अब प्रधानमंत्री चुप क्यों हैं ?

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संसद को कौन बना रहा- निरर्थक ?

वीरेन्द्र सिंह परिहार

1 लाख 86 हजार करोड़ रुपए के 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जाच के लिए कांग्रेसी सांसद पी.सी. चाको की अध्यक्षता में गठित संयुक्त संसदीय समिति अर्थात जे.पी.सी.- ऐसा लगता है कि इतिहास दुहराने जा रही है। इस बात की भरपूर संभावना है कि इसका भी हश्र नब्बे के दशक में गठित बोफोर्स तोपों की दलाली के मामले जैसा होगा। कहने का आशय यह कि उस वक्त भी विपक्षी सांसदों को संयुक्त संसदीय समिति से वाक-आउट करना पड़ा था, और कमोबेश अब भी ऐसी ही स्थितिया हैं। विवाद की जड़ यह कि समिति के विपक्षी सदस्य खासतौर पर भाजपा के सदस्य प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एवं वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम को समिति के समक्ष गवाही के लिए बुलाना चाहते हैं। जबकि समिति के अध्यक्ष श्री चाको इसके लिए तैयार नहीं है। ऐसी स्थिति में बड़ा सवाल यह कि क्या प्रधानमंत्री एवं वित्तमंत्री को समिति के समक्ष बुलाना औचित्यपूर्ण है। अब इसमें कोर्इ विवाद नहीं कि वर्ष 2006 में तात्कालीन दूरसंचारमंत्री दयानिधि मारन ने प्रधानमंत्री को चिठठी लिखी थी, जिसमें जी.ओ.एम. के टमर््स आफ रेफरेंस को उनके मुताबिक बनाने को कहा गया था। साथ ही स्पेक्ट्रम की कीमत भी तय करने का अधिकार जी.ओ.एम. के वजाय उन्हें देने का आग्रह किया गया था। इसके बाद प्रधानमंत्री ने जी.ओ.एम. की भूमिका पूरी तरह खत्म कर दी थी, जिससे टेलीकाम मंत्रालय को पूरा अधिकार मिल गया और उसकी परिणिति में 1 लाख 8 हजार करोड़ का घोटाला हो गया। अब यह निषिचत रूप से मनमोहन सिंह से यह पूछताछ का विषय है कि उन्होंने जी.ओ.एम. की भूमिका खत्म कर यह अधिकार पूरी तरह टेलीकाम मंत्रालय को कैसे दे दिया? गत वर्ष जब जे.पी.सी. के गठन को लेकर विपक्षी दल संसद नहीं चलने दे रहे थे, तब प्रधानमंत्री ने स्वत: कहा था कि वह लोक लेखा समिति के समक्ष पूछताछ के लिए उपसिथत होने को तैयार है। पर ऐसा लगता है कि मनमोहन सिंह ने उक्त बात इसलिए कही थी कि जे.पी.सी. का गठन न हो सके। दूसरे उन्हें पता था कि उनकी पार्टी और सहयोगी दलों के सांसद यह कहकर उन्हें पी.ए.सी. के समक्ष नहीं उपसिथत होने देंगे कि पी.ए.सी. को प्रधानमंत्री को बुलाने का अधिकार नहीं है। बड़ी बात यह कि यदि प्रधानमंत्री पी.ए.सी. के समक्ष उपसिथत होने को तैयार थे तो अब जे.पी.सी. में उपसिथत होने को लेकर मौन क्यों धारण किए हुए है ? क्यों स्वत: नहीं कहते कि वे जे.पी.सी. के समक्ष उपसिथत होने को तैयार हैं। प्रधानमंत्री की चुप्पी से यह स्पष्ट है कि पी.ए.सी. के समक्ष उपसिथत होने की बात कहकर उन्होंने देश को गुमराह करने का प्रयास किया था, जो प्रकारान्तर से एक तरह का पाखण्ड ही कहा जा सकता है।

