अब पंजाब में तय होगा भारत का राजनैतिक इतिहास

punjab electionडा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
पंजाब विधान सभा के चुनाव 2017 के शुरु के महीनों में हो जायेंगे । पंजाब में चुनावों के साथ साथ मणिपुर, गोवा,उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड विधान सभाओं के लिए भी चुनाव होने वाले हैं । लेकिन आम आदमी पार्टी और सोनिया कांग्रेस के लिए अपने अस्तित्व की लड़ाई पंजाब के मैदानों में ही लड़ी जाने वाली है । हाल ही में पाँच राज्यों असम, केरल, तमिलनाडु, पुदुच्चेरी और पश्चिमी बंगाल की विधान सभाओं के लिए हुए चुनावों में सोनिया कांग्रेस की जो दुर्दशा हुई है , उससे बाहर निकलने का रास्ता पंजाब में ही खोजा जा सकता है । सोनिया कांग्रेस दूसरों से भी बेहतर जानती है कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में अब उसके लिए कुछ ख़ास बचा नहीं है । मणिपुर में उसके लिए उसी वक़्त ख़तरे की घंटी बज गई थी जब ब्रह्मपुत्र की लहरों पर भारतीय जनता पार्टी का कमल खिल उठा था । रहा गोवा , वहाँ सोनिया गान्धी की पार्टी पिछले चुनावों में ही अप्रासांगिक होने की स्थिति में आ गई थी । जहाँ तक पंजाब का प्रश्न है , पंजाब की राजनीति में एक बार अकाली-भाजपा और दूसरी बार सोनिया कांग्रेस की सरकार बनाने की परम्परा विकसित हो चुकी है । २०१२ के चुनावों में अकाली दस- भाजपा ने दूसरी बार भी सरकार बना कर यह परम्परा तोड़ी थी । लेकिन अब २०१७ में होने वाले चुनावों में तो सोनिया कांग्रेस ही सरकार बनायेगी, यह धारणा और विश्वास इस पार्टी के नेता कैप्टन अमरेन्द्र सिंह आम जनता में और अपने कार्यकर्ताओं में बनाने का प्रयास कर रहे हैं । लेकिन आम आदमी पार्टी की एंट्री ने सारा मामला गड़बड़ा दिया लगता है । सोनिया कांग्रेस और आम आदमी पार्टी दोनों के लिए ही यह चुनाव उनके अस्तित्व का प्रश्न बन गया है । ऐसा नहीं कि सोनिया कांग्रेस ने इसके लिए तैयारी नहीं की या कर नहीं रही है । उन्होंने पंजाब में चुनाव जिताने के लिए बिहार से किसी प्रशान्त किशोर को मोटा वेतन देकर नियुक्त किया है । कहा जाता है कि यही प्रशान्त किशोर २०१४ के लोक सभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय में आँकड़े एकत्रित करने और उनका मूल्याँकन करने का काम करते थे । चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की जीत का श्रेय , इन्होंने अपने इस अंकगणितीय दक्षता को देना चाहा तो इनका वहाँ से जाना तय ही था । तब इनको बिहार में जनता दल(यू) ने हायर कर लिया । जब वहाँ चुनाव ख़त्म हो गए तो प्रशान्त किशोर को कैप्टन अमरेन्द्र सिंह पंजाब ले आए । कहा जाता है कि कैप्टन अमरेन्द्र सिंह को पूरा विश्वास है कि किशोर सोनिया कांग्रेस को जिता देगा । पंजाब में चुटकुला प्रसिद्ध हो रहा है कि कैप्टन प्रशान्त किशोर के लैपटॉप को बहुत श्रद्धा भाव से देखते हैं । लेकिन किशोर का लैपटॉप सोनिया कांग्रेस की भीतरी फूट को रोक नहीं पाता । इसलिए यदि सोनिया गान्धी की फ़ौज पंजाब में अकाली दल को परास्त करके जीत हासिल नहीं कर पाती तो उसकी अपनी फ़ौज के मन में पक्का हो जायेगा कि अब सोनिया गान्धी और उनके बेटे राहुल गान्धी में भारत के ऐतिहासिक मैदानों में अपनी फ़ौजों को जिताने की योग्यता नहीं बची है । तब फ़ौज का माँ बेटे के नेतृत्व से विश्वास उठ जायेगा और वह हार कर तितर बितर होने की स्थिति में आ जायेगी और एक राजवंश के पराजय पतन की अंतिम कहानी पंजाब के उन्हीं मैदानों में लिखी जायेगी , जहाँ कभी मुग़ल वंश की पराजय की गाथा लिखी गई थी । इसलिए कहा जा सकता है कि सोनिया कांग्रेस के लिए पंजाब की लड़ाई उसके अस्तित्व की लड़ाई है । लेकिन इस पूरी लडाईँ में भाजपा की क्या स्थिति है ? यह प्रश्न महत्वपूर्ण है । भाजपा की समस्या प्रदेश में अपने लिए किसी सार्थक भूमिका की तलाश ही कहीं जा सकती है । दबाव समूह से पूरे पंजाब व पंजाबियों की पार्टी की ओर बढ़ने की यात्रा ।
चाहे लाभ हानि की चिन्ता किए बिना फ़िलहाल भाजपा की नीति अकाली दल के साथ मिल कर चलने की ही है लेकिन पंजाब की सामाजिक स्थिति व जनसांख्यिकी को ध्यान में रखते हुए भारतीय जनता पार्टी ने दलित नेता विजय सांपला को प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष घोषित किया है । अभी तक १९५१ में कैप्टन केशव चन्द्र से लेकर २०१६ तक जनसंघ/भाजपा के जितने भी अध्यक्ष रहे हैं वे स्वर्ण जातियों से ही ताल्लुक़ रखने वाले थे । जिन दिनों देवदत्त शर्मा पंजाब जनसंघ के संगठन मंत्री थे , उन्होंने दलित समाज एवं जाट सिक्ख समुदाय में संगठन कार्य के विस्तार हेतु प्रयास किए थे । ब्रिगेडियर गुरबचन सिंह बल और ब्रिगेडियर विक्रमजीत सिंह बाजवा उन्हीं दिनों जनसंघ में आए थे । पार्टी में भाग्य चन्द्र की अध्यक्षता में अलग से दलित विभाग खोला गया था । चौधरी स्वर्णा राम , लाल जी राम , महाशय पूर्ण चन्द , महाशय ज्ञान चन्द उन्हीं दिनों सक्रिय हुए थे । लेकिन जनसंघ /भाजपा के नीति गत निर्णयों में दलित समाज और जाट सिक्ख समाज की कोई भूमिका है या नहीं , इसको लेकर सदा सवाल उठते रहे हैं । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी सामाजिक समरसता के क्षेत्र में सक्रिय हुआ है । बालासाहिब देवरस का बसन्त व्याख्यानमाला का ऐतिहासिक भाषण इसका आधार बना । पंजाब में दलित समाज की संख्या सर्वाधिक है । इस पृष्ठभूमि में विजय सांपला को प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाना पार्टी का लम्बी रणनीति को ध्यान में रखकर लिया गया निर्णय ही कहा जा सकता है ।
