रामबिहारी सिंह
मध्यप्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा सरकार भले किसानों को खुशहाल और खेती को लाभ का धंधा बनाने की अपनी पुरानी रट दोहराते नहीं थकती, किन्तु यहां स्थिति इसके विपरीत है। मध्यप्रदेश के किसानों की हालत अन्य राज्य के किसानों की अपेक्षा अत्यंत दयनीय है। हालात यह हैं कि गरीबी और कर्ज के बोझ से परेशान किसानों की आत्महत्याओं का दौर थमने का नाम नहीं ले रहा है। हाल ही में दमोह जिले के ग्राम कुलुआ निवासी नंदराम रैकवार ने फसल नष्ट होने से आत्मदाह कर लिया। होशंगाबाद जिले के बनखेड़ी विकासखंड के कुर्सीढाना गांव में किसान अमान सिंह ने जहरीली दवा पीकर आत्महत्या कर ली, उस पर बैंक का लगभग एक लाख कर्ज था। वहीं कर्ज के बोझ से परेशान एक और किसान मिथिलेश ने मौत को गले लगा लिया। उधार रीवा जिले के घोपकरा गांव में अमरनाथ मिश्रा ने बिजली बिल न चुका पाने पर अधिकारियों द्वारा जेल भेजने की धामकी से आत्महत्या कर ली। छतरपुर के दरगुवां गांव के किसान कल्लू खां ने कर्ज वसूली के डर से तो खरगौन जिले के सुरपाला गांव के किसान ने बिजली बिल और कर्ज न चुका पाने से दुखी होकर आत्महत्या कर ली। ऐसे सैकड़ों मामले हैं पर सरकार इन्हें उजागर नहीं करना चाहती। इस तरह से वर्ष 2010 में अब तक करीब एक हजार से अधिक किसानों ने आत्महत्या कर अपनी जान गंवा चुके हैं। और अन्नदाताओं की आत्महत्यों का यह दौर अनवरत जारी है।
मध्य प्रदेश में किसान आए दिन मौत को गले लगा रहे हैं, लेकिन सरकार इस तथ्य को छिपाना चाहती है, फिर भी सच एक न एक दिन सामने आ ही जाता है। हालांकि सरकार ने कुछ किसानों की आत्महत्या की घटनाओं के बारे में विधानसभा में जानकारी दी है, जिसके तहत सरकार ने स्वीकार किया है कि मुरैना, भिंड, श्योपुर और दतिया जिलों में गरीबी के कारण 13 मजदूरों और किसानों ने आत्महत्या की है। उधार नेशनल क्राइम ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट पर गौर किया जाये तो देश में हर साल हजारों की संख्या में किसान आत्महत्या कर रहे हैं। देशभर में वर्ष 2008 में जहां 18196 किसानों ने आत्महत्या की वहीं 2009 में बढ़कर यह संख्या 17368 तक पहुंच गई है। इसमें प्रतिवर्ष मौत को गले लगाने वालों किसानों में 66 फीसदी मधयप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश और छत्तीसगढ़ से हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार मधयप्रदेश में वर्ष 2009 में करीब 1500 किसानों ने आत्महत्या की, जबकि वर्ष 2008 में 1509 अन्नदाताओं ने मौत को गले लगाया। इसी तरह वर्ष 2007 में 1263, वर्ष 2006 में 1375, वर्ष 2005 में 1248 और वर्ष 2004 में 1638 किसानों ने आत्महत्या की। मध्यप्रदेश में किसानों की आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण कर्ज है। इसके साथ ही बिजली संकट, सिंचाई के लिए पानी, खाद, बीज, कीटनाशकों की उपलब्धाता में कमी और मौसमी प्रकोप भी जिम्मेदार है, जिससे कृषि क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हो रहा है और किसान आत्महत्या को मजबूर है। खेती पर निर्भर किसानों को अपनी उपज का उचित मूल्य भी न मिलना शामिल है, जिससे वह कर्ज के बोझ में दबता चला जाता है।
