प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश मे #नोटबंदी क्या लागू की एक साथ कई कई प्र्त्यक्ष और अप्रत्यक्ष मोर्चे एक साथ जीत लिए। प्र्त्यक्ष तो वह जो सारे के सारे अर्थशास्त्री कह रहे हैं और जो अब देश की जनता को भी प्रत्यक्षतः लाभ दिख रहे हैं और अप्रत्यक्ष जीत वह जो मोदी को विपक्षपर हासिल हुई है। देश मे विपक्षी दल तो जैसे लकवा ग्रस्त भी हुये और गूंगे भी हो गए हैं, पीड़ा अतीव हो रही है किन्तु कह भी नहीं पा रहेहैं।
#नोटबंदी के विरुद्ध #ममता ने जैसी हड़बड़ाहट भरी दौड़ लगाई और असभ्य भाषा का उपयोग किया वह उनका एक नया प्रदर्शन था। उधर सभी विपक्षी दल आपस मे बंटे हुये दिखाई दिये। कोलकाता में ममता ने रैली निकाली लेकिन वो वाम दलों के बंद में शामिल नहीं हुईं।इसी तरह कांग्रेस ने भी खुद को विरोध प्रदर्शन तक ही सीमित रखा। जदयु और बीजेडी तो सड़क पर उतरी ही नहीं। कांग्रेस तो बंद का आव्हान करकेजैसे चक्रव्यूह मे फंस गई। भारत बंद के नारे का 28 तारीख के पहले जनता की ओर से ऐसा विरोध दिखा कि कांग्रेस और सभी विपक्षी दलभारत बंद के स्थान पर आक्रोश प्रदर्शन का आव्हान करते दिखलाई दिये। भारत बंद का सोशल मीडिया पर जो विरोध दिखलाई दिया औरजिस प्रकार उसका असर हुआ वह हालिया वर्षों मे राजनीति की ऐसी घटना है जिससे सभी राजनैतिक दल दीर्घकाल तक सीख लेते दिखाईपड़ेंगे। इससे समूचा विपक्ष जहां बिखरा हुआ दिखाई दिया वहीं भाजपा को विपक्ष की भूमिका पर प्रश्न उठाने का अवसर भी मिल गया। स्पष्टत:ऐसा वातावरण बन गया कि सारे विपक्षी दल लाचार और पंगु हो गए हैं। हाँ बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार अवश्य प्रारम्भ से ही चतुराईपूर्ण राजनीतिज्ञ बने रहे उन्होने समय को भाँपा और विमुद्रीकरण के पक्ष मे मुखर होकर खड़े हो गए। नितीश यह भूमिका आश्चर्यजनक रूप सेतब भी निभाते रहे जब उनकी सरकार के गठजोड़ के नेता लालू यादव और उनकी स्वयं की जदयु के संयोजक शरद यादव नोटबंदी के विरोधमे संसद से लेकर सड़क तक सक्रिय दिखाई दे रहे थे।
हास्यास्पद स्थिति तब हो गई जब बंगाल की मुख्यमंत्री #ममताबनर्जी नोटबंदी पर नरेंद्र मोदी को भारतीय राजनीति से बाहर करनेके संकल्प का ऐलान करती दिखाई दी। उधर पश्चिम बंगाल में लेफ्ट भी बंद की राजनीति करता दिखाई दिया किन्तु अपने खासे प्रभाव के बादभी पश्चिम बंगाल मे बंद का असर नहीं दिया। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल इस बंद और विरोध में शामिल नहीं हुई।
उधर संसद मे भी विपक्ष तीन तेरह की मुद्रा मे ही दिखा और ऐसा स्पष्ट आभास हुआ कि विपक्ष के पास विरोध का कोईरोडमैप नहीं है बल्कि वह सतही नीतियों के साथ केवल विरोध के लिए विरोध की राह पर चल रहा है। विपक्ष के किसी भी नेता ने अपने पासन तो कोई नीति होने का आभास कराया न ही कोई नेता किसी व्यवस्थित योजना या सुझाव को प्रस्तुत करता दिखा। संक्षेप मे कहें तो सभीविपक्षी दल केवल मूंह की राजनीति