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महज कानून बनाने से नहीं रूकने वाला महिला उत्पीड़न

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लिमटी खरे

पुरानी कहावत है -‘‘. . ., गंवार, पशु और नारी, ये सब हैं ताड़न के अधिकारी।‘‘ इसमें नारी को शामिल किया गया है। एक तरफ तो नारी को माता का दर्जा देकर सबसे उपर रखा गया है, वहीं दूसरी ओर नारी को ही प्रताड़ना का अधिकारी बताया जाना कहां तक न्यायसंगत है। नारी के जिस स्वरूप को मनुष्य द्वारा मां के रूप में पूजा जाता है, वही नारी आखिर पत्नि या बहू के तौर पर प्रताडि़त करने की वस्तु क्यों बन जाती है।

सालों पहले एक पत्रकार द्वारा लिखा गया था -‘हमारे घरों की मां बहने जब सड़क पर निकला करती हैं तो वे दूसरों के लिए माल बन जाया करती हैं।‘ उस बात मे वाकई दम है। हमारा समाज अपने घरों की महिलाओं को छोड़कर जब दूसरे घरों की महिलाओं को देखता है तो मन में लड्डू फूटने लगते हैं मुंह से सीटी और सिसकारियां निकल जाती हैं, मन में कलुषित भावनाएं कुलाचें मारने लगती हैं।

भारत गणराज्य में नारियों की अस्मत को बचाने के लिए कानूनों की कमी नहीं है। हाल ही में राजस्थान सरकार द्वारा महिलाओं पर होने वाले अत्याचार रोकने के लिए कड़े कानून बनाने के लिए कुछ प्रावधान किए हैं, जिनका स्वागत होना चाहिए। वर्तमान परिदृश्य में चहुं ओर महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों की कमी नहीं है। कहीं दहेज के लिए बहू को जलाया जा रहा है, तो कहीं युवतियों तो छोडि़ए अबोध बालाओं का शील भंग किया जा रहा है, कहीं सरेआम रेल गाड़ी से महिला को फेंक दिया जाता है।

एसा नहीं है कि भारत गणराज्य में महिलाओं को सुरक्षित रखने के लिए कानूनों की कमी है। महिलाओं के हितों के लिए काननू अवश्य हैं किन्तु उनमें इतनी पोल हैं कि अपराधी सीखचों के पीछे जाने से सदा ही बच जाते हैं। देश के कमोबेश हर प्रदेश में महिलाएंे सुरक्षित नहीं कही जा सकती हैं। देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली जहां पर कि खुद एक महिला तीसरी बार निजाम बनी हैं, उसी शीला दीक्षित के राज में महिलाओं की रोज होने वाली दुर्गत किसी से छिपी नहीं है।

देश भर में कार्य स्थलों में महिलाओं का यौन उत्पीड़न किसी से छिपा नहीं है। खुद मीडिया में ही महिलाओं की स्थिति क्या है यह बात सभी बेहतर जानते हैं। कहीं महिलाओं से बेगार करवाया जाता है, तो कहीं पुलिस थाने में ही महिला की अस्मत लूट ली जाती है, चैक चैराहों, मदिरालयों के इर्द गिर्द से गुजरने वाली महिलाओं को अश्लील फब्तियां कसी जाती हैं। कार्यालय में बाॅस अपनी महिला कर्मी को लांग ड्राईव पर ले जाने ख्वाईशमंद हुआ करते हैं। आजकल कार्पोरेट जगत में महिलाओं के योन उत्पीड़न के शब्दकोश में एक नया शब्द जुड गया है वह है ‘कापरेट करना‘ जिसका अर्थ अपने सीनियर्स की मनमानी को खामोश रहकर सहते हुए कापरेट करने से जोड़कर देखा जाता है।

