मेरे अस्तित्व का आलिंगन करती कुछ रेखाएँ !

मेरे अस्तित्व का आलिंगन करती कुछ रेखाएँ; असीम से आती हैं;
आकाश से आ मुझे झाँक जाती हैं, आँक कर कहीं चली जाती हैं !

मैं अंतस में उनकी ऊर्जा का आलोड़न अनुभव करता हूँ, तरता हूँ;
तैरता हूँ, तरंगों में भर उठता हूँ, तड़पन से निकलता हूँ !
वह मेरे पास है, मुझ में है, तन मन की तरन्नुम में है;
आत्मा की गहराइयों में, जगत की तराइयों में है, बता कर चला जाता है !

मैं स्वार्थ की सीमाओं में बंधा, लिपटा अटका सहमा सिकुड़ा;
उसे देख नहीं पाता, अहसास में भर नहीं पाता, आकुल रहता हूँ !
‘मधु’ उसकी ममता का विस्तार देखता, स्नेह को अंगीकार किए नमस्कार करता है;
पृथ्वी के मानव को हर प्राण को, आनन्द सागर की लहरों में बहाए चलता है!

 

loversरंग में कुछ हैं तरंगें !
रंग में कुछ हैं तरंगें, अँग में कुछ चाल है;

ताल है कुछ बँधे सुर में, वाल वत बेहाल हैं !
रहा संगीतों भरा स्वर, रमणि के रमते हृदय;

रही सिहरन अचकचा पन, विसम विस्मित से नयन !

हुए आरोही प्रवाही, प्रकृति से कृति चाहती;

स्वप्न प्रत्यँचा प्रतिष्ठित, प्रक्रिया लिप्तित रही !
पहन कर परिधान उर के, परिधि से नाता निभा;

नैन से मुद्रा बनाए, सैन से कह कर विधा !

द्विधा बाँटे सुधा छाँटे, सुधाकर के लग गले;

‘मधु’ हृद निवृति सँजोए, शाश्वति संस्कृति सजे !

 

नियति के नाटक मुझे !
नियति के नाटक मुझे, पतवार के माफ़िक़ लगे;

किए त्राटक खड़े जब वे, अटकते ख़ुद से लगे !
अलूनी सी आस्थाएँ, आत्मा कब छू सकीं;

भासती भव की विधाएँ, भोग से कब उठ सकीं !

हर कृति फुर संस्कृति, अनुभूति को ज्योतित किई;

द्योतना उर कर तरंगित, चरैवति का सुर दिई !
धर्म की मृदु धारणाएँ, मुखर हो कर बह गईं;

देह मन की अवस्थाएँ, प्रेय सी लगने लगीं !

श्रेय भाया प्रेय पाया, सुश्रूषा में मन लगा;

‘मधु’ को माया के झोटे, मनोरम मोहक लगे !

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