हुए लोकसभा चुनावों में कांगे्रस ने जो दंश भुगता है, राकंापा से गठबंधन टूटना उसकी एक परिणति है। इसके बाद भी कांगे्रस अपने ऊपर गुमान करे, राजनीतिक दृष्टि से यह बात समझ से बाहर है। लेकिन महाराष्ट्र में कांगे्रस ने गुमान किया और शरद पंवार के नियंत्रण वाली राकांपा पर अपना सिक्का जमाने का प्रयास किया, कहना तर्कसंगत होगा कि महाराष्ट्र की राजनीति में शरद पवार एक ऐसा नाम है जिसका स्थानीय स्तर तो कोई मुकाबला नहीं है, इसके अलावा वह केन्द्र की राजनीति में खासा दखल रखते हैं। राजनीतिक समीक्षक भले ही अपना आकलन कुछ भी करें लेकिन यह तय सा लगने लगा है कि कांगे्रस और राकांपा के गठबंधन टूटने से सबसे ज्यादा नुकसान कांगे्रस को ही होने वाला है। जिस कांगे्रस को आज के वातावरण में गठबंधन करने के लिए हाथ बढऩा चाहिए था, वह विधानसभा चुनाव के मार्ग पर अकेले ही कदम बढ़ाने के लिए तैयार हो गई। इसे कांगे्रस की नासमझी कहें या राजनीतिक समझ का अतिरेक, यह तो आने वाला समय ही बता पाएगा।
वर्तमान में कांगे्रस पार्टी में कई वरिष्ठ नेता अपने अस्तित्व की लड़ाई लडऩे के लिए बाध्य हो रहे हैं, वहां राजनीतिक वरिष्ठता सम्मानित किए जाने के योग्य नहीं रही, बल्कि पग पग पर वरिष्ठों को अपमान का घूंट पीने को मजबूर होना पड़ रहा है। तिनके के सहारे को व्याकुल हो रही कांगे्रस पार्टी के समक्ष मौजूदा संकट स्वयं के द्वारा पैदा किया गया एक बहुत बड़ा विभ्रम है, उन्हें कोई रास्ता ही नजर नहीं आ रहा। अगर रास्ता नजर आता तो संभवत: महाराष्ट्र में कांगे्रस ऐसा कदम नहीं उठा सकती। इसी प्रकार राकांपा का अपना तर्क भी सही है कि महाराष्ट्र के गत विधानसभा चुनाव में सीटों के हिसाब से राकांपा को अधिक सफलता मिली थी, इसी प्रकार लोकसभा चुनाव में भी राकांपा ने कांगे्रस के मुकाबले अच्छा प्रदर्शन किया था। राकांपा का यह भी आरोप है कि कांगे्रस ने गठबंधन धर्म का पालन भी नहीं किया, क्योंकि ढाई साल बाद महाराष्ट्र में राकांपा का मुख्यमंत्री बनना था जिसे कांगे्रस ने अस्वीकार कर दिया। कांगे्रस और राकांपा के अलग होकर चुनाव मैदान में जाने से यह तो तय है कि राकांपा एक ताकत बनकर उभर सकती है।
इसी प्रकार भाजपा और शिवसेना की दोस्ती में भी दरार हो गई है। महाराष्ट्र में गत 25 वर्ष के राजनीतिक इतिहास में दो भाइयों की तरह मिलकर विधानसभा चुनाव लडऩे वाले यह दोनों इस बार अलग अलग चुनाव लड़ेंगे। इस गठबंधन के टूटने के कारणों पर गौर किया जाए तो यही कहा जा सकता है कि शिवसेना पहले की ही तरह मुख्यमंत्री पद अपने पास रखना चाह रही है, यहां गौर करने वाली बात तो यह है कि भाजपा ने तो कभी मुख्यमंत्री पद की मांग भी नहीं की, केवल सीट की संख्या को लेकर ही विवाद था। हालांकि भाजपा के अमित शाह ने खुलकर कह दिया कि शिवसेना को 59 सीटों पर पुनर्विचार करना चाहिए। शिवसेना ने भाजपा की बात पर पुनर्विचार तो नहीं किया, उलटे निर्णय सुना दिया कि हम इतनी ही सीटें ही देंगे। अब सवाल यह भी आता है कि क्या गठबंधन धर्म यही कहता है कि सामने वाले के प्रस्ताव पर विचार ही नहीं किया जाए। शिवसेना द्वारा इस प्रकार के अडऩे से यह बात तो उजागर हो ही गई कि उद्धव ठाकरे में न तो राजनीतिक परिपक्वता की समझ है और न ही वे गठबंधन का मतलब ही समझते हैं। जब कोई अधिक सीटों की मांग करे तो उसको बड़ा बनना पड़ता है, बड़ा बनने से तात्पर्य यही होता है कि उसका बड़ा दिल भी होना चाहिए, जिस प्रकार एक घर को संभालकर रखने की जिम्मेदारी बड़े की होती है उसी प्रकार की जिम्मेदारी की भूमिका में शिवसेना को रहना चाहिए, लेकिन शिवसेना ने भाजपा को अपने मन मुताबिक सीट देने की कार्रवाई करके बड़े बनने की भूमिका नहीं निभाई, भाजपा के सीटों के पुनर्विचार करने की मांग को भी शिवसेना ने नहीं माना। इससे यही कहा जा सकता है कि इस गठबंधन के टूटने में शिवसेना का नौसिखियापन ही दोषी है। वैसे शिवसेना ने भाजपा के साथ अपनी सभी संभावनाएं निर्मूल नहीं की हैं, शिवसेना ने केन्द्र के साथ अपना दोस्ताना कायम रखा है।
वर्तमान में महाराष्ट्र की राजनीति में चतुष्कोणीय लड़ाई के आसार बनते हुए दिखाई देने लगे हैं। इस चौतरफा लड़ाई में चारों प्रमुख दल किस परिणाम को प्राप्त होंगे, यह भविष्य की बात है लेकिन जहां तक भाजपा की बात है तो उसे स्थानीय स्तर राज्य सरकार के विरोधी मतों का फायदा मिलने की अधिक संभावना है। केन्द्र में सत्तारूढ़ मोदी सरकार द्वारा चलाए गए कार्यक्रमों की अच्छी झलक जनता के बीच में दिखाई देने लगी है, इसका लाभ भी भाजपा को मिल सकता है। भाजपा और शिवसेना में ऐसा लगता है कि दोनों दल एक दूसरे पर गठबंधन तोडऩे की तौहमत तो लगा सकते हैं लेकिन परस्पर विरोधी बयानबाजी नहीं करेंगे, क्योंकि शिवसेना केन्द्र का हिस्सा बना रहना चाहती है। इसके अलावा कांगे्रस और राकांपा भी एक दूसरे पर विश्वासघात का आरोप लगाने की राजनीति करते हुए नजर आएंगे। इसमें राकांपा के शरद पवार जमीन से जुड़ नेता होने के कारण कांगे्रस को पटखनी देते हुए दिखाई दे सकते हैं।
कोई किसी का नहीं लेकिन फिर भी सब सब के हैं,सिवाय भा ज पा व कांग्रेस के एक दूजे के ,बाकी सब आपस में जूते मारेंगे, जनता को बेवकूफ बनाएंगे, और फिर इन्ही जूतों में एक दूजे को दाल पिलायेंगें ,