भारत की राजनीति में मुस्लिम दखल की अहमियत को कोई भी नकार नहीं सकता. आज़ादी के पहले से ही हमारी राजनीति को मुस्लिम समाज प्रभावित करता रहा है. मुस्लिम मतों को अपनी तरफ खींचने मे नेहरु से लेकर इंदिरा तक सभी कांग्रेसी दिग्गज चैम्पियन रहे. हालांकि कांग्रेस को लगातार समर्थन और
सत्ता की चाबी सौंपने के बावज़ूद मुसलमानों को क्या मिला, ये एक अलग सवाल है. साठ साल बाद भी खुद कांग्रेस सरकार द्वारा बनाई गई सच्चर समिति
सेक्युलरवाद के तमगे से पल्लवित इस रिश्ते में मुसलमानो को मिली सौगात का सूरते हाल बयां करती है।
इंदिरा बाद की राहुल कांग्रेस के दौर में शाहबानो व अयोध्या प्रकरण की रौशनी में मुस्लिम वोट बैंक के कई नए दावेदार उभरे. कम्यूनिस्ट के अलावा सपा, बसपा, पासवान की लोजपा, लालू के अलावा महाराष्ट्र में शरद पवार की एनसीपी, बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, तो दक्शिण में तेदेपा, डीएमके, एआईडीएमके. यहां तक की गाहे बगाहे उग आई कई रिजनल पार्टियां भी मुस्लिम वोट के लिए काफ़ी लालायित रही. यानी भाजपा, शिव सेना को छोड़कर कमोबेश हर छोटी-बडी पार्टी ने सेक्युलिज्म की आड़ में मुस्लिम मतोँ को लुभाने की भरसक कोशिश की. भाजपा मे शुरुआत मे सिकंदर बख्त जैसे मुस्लिम नेता रहे जिन्हें सेक्युलर बिरादरी भाजपा का पोस्टर-बॉय कहा करती थी. बाद में शानवाज हुसैन, मुस्ख्तार अब्बास नकवी जैसे धुरंधर मुस्लिम नेता भी भाजपा ने विकसित किए जो किसी भी लिहाज़ से पोस्टर-बॉय नहीं हैं, बल्कि पार्टी की रिती-नीति में अहम भूमिका निभा रहे हैं.
इसी कड़ी में बरास्ता मोदी सदभावना मिशन के भाजपा में एक और मुस्लिम नेतृत्व उभरा है, वह है गुजरात से सूफी एमके चिश्ती. यह युवा सूफी संत फिलहाल भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा के राष्ट्रीय महासचिव और गुजरात हज कमेटी के चेयरमेन हैं. भाजपा और उसके राष्ट्रवादी मूल्यो को इन मुस्लिम नेताओँ ने किस कदर अपना लिया है, इसका जायका आपको सूफी साहब से एक बार बात करते ही पता चल जाता है. आप उन्हें फोन लागाओ तो सामने की ओर से वंदे मातरम का सम्बोधन सुनकर हैरत भरी खुशी महसूस होगी. पिछ्ले गुजरात विधानसभा चुनाव में गुजरात के मुसलमानों के बीच काफ़ी काम किया और दिल्ली में मोदी राज लाने के लिये देशभर में वह काफी सक्रिय हैं, साथ ही मुस्लिम समाज में भाजपा के प्रति व्याप्त की गलतफहमियां दूर करने के लिये काफ़ी मुखर रहे हैं.
अगर हम राष्ट्रीय राजनीति पर गौर करेँ तो कांग्रेस समेत कमोबेश हर तथाकथित सेकुलर दल में अनुदारवादी मुस्लिम तबके की ही तूती बोलती रही है.
उदारवादी मुस्लिम तबके को हमारी सेक्युलर राजनीति ने कभी भी अहम जगह नहीं दी. ऐसे में यह उदारवादी मुस्लिम धड़ा भाजपा की ओर आकर्षित हो यह
स्वभाविक है. इसी के चलते सबसे पहले दाउदी बोहरा समाज (शबाब गुट) व अन्य शिया समुदाय, फिर सूफी, पंजतानी और सुन्नी बरेलवी तबका भाजपा से जुड़ा. हाल ही में मोदी के घोर विरोधी रहे जफर सरोशवाला जैसे देवबंदी सुन्नी ने भी मोदी से हाथ मिलाया है. मशहूर लेखक और सलमान खान के पिता सलीम खान मोदी के मुरीद रहे हैं.
लाख दुष्प्रचार के बावजूद मुस्लिमोँ में भाजपा भय का हौवा खत्म होता जा रहा है. जैसे-जैसे भाजपा सत्ता के करीब पहुंचती है, वैसे-वैसे कई और नामी मुस्लिम चेहरे अगामी कुछ दिनो में भाजपा के साथ जुड सकते हैं. लेकिन मुस्लिम समाज मे स्वीकार्यता की इस धुन में भाजपा अपने मूलभूत मूल्योँ को दरकिनार ना करे वरना अनुदारवादी मुस्लिम समाज को जोड़ने के चक्कर में अपना मूल राष्ट्रवादी हिंदू-मुस्लिम वोट खिसक जायेगा और इसकी संरचना भी अन्य तथाकथित सेक्युलर दलों जैसी हो जाएगी. वहीँ उदारवादी मुस्लिम समाज अन्य सेकुलर पार्टियोँ की तरह भाजपा में नजरअंदाज़ नहीं होनी चाहिये. आखिर भाजपा से पहले हाथ मिलानेवाले पुराने मुस्लिमोँ का पहला हक़ तो बनता ही है, क्योंकि दुष्प्रचार की आंधी के बीच इन्हीं ने भाजपा की कश्ती सम्भाली थी, सेक्युलर बिरादरी और अपनी खुद की बिरादरी से लानत-मलालत के बावजूद.
”बहुत शोर सुनते थे सीने में दिल का — जो चीरा तो एक क़तरा-ए-खूं न निकला.”
बिलकुल सटीक बात है. भाजपा के साथ शुरुआत से जुडी मुस्लिम बिरादरियों को अहमियत दी जानी चाहिए. बाकी अपने फायदे के लिए जेहादी तत्व भी भाजपा की और आकर्षित हो सकते हैं, जो मौसमी फूलो की तरह कब रंग बदल दे कह नहीं सकते !! भाजपा के साथ लम्बी पारी सिर्फ बोहरा, सूफी, पंजतनी, शिया, आदि समुदाय निभा सकते हैं. क्योंकि इनमे से अधिकाँश लोग वतन परस्त हैं.