प्रधानमंत्री की नौतिक शुचिता पर आंच
प्रमोद भार्गव
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और संयुक्त प्र्रगतिशील गठबंधन की सरकार की नैतिक शुचिता पर आंच तो उसी दिन आ गई थी जब उसने 22 जुलाई 2008 को लोकसभा में विश्वास मत हासिल किया था। यह स्थिति अमेरिका के साथ गैरसैन्य परमाणु सहयोग समझौते के विरोध में वामपंथी दलों द्वारा मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापिसी के कारण निर्मित हुई थी। वामदलों के अलग हो जाने के बावजूद सरकार का वजूद कायम रहा, क्योंकि उसने बड़े पैमाने पर नोट के बदले सांसदों के वोट खरीदे थे। पहले अमर सिंह के करीबी संजीव सक्सेना और अब सुहैल हिन्दुस्तानी की गिरफ्तारी के बाद आए बयानों ने जाहिर कर दिया है कि सरकार बचाने के लिए वोटों को खरीदने का इशारा शीर्ष नेतृत्व की ओर से था। क्योंकि सुहैल ने अमरसिंह के साथ सोनिया के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल का भी नाम लिया है। हालांकि सांसदों की खरीदफरोक्त की तसदीक तो भाजपा के तीन सांसद अशोक अर्गल, फग्गनसिंह कुलस्ते और महावीर भगोरा ने लोकसभा में एकएक हजार के नोटों की गड़डियां लहरा कर दी थी, जब इन्होंने कांग्रेस पर अपने पक्ष में मतदान करने के लिए घूस देने का आरोप लगाया था। विकीलीक्स ने भी उसी वक्त इस खरीद फरोक्त का खुलासा किया था। नतीजतन राज्यसभा में हंगामा खड़ा करते हुए प्रधानमंत्री से इस्तीफा भी मांगा गया। लेकिन वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने कुटिल चतुराई से यह कहते हुए हालात पर काबू पा लिया था कि एक संप्रभू सरकार और उसके विदेश में स्थित मिशन के बीच हुई बातचीत की न तो पुष्टि की जा सकती है और न ही इससे इंकार किया जा सकता है। मसलन वोट खरीदे भी जा सकते हैं और नहीं भी ?
जब राजनीति का मकसद ऐनकेन प्रकारेण सत्ता पर काबिज बने रहने और जायजनाजायज तरीकों से धन कमाने का हो जाए, तब सवाल संसद में प्रश्न पूछने का हो अथवा विश्वास मत के दौरान मत हासिल करने का, राष्ट्र और जनहित गौण हो जाते हैं। प्रजातंत्र के मंदिरों में जो परिदृश्य दिखाई दे रहे हैं, उनसे तो यही जाहिर होता है कि राष्ट्रीय हित अनैतिक आचरण और बाजारवाद की महिमा ब़ाने में समर्पित किए जा रहे हैं। पीवी नरसिम्हाराव की अल्पमत सरकार से लेकर विश्वास मत के जरिए मनमोहन सिंह सरकार को बचाए जाने तक सांसदों का मोलभाव होता है, यह अवधारणा मजबूत होती चली जा रही है। गैर राजनीतिकों का सत्ता में दखल और दलाल संस्कृति ऐसे ही प्रबंधकीय कौशल के नतीजे हैं।
अल्पमत सरकारों को सांसदों की खरीदफरोक्त की सौदेबाजी के जरिए बचाए जाने का सिलसिला 1991 में शुरू हुआ था। तब शिबू सोरेन समेत झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के चार सांसदों को पैसा देकर खरीदा गया था। अल्पमत सरकार इस सौदेबाजी से बहुमत में आ गई थी लेकिन मामला उजागर हो जाने से संसद की गरिमा और सांसदों की ईमानदारी को आघात पहुंचा। बाद में प्रधानमंत्री राव समेत सांसदों पर भी मामला चला। किंतु संसद के विशेषधिकार के दायरे में इस राजनीतिक कदाचरण के आ जाने के कारण न्यायालय ने तब लाचारी प्रकट कर दी थी। सर्वोच्य न्यायालय ने कथित आरोपियों के संविधान के इस प्रावधान के अंतर्गत छूट दी थी कि सांसद को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। ऐसे प्रावधान शायद संविधान निर्माताओं ने इसलिए रखे होगें, जिससे जनप्रतिनिधि अपने काम को पूरी निर्भीकता से अंजाम दे सकें। उन्हें अपनी अवाम पर इतना भरोसा था कि इस अवाम के बीच से निर्वाचित प्रतिनिधि नैतिक दृष्टि से इतना मजबूत तो होगा ही कि रिश्वत लेकर न तो अपने मत का प्रयोग करेगा और न ही सवाल पूछेगा ? लेकिन यह देश और जनता का दुर्भाग्य ही है कि जब बच निकलने के ये कानूनी रास्ते सार्वजनिक होकर प्रचलन में आ गए तो 22 जुलाई 2008 को खुद को नीलाम कर देने वाले सांसदों की संख्या भी ब़ गई। और जब भाजपा सांसदों ने संसद में नोटों के बदले वोट देने के लिए बतौर घूस दी गई नोटों की गड़डियां लहराईं तो कमोबेश खामोश रहने वाले मनमोहन सिंह ने दलील दी कि सांसदों को खरीदा गया है, तो प्रमाण दो ?
