ओम थानवी और माध्यम निरक्षरता

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

ओम थानवी साहब बहुत अच्छे व्यक्ति हैं। मैं कभी उनसे नहीं मिला हूँ। लेकिन उनके लिखे को इज्जत के साथ पढ़ता रहा हूँ। “आवाजाही” शीर्षक से उन्होंने 29 अप्रैल 2012 को जनसत्ता में एक लेख लिखा है, वह एक संपादक के ज्ञान का आभास कम और माध्यम निरक्षरता का एहसास ज्यादा कराता है।

ओम थानवी का लेख चौंकाने वाला है। यह लेख इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि एक्सप्रेस ग्रुप के एक अखबार के संपादक को इंटरनेट जैसे महान माध्यम का सही ज्ञान नहीं है। इंटरनेट-फेसबुक आदि के बारे में थानवी साहब का मानना है, ” इंटरनेट बतरस का एक लोकप्रिय माध्यम बन गया है। घर-परिवार से लेकर दुनिया-जहान के मसलों पर लोग सूचनाओं, जानकारियों, विचारों का आदान-प्रदान करते हैं, प्रतिक्रिया देते हैं। ब्लॉग, पोर्टल या वेब-पत्रिकाएं और सार्वजनिक संवाद के ‘सोशल’ ठिकाने यानी फेसबुक-ट्वीटर आदि की खिड़कियां आज घर-घर में खुलती हैं। गली-मुहल्लों, चाय की थड़ी या कहवा-घरों, क्लबों-अड्डों या पान की दुकानों की प्रत्यक्ष बातचीत के बरक्स इंटरनेट की यह बतरस काम की कितनी है? मेरा अपना अनुभव तो यह है कि त्वरित और व्यापक संचार के बावजूद इंटरनेट के मंचों पर बात कम और चीत ज्यादा होती है। ”

थानवी साहब यह बताएं क्या अखबार में छपे पर पाठक बात नहीं करते? रसमय चर्चा नहीं करते? बहसें नहीं करते? क्या अखबार के सब पाठक अक्लमंद होते हैं? और अखबार में क्या सब ज्ञान में डूबा हुआ ही छपता है? आप जानते हैं अज्ञानी संपादक बड़ा खतरनाक होता है। जो संपादक नहीं जानता वो पढ़ता है, जानने की कोशिश करता है। लेकिन आप तो महान हैं आपने बिना जाने ही इंटरनेट आदि के बारे में फतवा जारी कर दिया। बिना जाने लिखना पत्रकारिता की भाषा में पीत पत्रकारिता की कोटि में आता है।

थानवी इंटरनेट को वास्तव में सोशल ठिकाने के रूप में नहीं देख रहे। यह बेहद ताकतवर मीडियम है। बेहतर हो थानवी भी इसका आनंद लें। वैसे वे भी आनंद लेते हैं। थानवी ने अपने नाती की खबर सबसे पहले फेसबुक पर दी और हम सबने खुशियां मनाईं। अब आप ही कहें कि हम आपके समाज में आते हैं या नहीं, यदि नहीं आते तो आपने नाती होने की खबर फेसबुक पर क्यों दी ? क्या वो बतरस था? जी नहीं. थानवी जी, नाती की खबर ठोस सच है। और यह फेसबुक पर ही संभव है कि आप अपनी खुशी का इजहार कर सकें। हमें यह कहते हुए कष्ट हो रहा है कि आप जिस अखबार के संपादक हैं वहां यह खबर पहले पन्ने पर तो छोडें किसी पन्ने पर भी नहीं छाप सकते। क्या आप अन्य किसी अखबार में नाती के होने और अपनी खुशी की खबर को छपवा सकते हैं? यह सिर्फ इंटरनेट–फेसबुक-ब्लॉग आदि में संभव है। अतः इंटरनेट के प्रति आप अपना नजरिया बदलें और गंभीरता पैदा करें। थानवी जी आप जानते हैं अखबार गंदे और घटिया भी निकलते हैं, संपादकों में ऐसे लोग हैं जो कमीने किस्म के हैं। लेकिन जनसत्ता वैसा अखबार नहीं है और आप एक अच्छे संपादक हैं। क्या गंदे अखबारों के कारण हम समूचे प्रेस को गाली दें या हंसी उडाएं? आपने फेसबुक-ब्लॉग पर लिखे को संभवतः ध्यान से नहीं पढ़ा है। वरना आप यह सब नहीं लिखते। एक प्रतिष्ठित अखबार के संपादक होने के नाते आपने अपने अखबार का इंटरनेट के खिलाफ दुरूपयोग किया है। उसके बारे में गलत राय प्रचारित की है। आपने जो बात कही है वह बात यदि कोई सामान्य व्यक्ति कहता तो उपेक्षा कर सकते थे, लेकिन एक संपादक कहे तो उपेक्षा की नहीं ,कड़ी आलोचना की जरूरत होती है। कायदे से आप ईमानदारी दिखाएं और अपने लेख के जबाब में इंटरनेट पर जो लेख आ रहे हैं उन्हें अपने अखबार में जगह दें ,यह लोकतंत्र और ईमानदार पत्रकारिता का तकाजा है।

