हे पार्थ !
मैं सिंहासन पर बैठा
अपने धर्म और कर्म से
अंधा मनुष्य,
मैं धृतराष्ट्र
देखता रहा, सुनता रहा
और द्रोपती के चीरहरण में
सभ्यता, संस्कृति
तार तार हुयी
धर्म के सारे अध्याय बंद हुए ,
तब मैं बोला धर्म के विरुद्ध
जब मैं अंधा था
पर आज
आँखें होते हुए भी नहीं देख पाता
आज सिंहासन पर बैठा
मैं मौन हूँ
उस सिंहासन से बोलने के पश्चात
हे पार्थ
सदियों से आज तक
मैं मौन हूँ ।
संजय बारू की किताब का नायक, वास्तव में बेबस और लाचार है। और उसी की प्रतिध्वनि ये कविता।