एक ओर प्रदेश सरकार खेती को जहां लाभ का धंधा बनाने का राग अलापती नहीं थक रही है वहीं सरकार द्वारा किसान कल्याण व कृषि संवर्धन के लिए चलाई जा रही योजनाओं में राजनीतिक भेदभाव और भ्रष्टाचार से किसानों को सरकार की प्रोत्साहनकारी और रियायती योजनाओं का लाभ भी नहीं मिल पा रहा है। प्रदेश में किसानों की हालत इस कदर बदहाल है कि कई सहकारी संस्थाओं ने किसानों को घटिया खाद-बीज के साथ ही कीटनाशकों की आपूर्ति कर किसानों को बेवजह कर्जदार बना दिया है तो वहीं खराब खाद-बीज और दवाइयों के कारण फसल भी चौपट हो गई, पर इंतहा तो तब हो गई जब प्रदेश के पीड़ित किसानों को सरकार भी न्याय दिलाने में असफल रही। हालांकि केंद्र सरकार ने कुछ ऋणग्रस्त किसानों के कर्ज माफ कर दिए और इसके लिए राज्य सरकार को प्रतिपूर्ति भी की, किन्तु मध्यप्रदेश में सहकारी संस्थाओं में घोटालों के कारण करीब 115 करोड़ रुपए के कृषि ऋण माफ नहीं हो पाए। मधयप्रदेश में करीब 32 लाख 11 हजार से अधिाक किसान आज भी ऋणग्रस्त हैं। प्रदेश में औसतन हर किसान पर 14 हजार 218 रुपए के कर्ज का बोझ है, जबकि मधयप्रदेश में तकरीबन 30 फीसदी से अधिक किसान ऐसे हैं, जिनके पास महज एक से तीन हेक्टेयर तक ही कृषि योज्य भूमि है। यह तो महज सरकारी आंकड़े हैं, जबकि प्रदेश में किसानों पर साहूकारों और बड़े व्यापारियों का कर्ज भी किसानों को चौन से रहने नहीं दे रहा है।
मध्यप्रदेश विद्युत मंडल और उसकी सहायक बिजली कंपनियों की वित्तीय स्थिति खराब है। भारी घाटा सह रहीं बिजली कंपनियों को विद्युत मंडल ने अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने की हिदायत दे रखी है। ऐसे में बिजली कंपनियों ने बकायादारों से विद्युत शुल्क वसूली को लेकर सख्त हैं। मधयप्रदेश में कार्यरत तीनों विद्युत वितरण कंपनियों को प्रदेश के किसानों से तकरीबन 5 अरब रुपए वसूलना है। हालांकि प्रदेश सरकार के हस्तक्षेप से इसकी वसूली अभी नहीं हो सकी, पर देर-सबेर जब किसानों से यह वसूली होगी तो किसानों की आर्थिक स्थिति और डावाडोल होगी और वह कर्ज के तले और दबते जाएंगे। उधार केंद्र की किसान राहत योजना की अवधि बढ़ाकर 30 अप्रैल 2010 किये जाने के बाद वसूली पर फिलहाल स्थगित सी थी, किन्तु अप्रैल के बाद रबी और अब खरीफ की फसल ले चुके किसानों के पास इन कंपनियों ने दस्तक देना शुरू कर दिया है। ऐसे में करीब साढ़े तीन लाख किसानों पर स्थगित वसूली एक बार फिर शुरू हो गई है। प्रदेश सरकार मधयप्रदेश से बिजली संकट को भी दूर करने में नाकाम रही है। ऐसे में प्रदेश के किसानों को आज भी बमुश्किल 8 से 10 घंटे ही बिजली मिल पा रही है।
प्रकृति की मार से बेहाल किसान विद्युत वितरण कंपनियों की अंधोरगर्दी से भी दहशतजदा हैं। इसका नमूना प्रदेश के कृषि प्रधान हरदा जिले में देखने को मिला, जहां के ग्राम दुगवाड़ा में करीब 200 मकानों वाले आदिवासी बहुल गांव में विगत दस वर्षों से बिजली नहीं है, लेकिन यहां पर ग्रामीणों को प्रतिमाह बिजली वितरण कंपनियों से बिजली के बिल मिल रहे हैं। बिजली न होने से ग्रामीणों द्वारा बिजली बिल का भुगतान भी नहीं किया गया। ऐसे में बिजली कंपनी ने इनको वसूली के नोटिस थमा दिया, जबकि कांग्रेस सरकार ने दस वर्ष पूर्व अपने कार्यकाल के दौरान ग्रामीणों को एकबत्ती कनेक्शन योजना के तहत गांवों में बिजली उपलब्धा कराई थी और आदिवासियों के बिल माफ किये थे, लेकिन बाद में बिजली संकट के कारण इन गांवों की बिजली काट दी गई और बकाया बिल की वसूली के लिए नोटिस थमा दिए गए। ऐसे में इन बेसहारा और गरीब किसानों के पास आत्महत्या के सिवाय कोई दूसरा चारा भी नहीं है।