विजय सांपला के प्रदेश अध्यक्ष बनने पर मालवा क्षेत्र में जिस प्रकार जन सभाओं का आयोजन हुआ है , वह पार्टी की नई रणनीति की ओर संकेत करता है । पार्टी के वरिष्ठ नेता हरजीत सिंह ग्रेवाल के अनुसार मानसा, कोटकपूरा और बरनाला में इन रैलियों में तीन से चार हज़ार तक की संख्या में लोग एकत्रित हुए । भीषण गर्मी में यह भीड़ भाजपा की अतिरिक्त सक्रियता की ओर ही संकेत करती है । सबसे बढ़ कर भाजपा ये कार्यक्रम अपने बलबूते कर रही है , उसमें सहयोगी दल अकाली दल की भागीदारी नहीं है लेकिन उसके बावजूद ग्रामीण किसानों की संख्या सर्वाधिक है । इन सभाओं में उठाए गए मुद्दे भी ध्यान आकर्षित करते हैं । पंजाब के किसानों को दरपेश समस्याओं , मालवा क्षेत्र में नशे के बढ़ रहे कारोबार, रेत बजरी को लेकर मचे घमासान, सरकारी कामों में भ्रष्टाचार, किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याएँ , इन रैलियों के केन्द्र बिन्दू हैं । ध्यान रहे इन मुद्दों की चर्चा से ही अकाली दल विदकता है ।
हरजीत सिंह ग्रेवाल का कहना है कि मालवा क्षेत्र में जिन किसानों ने आत्महत्याएँ की हैं , पार्टी उन की पूरी सूची ही तैयार नहीं कर रही बल्कि प्रत्येक पीड़ित परिवार से मिल कर पूरी पृष्ठभूमि जान रही है । इसके लिए शोध की वैज्ञानिक पद्धति से एक प्रश्नमाला तैयार की गई है जिसे पीड़ित परिवारों से भरवाया जा रहा है । फ़ील्ड से प्रामाणिक आँकड़े आ जाने पर पंजाब में किसानों की आत्महत्या पर एक श्वेत पत्र प्रकाशित किया जायेगा । लेकिन यही श्वेतपत्र अकाली दल के गले की फाँस बन सकता है । लगता है भारतीय जनता पार्टी अकाली दल की छाया से निकल कर अपने पैरों खड़े होने के रास्ते पर चल पड़ी है । यह ध्यान रखना चाहिए कि पंजाब में स्वस्थ्य राजनैतिक वातावरण के लिए भारतीय जनता पार्टी का शक्तिशाली होना अनिवार्य है । वह शक्तिशाली तभी बन सकती है यदि उसका संगठन और उसकी जड़ें पंजाब के सभी वर्गों में समान रुप से फैलती हैं । पिछले पाँच दशकों में यह नहीं हो पाया है । लेकिन नरेन्द्र मोदी के भाजपा के केन्द्र में आने से लगता है भाजपा इस नये रास्ते पर ज़रूर चल पड़ी है । कुछ साल पहले पार्टी ने दलित समाज के प्रमुख स्तम्भ भगत चूनी लाल को विधायक दल का नेता चुन कर सभी को चौंका दिया था । विजय सांपला की प्रधान पद पर ताजपोशी इसी दिशा में उठाया दूसरा महत्वपूर्ण पग है । मालवा में भाजपा के कार्यक्रमों में आई अचानक तेज़ी इसका तीसरा संकेत है । अब शायद भाजपा इस चिन्ता से मुक्त हो गई है कि मालवा में उसकी ग्रामीण किसानों में सक्रियता , अकाली दल को नाराज़ कर देगी ।
लेकिन भाजपा के लिए मालवा में अगला प्रश्न ज़्यादा महत्वपूर्ण है । क्या भाजपा मालवा में कभी विधान सभा या लोक सभा के लिए चुनाव लड़ेगी या लड़ पायेगी ? किसी भी राजनैतिक दल के लिए कार्य विस्तार की यह कसौटी भी है और अनिवार्यता भी । लेकिन इस रास्ते में बाधाएँ उससे भी ज़्यादा हैं । सबसे बडी बाधा तो अकाली दल ही है । अकाली दल क्यों चाहेगा कि उसके क़िले में कोई दूसरा सेंध लगाने का काम करे ? किसी भी समझौते में यह सीमा रेखा रहती है । समझौते में दोनों दलों के क्षेत्र निश्चित हो जाते हैं । उससे सरकार तो बन जाती है लेकिन दल का विकास रुक जाता है । इस प्रकार के समझौते में विकास के रुक जाने का ख़तरा छोटे दल को ही उठाना पड़ता है । पंजाब में छोटे दल की भूमिका में