थानवी साहब दूसरी बड़ी भूल आपने यह की है कि रीयलटाइम कम्युनिकेशन के माध्यमों में चल रही बहस पर आपने यथास्थान अपनी राय नहीं लिखी। वहां पर आप लिख सकते थे लेकिन आप अपनी संपादकीय हैसियत के नशे में चूर , संपादकीय सत्ता और पन्ने का दुरूपयोग करते हुए अपना लेख लिखने में लग गए। आपकी कोई राय है और वह नेट पर चल रही किसी बहस के बारे में है तो आपको यथास्थान अपनी राय व्यक्त करनी चाहिए। इससे संबंधित लोग अपनी राय भी दे सकें।

थानवी ने लिखा है- “उदाहरण के लिए हाल में इंटरनेट पर विकट चर्चा में रहे दो कवियों का मसला लें। विष्णु खरे और मंगलेश डबराल को लेकर कुछ लोगों ने रोष प्रकट किया। उन्हीं की विचारधारा वाले ‘सहोदर’ उन पर पिल पड़े। मंगलेश तो नेट-मार्गी हैं नहीं, इ-मेल भेज-भिजवा देते हैं। विष्णु खरे चौकन्ने होकर ब्लॉग-ब्लॉग की खबर रखते हैं, उन्हीं के शब्दों में- ‘‘(ताकि) देख पाऊं कि उनमें जहालत की कौन-सी ऊंचाइयां-नीचाइयां छुई जा रही हैं।’’ इसी सिलसिले में वे इंटरनेट पर नई पीढ़ी के जुझारू ब्लॉगरों- नेटवर्करों से जूझते देखे गए, डबराल नहीं। हालांकि डबराल की चुप्पी को लोग संदेह की नजर से देख रहे हैं।” इसके बाद थानवी ने विष्णु खरे, गुंटर ग्रास, मंगलेश डवराल, उदयप्रकाश आदि को अप्रासंगिक और गलत समझ के साथ घसीटा है।

थानवी का मानना हैकि लेखकों में आवाजाही रहनी चाहिए। विचारधारा की भिन्नता के बावजूद आवाजाही रहे। सवाल यह है कि इंटरनेट-फेसबुक-ब्लॉग आदि में लेखकों और पाठकों के बीच जो भी कम्युनिकेशन है वो वस्तुतः खुली आवाजाही है। लेकिन यह तो आपको पसंद नहीं है। लेखकों में दलबंदी है, पसंद-नापसंद, विचारधारात्मक मित्रता आदि फिनोमिना मिलते हैं। लेकिन यह तो अखबारों में भी है। मीडिया में भी है। देवताओं और दर्शन में भी है।वर्ग समाज में यह स्वाभाविक चीज है।

