क्या ओबामा अमेरीकी राजनीति को रसातल में पहूँचाकर ही दम लेंगे?

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-रवि शंकर

बराक ओबामा के पिछले कुछ निर्णयों और बयानों को देखने के बाद एक आम राजनीतिक विश्लेषक के मन में एक ही सवाल उभर रहा है। क्या बराक ओबामा का भारतीयकरण हो गया है? एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि जैसे पंडित नेहरू के उदय के बाद भारतीय राजनीति के बुरे दौर की शुरूआत हुई थी, क्या उसी तरह ओबामा के उदय के बाद अमेरीकन राजनीति के भी बुरे दौर की शुरूआत हो चुकी है? उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी के नाम पर राजनीति करने वाले पंडित नेहरू ने ही भारतीय राजनीति में सेकुलरवाद के नाम पर तुष्टिकरण और समाजवाद के नाम पर जातिवादी राजनीति के बीज डाले थे। उसके बाद से लगातार ही भारतीय राजनीति का स्तर गिरता गया है और वह इतना नीचे गिर गया है कि देश के लिए घातक निर्णय भी बड़ी ही सरलता से ले लिए जाते हैं और उस पर शर्म आना तो दूर, किसी को भी उस पर चिंता नहीं होती। चाहे वह मुस्लिम अल्पसंख्यकों के उत्थान के नाम पर देश में विभाजनकारी आर्थिक योजनाएं हों या फिर कश्मीर और आतंकवाद पर दोहरी नीति हो, भारतीय राजनीति में आई इस गिरावट का ही परिणाम है कि किसी भी प्रदेश में आज शांति नहीं है। कुछ यही स्थिति ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद से अमेरीका की होने लगी है। हालांकि अमेरीका के नागरिक भारतीय नागरिकों की तुलना में कहीं अधिक जागरूक और लोकतांत्रिक रूप से अधिक शक्तिसंपन्न हैं, इसलिए वहां इस पतन का परिणाम आने में समय लग सकता है।

ओबामा की नीतियां और बयान हमें भारतीय नेताओं की नीतियों और बयानों की याद दिलाते हैं। पिछले दिनों जब 9/11 के घटनास्थल पर एक स्मारक भवन बनाने की योजना बनी तो ओबामा ने उसके ग्राउंड जीरो यानी कि भूतल पर इस्लामिक कल्चरल सेंटर बनाने का प्रस्ताव रख दिया। खबर तो शुरूआत में यह आई कि ओबामा वहां एक मस्जिद का निर्माण चाहते हैं, परंतु बाद में जब उनके इस प्रस्ताव का विरोध शुरू हो गया तो इस्लामिक कल्चरल सेंटर का प्रस्ताव रख दिया गया। यह एक न समझ में आने वाला प्रस्ताव था और स्वाभाविक ही था कि इसका तीव्र विरोध वहां शुरू हो गया। विरोध इतना तीव्र था कि वहां ओबामा को मुसलमान तक करार दिया जाने लगा। पियु रिसर्च सेंटर द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 19 प्रतिशत अमेरीकन मानते हैं कि बराक ओबामा मुसलमान हैं। यह संख्या मार्च 2009 की तुलना में पूरे 18 प्रतिशत अधिक है। वहीं ओबामा के संप्रदाय के बारे में अनभिज्ञता जाहिर करने वालों की संख्या 43 प्रतिशत थी। सवाल यह है कि ओबामा ने ऐसा प्रस्ताव आखिर दिया ही क्यों? क्या ओबामा को 9/11 के बाद मुलसमानों के प्रति अमेरीका के व्यवहार पर पछतावा प्रकट करना था? क्या उन्हें यह लगता था कि इराक में सेना भेजकर अमेरीका ने जो गलती की है, वह इससे सुधर जाएगी? या फिर उन्हें भी भारतीय नेताओं की तरह अमेरीका में बढ़ रहे मुस्लिम मतों को लुभाने की चिंता थी? कारण चाहे जो भी हो, यह प्रस्ताव ओबामा की राजनीतिक अदूरदर्शिता को ही प्रकट करता है। ओबामा की इस राजनीतिक अपरिपक्वता पर पक्की मुहर उनके पिछले दिनों दिए गए एक बयान ने लगा दी।

