”पिट कर नहीं, पीट कर आओ, लोगों को घेर कर मारो”

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गिरीश पंकज

”पिट कर नहीं, पीट कर आओ, लोगों को घेर कर मारो” . यह ”महान” प्रेरक वाक्य किसी तानाशाह का नहीं, लोकशाही के एक प्रतिनिधि का है,. एक राज्य के गृह मंत्री का. जिस जनता के वोट से ये महोदय मंत्री बने, उसी जनता को पीटने की बात कह रहे हैं? पुलिस को पाठ पढ़ा रहे है. मीडिया के माध्यम से ऐसे ही एक मंत्री का चेहरा सामने आ गया, तब सामान्य लोगों को भी शायद समझ में आया हो कि कैसे हमारे मंत्री पुलिस का इस्तेमाल करते हैं. आजादी के बाद से हमारी पुलिस यही काम करती आ रही है. हमारे चालाक, पाखंडी जन प्रतिनिधि चुनाव लड़ने तक तो लोकतंत्र की बात करते हैं, मगर सत्ता में आते ही, वे सामंती मिजाज़ के हो जाते हैं. उनमें शासक का खून दौड़ाने लगता है. यही कारण है कि जबजानता किसी मामले को लेकर प्रदर्शन करती है, तो उसका बुरी तरह दमन किया जाता है. आन्दोलन को तोड़ने की कोशिश होती है. अपना चेहरा सुधारने की बजाय दर्पण को तोड़ने की कोशिश होती है.

 

आज़ादी के बाद से लगातार पुलिस को सुधारने की बातें होती रही हैं. लेकिन राजनीति में जो विपक्ष में होता है, केवल वही पुलिस की थोड़ी-बहुत आलोचना करता है. सत्ता के लोग तो पुलिस के ही साथ होते है. इसीलिये तो गृह मंत्री पुलिस से कहता है ”जनता को घेर कर मारो-पीटो”. किसी मंत्री का ऐसा बयान आ जाये, और वह फिर भी अपने पद पर बना रहे? इसी से सत्ता के चरित्र को समझा जा सकता है. सबके सब यही चाहते हैं, जनता को दबा कर रखा जाये, उसे तोड़ दिया जाये,. यह सोच खतरनाक है. लोकतंत्र के लिये नुकसान देह है. पुलिस को जनता की सुरक्षा के लिये होना चाहिए, न कि उसे घेर कर पीटने के लिये. लेकिन अब ऐसा ही हो रहा है. आये दिन अखबारों में, चैनलों के मध्य से पुलिस का बर्बर चेहरा सामने आता रहता है. दरअसल पुलिस को निरंकुश बनाने का काम सत्ता ही करती है. पुलिस की मज़बूरी है कि वह राज्य के अधीन रहती है. उसे सत्ता का आदेश मानना पड़ता है. उसका अपना कोई दिमाग नहीं होता. उसके हाथ में केवल लाठी या बन्दूक होती है. आदेश मिलते ही पुलिस सिर फोड़ती है, या छातियाँ छलनी करती है. सरकारें उन लोगों पर पुलिस का खौफनाक इस्तेमाल करती है, जिनके प्रतिनिधि जनता के बीच से चुन कर आते हैं. वे भी जनमानस की तरह कुछ समय पहले पुलिस को झेल चुके होते हैं. लेकिन जैसे ही राजधानी पहुंचते हैं, सत्ता के रथ पर सवार हो जाते हैं, चरित्र ही बदल जाता है. अपने भाई-बन्धु ही उन्हें दुश्मन लगने लगाते हैं. सहिष्णुता को भूल कर निर्मम हो जाते हैं, और अपने हक़ के लिये आन्दोलन करने वालों को अपना शत्रु समझ कर उनके दमन का खेल खेलने लगाते हैं. इसलिये कई बार लोग यह कहते हैं कि अब समय आ गया है कि हम सब नए सिरे से पुलिसिया तंत्र पर विचार कारें. हमारे जनप्रतिनिधि भी अपने आपको सुधारे, वरना वह दिन दूर नहीं, जब सामंती आचरण का प्रदर्शन करने वाले जनप्रतिनिधि जनता के गुस्से का शिकार हो जायेंगे.

 

पुलिस को जनता के खिलाफ भड़काने की बजाय उसे समझाना चाहिए कि जनता के साथ शालीनता और धैर्य के साथ व्यवहार करना चाहिए. पुलिस वाले डंडे ही चलायें, यह लोकशाही में कैसे संभव हो पाता है? पुलिस डंडागीरी की बजाय गांधीगीरी भी तो कर सकती है. जनता को समझ-बुझा कर नियंत्रित किया जा सकता है, मगर बहुतों का यही अनुभव है कि पुलिस पहले अपने भड़काऊ व्यवहार से लोगों को उत्तेजित करती है, फिर उसको इसलिये पीटती है कि जनता भड़क चुकी थी, वह हिंसक हो सकती थी. पुलिस को भड़काने के लिये बाध्य करने का काम सत्ता में बैठे मंत्री करते है. अगर वे निर्देश दें तो पुलिस बिना डंडे के भी जा कर व्यवस्था बनाया सकती है. वर्दी का खौफ पर्याप्त होता है. जून में रामदेव बाबा के भक्तों का पुलिस ने दिल्ली के इशारे पर ही दमन किया था. उस दमन की शिकार राजबाला नामक महिला ने दो दिन पहले दम तोड़ दिया. जून में पुलिसिया दमन के बाद जब देश भर में सरकार की किरकिरी हुई तो अन्ना हजारे के आन्दोलन के समय पुलिस रामलीला मैदान में निहत्थी नज़र आई. मतलब यह कि सरकार चाहे तो पुलिस को बघनखा पहना दे, चाहे तो बघनखा उतार ले, हमारी सरकारें पुलिस को बघनखा पहना कर हिंसक बना देती है . यह शर्मनाक है. अब समय आ गया है कि सत्ता में बैठे मंत्री, खास कर गृहमंत्री अपने को आकाश से उतरा कोई प्राणी समझने की बजाय जनता का सेवक ही समझे, और मनुष्यों जैसा व्यवहार करे. जनता को घेर कर पीटने का आदेश जारी करने की बजाय जनता की सुरक्षा की बात करे. वरना यह न भूलें कि सत्ता से विदाई का समय कभी भी आ सकता है, तब जनता ऐसी ”पिटाई’ (वोट) करती है कि जमानत भी नहीं बच पाती. हमारे नेता नायक बनें , खलनायक नहीं. खलानायको का अंत क्या होता है, यह कहने की ज़रुरत नहीं.सब जानते हैं.

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