लेकिन अब संयोग से हालात बदले हुए हैं। अब नोट के बदले वोट काण्ड में फरियादी खुद वे सांसद हैं, जिन्हें खरीदने की कोशिश हुई और आरोपी वे दलाल हैं जिन्होंने मनमोहन सिंह सरकार को बचाने के लिए सांसदों को खरीदने में अंहम भूमिका निभाई। सांसदों की निष्ठा क्रय करने वाले दो दलाल संजीव सक्सेना और सुहैल हिन्दुस्तानी पुलिस हिरासत में हैं और अमरसिंह कठघरे में हैं। दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा को 21 और 22 जुलाई 2008 को संजीव सक्सेना और अमरसिंह के बीच हुई बातचीत के सबूतकि सांसद को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। ऐसे प्रावधान शायद संविधान निर्माताओं ने इसलिए रखे होगें, जिससे जनप्रतिनिधि अपने काम को पूरी निर्भीकता से अंजाम दे सकें। उन्हें अपनी अवाम पर इतना भरोसा था कि इस अवाम के बीच से निर्वाचित प्रतिनिधि नैतिक दृष्टि से इतना मजबूत तो होगा ही कि रिश्वत लेकर न तो अपने मत का प्रयोग करेगा और न ही सवाल पूछेगा ? लेकिन यह देश और जनता का दुर्भाग्य ही है कि जब बच निकलने के ये कानूनी रास्ते सार्वजनिक होकर प्रचलन में आ गए तो 22 जुलाई 2008 को खुद को नीलाम कर देने वाले सांसदों की संख्या भी ब़ गई। और जब भाजपा सांसदों ने संसद में नोटों के बदले वोट देने के लिए बतौर घूस दी गई नोटों की गड़डियां लहराईं तो कमोबेश खामोश रहने वाले मनमोहन सिंह ने दलील दी कि सांसदों को खरीदा गया है, तो प्रमाण दो ?
लेकिन अब संयोग से हालात बदले हुए हैं। अब नोट के बदले वोट काण्ड में फरियादी खुद वे सांसद हैं, जिन्हें खरीदने की कोशिश हुई और आरोपी वे दलाल हैं जिन्होंने मनमोहन सिंह सरकार को बचाने के लिए सांसदों को खरीदने में अंहम भूमिका निभाई। सांसदों की निष्ठा क्रय करने वाले दो दलाल संजीव सक्सेना और सुहैल हिन्दुस्तानी पुलिस हिरासत में हैं और अमरसिंह कठघरे में हैं। दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा को 21 और 22 जुलाई 2008 को संजीव सक्सेना और अमरसिंह के बीच हुई बातचीत के सबूतमिल चुके हैं। संजीव का अमर से करीबी रिश्ता जगजाहिर है। अब इन्हीं तथ्यों और रिश्तों की पड़ताल के लिए अमरसिंह से पूछताछ होगी और शायद गिरफ्तारी भी ?
दूसरी तरफ सुहैल हिन्दुस्तानी द्वारा गिरफ्तारी के बाद दिए बयानों ने अमरसिंह पर तो शिकंजा कसा ही है सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह की मुशिकले भी ब़ा दी हैं, क्योंकि सुहैल ने सोनिया के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल का नाम भी लिया है। सुहैल ने अपने बयान में यह भी दावा किया है कि अमरसिंह प्रधानमंत्री के दिशा निर्देश पर काम कर रहे थे और सरकार बचाने में अहमद पटेल भी उनके साथ थे। इधर सुप्रीम कोर्ट के वकील विश्वनाथ चतुर्वेदी ने भी अमरसिंह पर संकट के बादल गहरा दिए हैं। विश्वनाथ एक शिकायतीपत्र के साथ कुछ ऐसे साक्ष्य दिल्ली के पुलिस कमिश्नर को दिए हैं, जिनसे जाहिर होता है कि विश्वास मत के दौरान अमरसिंह को अमेरिका से आर्थिक मदद मिली। इस बावत विश्वनाथ ने किंलटन फाउण्डशेन, रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया और चुनाव आयोग से जुड़े कुछ जरूरी दस्तावेज पुलिस को सौंपे हैं। राजनीति और सत्ता के ये तीन दलाल तो विश्वास मत के लिए सांसदों की खरीदफरोक्त के प्रत्यक्ष किरदार हैं, इसलिए ये तो संकट में हैं ही, लेकिन जो मनमोहन सिंह अब तक निजी नैतिक शुचिता के बूते काजल की कोठरी में रहते हुए बचे रहे हैं, उन पर भी नैतिकता के पालन में इस्तीफा देने का सवाल आगामी लोकसभा सत्र में मुश्तैदी से उठने जा रहा है।
मनमोहन सिंह पर कठपुतली प्रधानमंत्री, अमेरिका का पिट्टू, विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के हित साधक के आरोप भले ही लगते रहे हों, किंतु उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी पर अंगुली कभी नहीं उठी। पर अब 22 जुलाई 2008 को नेपथ्य में रहकर जिस तरह से उन्होंने राजनीति के अग्रिम मोर्चे पर शिखण्डी और बृहन्नलाओं को खड़ा करके विश्वास मत पर विजय हासिल की उससे कांग्रेस की सत्ता में बने रहने की ऐसी, विवशता सामने आई जिसने संविधान में स्थापित पवित्रता, मर्यादा और गरिमा की सभी चूलें हिलाकर रख दीं। विश्वास मत हासिल करने की इस नाटकीय परिणति ने तभी स्पस्ट कर दिया था कि सौदा तो हुआ ही है, इसमें कोई दोराय नहीं है। भारतीय लोकतंत्र को कलंकित करने वाली यह सौदासंस्कृति आगे भी चलन में न बनी रहे इसके लिए जरूरी है कि वे सब राजनेता और दलाल कानून की गिरफ्त में लाए जाएं जिन पर भी शक की सुई ठहरी हुई है।
सांसदों की खरीद-फ़रोख्त कोई नई बात नहीं है. यह कांग्रेस संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग है. सांसद-निधि क्या है? क्या यह सभी दलों के सांसदों को दिया जाने वाला सरकारी रिश्वत नहीं है?