पिछले दिनों एक गुमनाम से पादरी ने 9/11 की बरसी पर कुरान की प्रतियों को जलाने की घोषणा की। बस फिर क्या था, तुरंत उसका विरोध प्रारंभ हो गया। विरोध के स्वर अंतरराष्ट्रीय थे। विरोध होना भी चाहिए था। 9/11 की घटना और कुरान की प्रतियों को जलाना, दोनों एक ही प्रकार की मानसिकता के परिचायक हैं। परंतु ओबामा ने इस पर जो प्रतिक्रिया व्यक्त की वह केवल अमेरिकियों ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व को हैरान कर देने वाली थी। ओबामा ने कहा कि वे उस पादरी से निवेदन करने हैं, कि वह ऐसा न करें, क्योंकि उसके ऐसा करने से इराक और अफगानिस्तान जैसे मुस्लिम देशों में रह रहे अमेरीकी सैनिकों व नागरिकों को जान का खतरा पैदा हो जाएगा। यह भाषा भारत के नेताओं के मुख से सुनने के हम आदि हो चुके हैं, परंतु विश्व के सर्वाधिक शक्तिसंपन्न देश के प्रमुख के मुख से ऐसा बयान निश्चित ही हैरान कर देने वाला था। यदि ओबामा नैतिक और वैचारिक आधार पर कुरान की प्रतियों को जलाने से रोकने की अपील करते तो बात समझ में आती, परंतु यह तो भय की भाषा थी। क्या ओबामा ने इस्लामी कट्टरपंथ के आतंकवाद से हार मान ली है? क्या यह मान लिया जाए कि आतंकवाद के खिलाफ अमेरीका ने जिस युध्द की घोषणा की थी, ओबामा ने उसमें अपनी हार स्वीकार कर ली है? क्या ओबामा ने यह स्वीकार कर लिया है कि इस्लामी कट्टरपंथियों को हिंसा फैलाने से रोकना या फिर उसका विरोध करना अब संभव नहीं है?

यह ठीक है कि हिंसा का जवाब हमेशा हिंसा से नहीं दिया जा सकता। यह भी सही है कि यदि हमें किसी पुस्तक पर किसी प्रकार की कोई आपत्ति है तो उसे जलाना कोई समाधान नहीं है। परंतु यह कदापि सही नहीं हो सकता कि किसी के कट्टरपंथी कार्रवाई का जवाब कट्टरपंथ से ही दिया जाए। यदि कुरान की प्रतियों को जलाना गलत कार्य है तो उसके विरोध में लोगों की हत्याएं करना तो उससे भी अधिक गलत है। फिर उसका भय दिखाना क्या एक परिपक्व और समझदार राजनेता का परिचायक हो सकता है? देखा जाए तो अमेरीका से हम किसी भी प्रकार की राजनीतिक परिपक्वता की आशा नहीं कर सकते। बुश(बड़े) से लेकर ओबामा तक उसके अभी तक के पिछले व्यवहारों ने उसके राजनीतिक मंतव्यों पर तो प्रश्चिह्न लगाया ही है, साथ ही उसकी राजनीतिक अदूरदर्शिता पर भी पक्की मुहर लगाई है। चाहे मामला इराक का हो या कश्मीर का, 9/11 की घटना हो या फिर तालिबान का मामला, अमेरीका ने सदैव स्वार्थपरक और अदूरदर्शी राजनीति का ही परिचय दिया है। परंतु ओबामा से पूर्व के राजनीतिक निर्णयों और बयानों में फिर भी एक प्रकार की राजनीतिक दृढता दिखती थी। ओबामा में उस दृढता का अभाव दिखता है। उनकी राजनीति स्वार्थपरक, अदूरदर्शी होने के साथ-साथ कमजोर भी है। क्या इसे हम अमेरीका के विश्व पर राजनीतिक प्रभुत्व के अंत का प्रारंभ के रूप में देख सकते हैं?