भारतीय जनता पार्टी है । यदि समझौता अल्पकालिक हो तो भी छोटे दल के लिए विकास के रास्ते बचे रहते हैं । लेकिन दीर्घकालीन समझौते छोटे दलों में जडता ही पैदा नहीं करते बल्कि अपने निहित स्वार्थों के चलते उसके अन्दर बड़े दल के हितों की रक्षा करने वाले व्यक्ति या समूह भी पैदा कर देते हैं । यही कारण है कि आज पंजाब भाजपा के भीतर ही कई बार संकेत होते हैं कि कौन बादल का आदमी है । यदि भाजपा का अकाली दल से समझौता न होता फिर यह कोई बाधा नहीं थी । पंजाब में भाजपा और अकाली दल का केवल समझौता ही नहीं है बल्कि यह दीर्घकालीन समझौता है । पिछले बीस साल से दोनों पार्टियाँ गठबन्धन में हैं ।
भाजपा जब भी मालवा में चुनाव लड़ने की इच्छा प्रकट करेगी तो अकाली दल के पास पुख़्ता और सटीक उत्तर है । भाजपा इस इलाक़े में किसी भी विधान सभा में सीट जीतने की स्थिति में नहीं है । चुनाव अगली सरकार बनाने के लिए लड़े जायेंगे न की प्रयोग करने के लिए । ऊपर से देखने पर यह तर्क ठीक लगता है । लेकिन जीतने की स्थिति में तो भाजपा तब आयेगी यदि मालवा में उसे काम करने का अवसर मिलेगा । यह अवसर उसे मिल नहीं सकता क्योंकि सभी जानते हैं कि मालवा में भाजपा चुनाव नहीं लड़ेगी । पहले मुर्ग़ी आई या अंडा वाली स्थिति पैदा हो गई है । ध्यान रहे पंजाब विधान सभा की कुल 117 सीटों में से 65 सीटें मालवा क्षेत्र में आती हैं । इन 65 सीटों में से जी टी रोड की चार सीटों को छोड़ कर भाजपा किसी भी सीट पर चुनाव नहीं लड़ सकती क्योंकि बाक़ी सभी सीटें अकाली दल के पास हैं ।
दरअसल अकाली दल ने 1997 से भाजपा को लगभग बीस बाईस सीटों पर समेट रखा है । उससे ज़्यादा सीटें उसे मिल नहीं सकतीं । अकाली दल ने इस बात का ख़ास ख़्याल रखा है कि भाजपा को ये सीटें पंजाब के उन हिस्सों में ही मिलें जो हिमाचल प्रदेश , हरियाणा और राजस्थान की सीमा के साथ लगती हों । भाजपा को दी जाने वाली दूसरी सीटें भी जी टी रोड तक ही सीमित हैं । भाजपा के हिस्से में आने वाली 10 सीटें जी टी रोड के तीन शहरों अमृतसर, जालन्धर ,लुधियाना नगर तक ही सिमटी हुई हैं । फगवाड़ा और राजपुरा की सीटें भी जी टी रोड पर ही हैं । शेष दस सीटें भी पंजाब के सीमान्त पर हैं । यानि कुल मिला कर कहा जा सकता है कि अकाली दल ने बहुत ही चतुराई से भाजपा को पंजाब के भीतरी इलाक़ों से बाहर रखा हुआ है । विशाल मालवा , माझा और दोआबा क्षेत्र भाजपा की पहुँच से बाहर कर दिया गया है ।
लेकिन लगता है भाजपा ने दलित नेता विजय सांपला को पंजाब की कमान देकर इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने का रास्ता तलाशना शुरु कर दिया है । मालवा क्षेत्र में बड़े पैमाने पर भाजपा की जन सभाएँ इसका प्रमाण हैं । पंजाब के ये चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उसके कुछ महीने बाद ही हिमाचल के चुनाव आते हैं जो निश्चित ही पंजाब के चुनाव परिणामों से प्रभावित होते हैं ।

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