अब रहा सवाल चिदम्बरम का तो 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सर्वोच्च न्यायालय ने भले ही चिदम्बरम की आपराधिक साजिश की भूमिका न मानी हो, पर इस घोटाले में चिदम्बरम की संलिप्तता की बात सरकार स्वत: मान चुकी है। जिसका सबसे बड़ा प्रमाण 25.03.12 की वित्त मंत्रालय की वह चिठठी है, जो सिर्फ वित्त मंत्रालय द्वारा नहीं पी.एम.ओ. समेत चार दूसरे मंत्रालयों द्वारा तैयार की गर्इ थी। जिसमें साफतौर पर यह कहा गया था कि यदि तात्कालीन वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम चाहते तो घोटाला रोक सकते थे। अब ऐसी स्थिति में चिदम्बरम को जे.पी.सी. के समक्ष उपसिथत होकर यह तो बताना ही चाहिए कि इतने बड़े घोटाले से उन्होंने आखें क्यों बन्द कर ली और उसे क्यों होने दिया?निर्णायक बात यह है कि जे0पी0सी0 का गठन ही इस आधार पर हुआ था कि उसे किसी मंत्री या प्रधानमंत्री तक को पूछताछ के लिए बुलाने का अधिकार है ।अब यदि जरूरत होते हुए भी ऐसा नही किया जाता तो जे0पी0सी0 के गठन का औचित्य ही क्या था ।

कौन नहीं जानता कि नब्बे के दशक में कांग्रेसी सांसद बी. शकरानन्द की अध्यक्षता में बोफोर्स मामले में गठित संयुक्त संसदीय समिति ने जाच में मात्र लीपापोती का काम किया था। जबकि बोफोर्स प्रकरण में दलाली खाने के एक नही कर्इ पुष्ट प्रमाण सामने आ चुके हैं। क्वात्रोची को देश से भगाया जाना, उसका अर्जेन्टाइना से प्रत्यांतरण न कराया जाना, उसके लन्दन में सीज बीस लाख पाउण्ड के खातों को विषेश रुचि लेकर खुलबा देना तो है-ही। भारतीय आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण इस मामले में स्पष्ट रूप से बता चुका है। इसी तरह से नोट के बदले वोट-काण्ड में भी 2009 में कांग्रेसी सांसद व्ही किशोर चन्द्रदेव की अध्यक्षता में संयुक्त संसदीय समिति गठित की गर्इ। लेकिन उसने भी कोर्इ प्रमाण न होने की बात कहकर लीपापोती कर दी। अब जब प्रमाण को अनदेखा करना है, तो प्रमाण कहा से मिलेगा? अब इस बात की सच्चार्इ अमर सिंह की गिरफ्तारी और बाद में विकीलीक्स के खुलासे से स्पष्ट हो गर्इ। यह खुलासा होने पर अमर सिंह ने स्वत: स्वीकार कर लिया कि मैं नोट-फार-वोट काण्ड का प्रमुख खिलाड़ी था और अपने मुखिया मुलायम सिंह के कहने पर यह किया था। आगे चलकर व्ही किशोर चन्द्रदेव को इस लीपापोती के चलते वतौर पारितोषिक केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में जगह मिल गर्इ। नि:संदेह कांग्रेसराज में 2-जी स्पेक्ट्रम को लेकर बनी संयुक्त संसदीय समिति का भी यही हश्र होने जा रहा है।

अब कांग्रेसी पार्टी कोलगेट घोटले को लेकर बराबर यह कहती रही कि जब तक पी.ए.सी. इसमें अपना जाच निष्कर्श नहीं दे-देती, तब तक कैग की रिपोर्ट के आधार पर कुछ नहीं कहा जा सकता। पर 2-जी स्पेक्ट्रम पर जब मुरली मनोहर जोषी की अध्यक्षता वाली पी.ए.सी. जाच कर रही थी, तब कांग्रेसी और उसके सहयोगी सदस्यों ने वहा कैसी उदण्डता और फूहड़ता की, इसे पूरे देश ने देखा? यहा तक अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर डा. मुरली मनोहर जोषी को अध्यक्ष पद से ही हटा दिया। बावजूद इसके जोषी ने अपनी रिपोर्ट दी भी तो स्पीकर के माध्यम से उसे कूड़ेदान में डलवा दिया।

इन सब बातों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस पार्टी के लिए इस तरह से संसद उसकी समितिया, संयुक्त संसदीय समिति उसके लिए ढ़ाल मात्र है, और वह उसे गुण-दोश से कोर्इ मतलब न होकर मात्र संख्याबल से मतलब है। यदि संख्याबल न रहा तो वह उसका भी जुगाड़ करने में सिद्धहस्त है। बड़ी बात यह कि भाजपा पर संसद को निरर्थक करने का आरोप लगाने वाली कांग्रेस क्या इस तरह से संसद को स्वत: अप्रसांगिक नहीं बना रही है?

 

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  1. कहने और करने में बहुत फर्क होता है,बयां दे कर खूब डींग हांकना आसन है,पर जब खुद पर उसे लागू करने का दांव पद जाये तो गले आ जाती है.

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