बुनियादी तौर पर ओम थानवी का लेख लक्ष्यहीन है और साहित्यिक पीतपत्रकारिता के नजरिए से लिखा गया है। इसमें लेखकों के प्रति उनके निजी दुराग्रह व्यक्त हुए हैं। आयरनी यह है कि लेख का शीर्षक है आवाजाही लेकिन इसमें बार बार उल्लिखित (विष्णु खरे, मंगलेश डबराल, उदयप्रकाश आदि) लेखकों के प्रति पूर्वाग्रह व्यक्त हुए हैं। दूसरी बात यह कि लेखक संगठनों और उनसे जुड़े लेखकों के बारे में थानवी ने जो लिखा है वह तथ्यहीन है। इससे यह भी संकेत मिलता है कि ओम थानवी को लेखक संगठनों की गतिविधियों और कार्यप्रणाली का ज्ञान नहीं है। भारत में लेखक संगठन बेहद कमजोर हैं। उनमें यदा-कदा संकीर्णता भी दिखती है, लेकिन आम लेखकों में संकीर्णता कम है।

लेखक संगठनों के बारे में एक बड़े अखबार के संपादक के रूप में ओमथानवी की टिप्पणी बताती है कि थानवी को लेखक संगठनों और हिन्दी लेखकों की मित्रता का कोई एहसास नहीं है। देखें- “प्रगति या जन-गण की बात करने वाले अपनी ही विचारधारा के घेरे में गोलबंद होने लगे, इसके लिए खुद ‘विचार’-वान लेखक कम कसूरवार नहीं हैं। पहले देश में कभी एक कम्युनिस्ट पार्टी थी और उसके पीछे चलने वाला एक लेखक संघ। पार्टी टूटी तो संघ के लेखक भी टूट गए। एक और लेखक संघ बना। बाद में एक और। इन लेखक संघों ने अक्सर अपने मत केलेखकों को ऊंचा उठाने की कोशिश की है और दूसरों को गिराने की। एक ही विचारधारा के होने के बावजूद लेखक संघों में राग-विराग देखा जाता है। लेखक का स्तर या वजन भी संघ के विश्वास के अनुरूप तय होने लगा है। इसी संकीर्णता की ताजा परिणति है कि कौन लेखक कहां जाए, कहां बैठे, क्या कहे, क्या सुने- इसका निर्णय भी अब लेखक संघ या सहमत-विचारों वाले दूसरे लेखक करने लगे हैं। ”

हिन्दी लेखक स्वभाव और व्यवहार में संकीर्ण नहीं है। यदि ऐसा होता तो नामवर सिंह तरूण विजय की किताब का लोकार्पण क्यों करते? उदयप्रकाश अवैद्यनाथ के साथ मंच पर क्यों जाते? मंगलेश डबराल संघ परिवार के बंदे के साथ एक ही मंच पर क्यों जाते? लेखकों का एक बहुत छोटा तबका है जो अनुदार है। अधिकांश लेखक उदार हैं। हां, एक चीज है जो लेखकों के नजरिए पर असर डाल रही है वह है गैर-पेशेवर हिन्दी का वातावरण। इस वातावरण को परवर्ती पूंजीवाद की संगति में विकसित होना चाहिए। हिन्दी लेखकों में अभी भी कबीलाई लक्षण बीच बीच में चमक मारते हैं।

ओम थानवी लेख लिखते समय तय करके बैठे थे, लेकिन लेख बन नहीं पाया, यही वजह है कि वे किसी एक मसले पर फोकस नहीं कर पाए हैं। वे प्रत्येक पैराग्राफ में विषयान्तर करते हैं। एक संपादक का विषय पर फोकस न करना बेहद त्रासद और दुखद है। संयोग से वे जनसत्ता जैसे अखबार के संपादक हैं जो अपने फोकस मिजाज के लिए जाना जाता है। लेखक का विषय पर स्थिर न रह पाना दो कारणों से होता है पहला सामग्री के अभाव, ज्ञान और सही परिप्रेक्ष्य के अभाव के कारण और दूसरा दिमागी गड़बड़ी के कारण। ओम थानवी के लेख पर पहला कारण एकदम सटीक बैठता है। काश! उन्होंने अज्ञेय की संगति में रहकर फोकस लेखन की कला ही सीखी होती। रही बात आवाजाही की तो अखबार, फिल्म आदि जनमाध्यमों में संकीर्णता है। रूढ़ियां हैं। इन माध्यमों की सीमा और संकीर्णताओं को इंटरनेट, फेसबुक और ब्लॉग लेखन ने हमेशा के लिए नष्ट कर दिया है। असल में इंटरनेट लेखन और लेखक के जीवन में छलांग है। क्रांति है। इसे हल्के फुल्के माध्यम के रूप में देखने की भूल नहीं करनी चाहिए।