राजस्थान सरकार ने वाकई एक नायाब पहल की है। उम्मीद की जानी चाहिए कि महिलाओं के हितों के संवर्धन के लिए राजस्थान सरकार के प्रयास निश्चित तौर पर नजीर बनकर उभरेंगें। कहने को तो मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने अपने आप को सूबे के हर बच्चे का मामा घोषित किया है। अर्थात सबे की हर मां उनकी बहन है, किन्तु क्या शिवराज सिंह चैहान राजनैतिक चश्मा उतारकर सीने पर हाथ रखकर यह कहने का साहस कर पाएंगे कि उनके राज में महिलाएं सुरक्षित हैं, जवाब निश्चित तौर पर नकारात्मक ही होगा।

भारत अघोषित तौर पर पुरूष प्रधान देश माना जाता रहा है जहां पुरूषों का काम आजीविका कमाकर लाना और महिलाआंे का काम दो वक्त की रोटी बनाकर घर के काम काज करने के साथ ही साथ बच्चे पैदा करने की मशीन के तौर पर काम करने तक ही सीमित था। आधुनिकता के दौर में महिलाओं ने घरों की चैखट लांघ दी है। महिलाएं आज पुरूषों के कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं। एक तरफ तो सभ्य समाज होने का हम दंभ भरते हैं, वहीं दूसरी ओर महिलाओं को प्रताडि़त कर इसी सभ्य समाज के पुरूष गौरवांवित हुए बिना नहीं रहते हैं।

इस देश की इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि जिस देश की महामहिम राष्ट्रपति श्रीमति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी, लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष श्रीमति सुषमा स्वराज हों उस देश में महिलाओं को अपने आप को सुरक्षित रखने के तरीके तलाशने पड़ रहे हों। जहां महिलाएं ही सर्वोच्च पदों पर आसीन हों वहां भी महिलाएं असुरक्षित हों तो निश्चित तौर पर व्यवस्था में कहीं न कहीं दीमक अवश्य ही लगा हुआ है।

राजस्थान सरकार ने कानून बनाने के प्रावधानों की पहल करके एक नई सुबह का आगाज किया है। ध्यान इस बात का रखा जाना चाहिए कि कानून बनकर एसे कानून की किताबों के सफांे पर ही कैद होकर न रह जाएं। इन्हें व्यवहारिक तौर पर लागू करना सुनिश्चित करना होगा। इसमें आवश्यक है कि कानून का पालन न करने वाले जिम्मेदार नौकरशाहों और कर्मचारियों को भी सजा के दायरे में लाना जरूरी है।

केंद्र सरकार को चाहिए कि इस संवेदनशील और गंभीर मसले पर राज्यों के साथ वह सर जोड़कर बैठे और महिलाओं की सुरक्षा के लिए कोई ठोस कार्ययोजना तैयार करे। इसके लिए इस बात को ध्यान में रखा जाना नितांत जरूरी है कि कानून एसे हों जिनका उल्लंघन करने पर व्यक्ति को समझ में आ जाए कि आखिर उसने कितना बड़ा जुर्म किया है। इससे और लोगों को नसीहत भी मिल सकेगी। इसके लिए मीडिया की भी यह जवाबदेही बनती है कि वह भी इस तरह सजा वाली खबरों को प्रमुखता से जनता के सामने लाए और महिलाओं का उत्पीड़न करने का मानस बनाने वालों के हौसले पस्त करे।

दहेज प्रताड़ना, हरिजन आदिवासी कानून की आड़ में निर्दोष लोगों को प्रताडि़त करने की खबरें मिला करती हैं। इसके लिए यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि महिलाओं को प्रताडि़त करने से बचाने के लिए बनने वाले कानूनों में यह प्रावधान भी किया जाए कि कोई महिला या उसके परिजन द्वारा इस कानून का बेजा इस्तेमाल न किया जा सके। हमारी राय में यही इकलौता रास्ता होगा जिसके जरिए महिलाओं को उत्पीड़न से बचाया जा सकता है।

 

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लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

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