करते दिखाई दिये। संसदीय सत्र का लगभग प्रारम्भिक पखवाड़ा हंगामे मे निकल गया और विपक्ष केवलप्रधानमंत्री के संसद मे बैठने और उनके बयान की बाते करता दिखाई दिया। समूचा विपक्ष जहां एक ओर नोटबंदी का विरोध करता दिखाईदिया तो दूसरी ओर वह इस बात का भरसक प्रयास करता भी दिखाई दिया कि उसकी छवि कालेधन और भ्रष्टाचार के हितैषी की न बनजाये। इन दो विरोधाभासी पाटों के मध्य फंसा विपक्ष अपनी किसी भी बात को जनता के समक्ष सफाई से नहीं रख पाया। जनता को दैनिकजीवन मे नोटों की कमी से और बैंकों के सामने लगी लाइनों की बाते बताने के अलावा विपक्ष कुछ अन्य न करता दिखलाई दिया। जनता कोहोने वाली परेशानियों को ढाल बनाया गया। नितीश लालू से अलग दिखाई दिये, ममता लेफ्ट के बंद से अलग दिखलाई दी, मायावती भारत बंदसे अलग दिखाई दी, समाजवादी अलग ही बीन बजाते दिखाई दिये तो केजरीवाल अपनी अलग रोटियाँ सेकते नजर आए, इस प्रकार विपक्षअलग अलग दिखाई दिया। भारत बंद घोर विफलता का शिकार हुआ और विपक्ष की भद्द पिट गई। इस पूरे घटनाक्रम मे भाजपा बेहद लाभकी स्थिति मे दिखलाई दी और उसका मनोबल और ऊंचा दर ऊंचा होता चला गया।
एक बात जो इस देश की राजनीति मे नई दिखाई दी वह भारत बंद से जुड़ी हुई है। सामान्यतः किसी भी प्रकार के बंद केआव्हान से सामान्य व्यापारी वर्ग तुरंत बंद के समर्थन मे आ जाता है क्योंकि वह किसी भी प्रकार के झमेले मे नहीं पड़ना चाहता और पथरावआदि के भी से वह दुकान खोलना ही नहीं चाहता। सामान्य जनता दंगे फसाद व आवागमन के साधन न मिलने के भय से न तो स्वयं घर सेनिकलते है और न ही अपने बच्चों को स्कूल भेजना पसन्द करते हैं। किन्तु 28 नव. के भारत बंद के दिन तो स्थिति पहली बार विपरीत दिखाईदी। बसों, ट्रेनों, दुकानों, बाज़ारों मे भीड़ सामान्य दिनों से अधिक दिखलाई दी। ऐसा आभास हो रहा था जैसे सामान्य जनता और व्यापारी वर्गनोटबंदी के समर्थन मे खड़े दिखना चाहते हो। सामान्य जनता ने भारत बंद के दिन यह स्पष्ट प्रदर्शित किया कि लोग चाहते हैं कि यदि कोईकदम उठाया गया है, तो उसे थोड़ा समय दिया जाना चाहिए।
भारतीय राजनीति मे ऐसा अवसर संभवतः कम ही दिखाई दिया होगा जब समूचे विपक्ष मे इस बात की होड़ लग गई किभारत बंद की योजना आरोप कौन दूसरे पर पहले लगाता है। अब इस मसले पर पार्टियों के बीच घमासान छिड़ा है और सभी पार्टियां अपने को इससे अलग कर रही हैं। कांग्रेस ने सबसे पहले पल्ला झाड़ लिया। कांग्रेस ने कहा है कि वह भारत बंद के साथ नहीं थी। सारांश यह कि भारतीयराजनीति मे अब भाजपा के विरोध हेतु सभी दलों का एक होना अब उनकी मजबूरी बन गई है साथ ही साथ भाजपा अब उस भूमिका मे आगई है जहां कभी कांग्रेस पार्टी खड़ी रहा करती थी। एक और निष्कर्ष यह कि प्रधानमंत्री पद की दौड़ मे लगे नेताओं के क्लब मे एक नई नेत्रीसम्मिलित हो गई है और वह है ममता बनर्जी!!
इस से सबसे अधिक आहत लगते हैं – लालू परिवार, मुलायम सिंह परिवार, ममता और माया –