5 COMMENTS

  1. किसी भी प्रकार की छुआछूत से वैचारिकता तो नहीं बढ़ेगी हाँ गुटबंदी जरूर. यह पूरा आलेख नमी गिरामी पत्रकारों की घटिया सोच और कीचड उच्चल है जो हमरे जैसे लोगों का समय बर्बाद करनेवाला है

  2. चतुर्वेदी जी को ओम थानवी की नेट-नकारता पर क्षोभ है. संवाद के एक सशक्त माध्यम से उन के अनभिग्य होने के बावजूद वे उनको एक अच्छा संपादक भी मान रहे हैं. कैसे/ समझ से परे है. ये उन का बड़प्पन होगा. लेकिन मुझे थानवी जी के एक अच्छा संपादक होने में भी शक है. सिर्फ ‘जनसत्ता’ की नौकरी ही किसी शीर्सस्थ के अच्छा संपादक हो जाने की गारंटी नहीं हो सकती. सच ये है कि जनसत्ता में उन के आने के बाद से न अखबार का कभी प्रसार बढ़ा है, न आकार, न प्रतिष्ठा. संस्करण बढ़े हैं तो वे फर्जी हैं.
    मिसाल के तौर पर चंडीगढ़ संस्करण. पांच प्रतियां भी उसकी छपती होंगी तो बड़ी बात है. जिस चंडीगढ़ से वो छपता है खुद उस शहर में उस का एक भी स्टाफ रिपोर्टर नहीं है. और तो और स्थानीय संपादक के रूप में जिन मुकेश भारद्वाज का नाम जाता है वो अंग्रेजी के इंडियन एक्सप्रेस प्रमुख संवाददाता हैं. संपादक के रूप में उनका कोई दफ्तर, स्टाफ, वेतनमान, वाहन या लेखन नहीं है. 1987 में चंडीगढ़ आया प्रभाष जोशी का जनसत्ता कब का बंद हो चुका है. पहली बार मुश्किल से एक तिहाई सीते ला पाए बंसी लाल की हरियाणा में आंधी(?) लाने और फिर उस के बाद लाख कोशिशों के बावजूद हिमाचल में वीरभद्र की सरकार न बनवा पाने के बाद.
    संपादक का पता नहीं लेकिन उन के पत्रकार होने(?) का एक अनुभव मेरा भी है. मैं छोड़ चुका था जनसत्ता उनके आने से पहले. एक साप्ताहिक अखबार में था जब एक बड़ी और तुरत ध्यान देने योग्य घटना की सूचना देना, भावनात्मक कारण से भी, में जनसत्ता को देना ज़रूरी समझा. थानवी जी को लग गया फोन. बात सुनने से पहले ही बोले थे वे कि इतनी बड़ी घटना है तो मेरे रिपोर्टरों को पता ही होगा. मैं नहीं समझता कि उन्हें आपसे किसी जानकारी की ज़रूरत होगी…वो घटना, वो खबर जनसत्ता में कभी नहीं छपी. अखबार अपने स्रोतों, पाठकों और खुद मैनेजमेंट की भी नज़र से गिरता गिराता पहले चंडीगढ़ में बंद हुआ. फिर दिल्ली में खुद एक्सप्रेस की बिल्डिंग से भी नोयडा जाता रहा. सब जानते हैं कि अपने अंतिम दिनों में खुद प्रभाष जी ने भी ओम थानवी के जनसत्ता में जाना बंद कर दिया था. शारीरिक नहीं, मानसिक रूप से भी. उन ने मुझ से कहा था उन्होंने दखल देना बंद कर दिया है.
    जिस जनसत्ता के संपादक ओम थानवी आज हैं वो प्रभाष जोशी वाला जनसत्ता है भी नहीं. प्रभाष जोशी के जनसत्ता में बच्चे जैसा दिखने वाला मगर एक्टिविस्ट हो चुकने की हद तक चला गया कामरेड राजेश जोशी था तो किन्हीं तीन से मिल न पाने वाली विचारधारा वाले दयाकृष्ण जोशी, राम बहादुर राय और आलोक तोमर भी. आज जनसत्ता के भीतर और बाहर आपस में विरोधाभासों वाले लोग और लेखन कहाँ हैं? बल्कि लगता है कि जैसे जनसत्ता को किसी से किसी जुड़ाव की ज़रूरत ही नहीं है. न इस जैसे जनसत्ता की मालिकों को.