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रवि शंकर
रसायन शास्त्र से स्नातक। 1992 के राम मंदिर आंदोलन में सार्वजनिक जीवन से परिचय हुआ। 1994 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से परिचय हुआ और 1995 से 2002 तक संघ प्रचारक रहा। 2002 से पत्रकारिता शुरू की। पांचजन्य, हिन्दुस्तान समाचार, भारतीय पक्ष, एकता चक्र आदि में काम किया। संप्रति पंचवटी फाउंडेशन नामक स्वयंसेवी संस्था में शोधार्थी। “द कम्प्लीट विज़न” मासिक पत्रिका का संपादन। अध्ययन, भ्रमण और संगीत में रूचि है। इतिहास और दर्शन के अध्ययन में विशेष रूचि है।

3 COMMENTS

  1. रविशंकर बाबु ,
    ओबामा द्वारा गांघी-नेहरु की चर्चा तो बात के लसोकडे है जिनका कोई गंभीर मतलब निकालने की आवश्यकता ही नही है। भारतीय विदेश निति मे एक शिफ्ट आया है। सोनिया की सत्ता द्वारा अपनाई गई विदेश निति ने भारत को अमेरिकी खेमे मे ला खडा किया है। भाजपाई भी इस रिश्ते के बारे में वस्तुनिष्ठ हो कर कोई सकरात्मक अथवा नकरात्मक टिप्पणी करने से बच रहे है।
    भारत को मजबुत करने मे अमेरिका सहायक होता है तो इसमे कोई बुराई नही है।
    विगत में अमेरिका से कई मोर्चो पर भारत को धोखा मिला है, लेकिन बदली परिस्थितियो से अमेरिका ने भी कुछ सिखा है। अतः भविष्य में अमेरिका भारत का अच्छा मित्र (एलाई) बना रहेगा यह विश्वास भारत कर रहा है। लेकिन यह विश्वास जोखिम भरा है।
    ईतिहास से हमे यह सिखना चाहिए की वह ब्रिटेन/अमेरिका ही है जो दक्षिण एसिया तथा हिमालय आर-पार दुश्मनी कराता आया है। भारत का दीर्घकालिन हित इस बात मे निहीत है की वह पडोसियो से बेहतर रिश्ते बना कर रखे। भारत, चीन एवम पाकिस्तान मिल कर मित्रतापुर्वक रहे इसमे ही सबकी भलाई है। भारतीय विदेश निति मे संतुलन एवम परिपक्वता आवश्यक है। हिमालय आरपार क्षेत्रिय सद्भभाव वृद्धि मे भाजपा को अपनी भुमिका निर्वाह करनी चाहिए। श्री अटल बिहारी बाजपेयी न चीन से रिश्तो को सामान्य बनाने मे अहम भुमिका अदा की थी। वह भाव भी जीवित रहना चाहिए।

  2. ravishankar जी लेख अच्छा है. बराक ओबामा एक अयोग्य प्रशासक सिद्ध हुआ है. वास्तव में वह काला होने के वजह से राष्ट्रपति बना न की अपनी योग्यता से. यदि वह गोरा होता तो शायद यह पद नहीं मिलता. ओबमा जैसे लोग से उम्मीद करना बेकार है. उसने सारे संसार को अपने घटिया निर्णय से कलंकित किया और परेशानी में डाल दिया. मस्जिद का निर्णय न केवल बेतुका अपितु अपमान भरा है. पादरी को रोकना उसके लोकतान्त्रिक अधिकारों का हनन है. ओबामा चरमपंथियों से डरता है. ओबामा एक कायर आदमी है. और इस्लाम का भक्त है.

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