  3. ओम थानवी जी का इन्टरनेट के बरअक्स कुछ जल्दबाजी में दिया गया सा बयान लगे…और वे जनसत्ता जैसे एक बड़े अखबार के संपादक हैं, तो कुछ अनचाहा सा बयान भी…
    सभी नहीं, पर ज्यादातर लेखक और मित्रों को इन्टरनेट ब्लॉग पर पढ़ते हैं तो उनमें जीवन की, हमारे विद्रूप समय की, कला अभिमत की, समाज जीवन की, आधुनिकता वगैरा की प्रतिबद्ध गहराई दिखे और उनके सरोकार भी आशास्पद से लगे…कहीं उथलापन भी है…प्रबुद्ध-अबुद्ध सभी के परस्पर संपर्कों में इजाफा बराबर हुआ है, और हो रहा है…राष्ट्र के दूर दराज़ के कोने-कोने में बसे लोगों की एक दुसरे से पहचान इन्टरनेट के ज़रिये सहज बनी है जो हमारे समय की एक उपलब्धि है…बहरहाल इन्टरनेट अब कोई ऊंची दीवार का सूराख (होल) नहीं है जिसे हथेलियों से रोका जा सके…और इन्टरनेट द्वारा स्थापित होते मानवीय संपर्क-संबंध एकांगी मानवीय त्रासदियों में भी कमी लाएंगे…इन्टरनेट और ब्लोग्स का एक बड़ा सा टूल है ‘टिपण्णी’ जो यहाँ अपनी सोलिड जगह बनाए हुए है…

    चतुर्वेदी जी आपके इससे पहले के दो आलेख अभी अधूरे ही पढ़े हैं जिसे पढना ही पढना है…आपके विश्लेषण नीरक्षीर हैं जो हम सभी के लिए अती आवश्यक और आँखे खोलने वाले हैं…और एक ईमानदार पारदर्शिता कि हमारे सभी के अंतर-बाह्य जीवन कैसे होनी चाहिए उसकी ओर भी सांकेतिक है…आपकी विषय परख और जानकारी मौलिक है और अभिव्यक्ति सत्यनिष्ठ सी…

  4. पूरा लेख पढ़ लिया पर समझ नहीं आया कि आप कहना क्या चाहते हैं|
    ओम थानवी की निंदा कर रहे हैं या लेखकों की गुटबाजी को जायज ठहरा रहे हैं?
    ये एक प्रतिक्रियात्मक लेख है| लगता है कि आपको भी ये आवाजाही कम पसन्द है|

    आपने इसी लेख में कहा- “हिन्दी लेखक स्वभाव और व्यवहार में संकीर्ण नहीं है। यदि ऐसा होता तो नामवर सिंह तरूण विजय की किताब का लोकार्पण क्यों करते? उदयप्रकाश अवैद्यनाथ के साथ मंच पर क्यों जाते? मंगलेश डबराल संघ परिवार के बंदे के साथ एक ही मंच पर क्यों जाते?”
    बिलकुल सही बात है| पर इसके बाद इनके साथ क्या हुआ? बाद की बात आप गोल कर गए, क्यूँ? पूरी बात कहिये श्रीमान

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here