जनकवि नागार्जुन को भूले ओम थानवी

राजीव रंजन प्रसाद

प्रतिष्ठित समाचारपत्र जनसत्ता के सम्पादक ओम थानवी का काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में 16 मई को आना कई अर्थों मंे महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है. हिन्दी पट्टी जिसमें इन दिनों हिन्दी-जगत के कई ख़्यातनाम साहित्यकारों की जन्मशती मनायी जा रही है; वहाँ ओम थानवी का महामना के परिसर में स्वयं उपस्थित होकर ‘अज्ञेय की याद’ विषयक गोष्ठी में बोलना या अज्ञेय से सम्बन्धित संस्मरण को बाँटना सुखद और प्रीतिकर दोनों है. विश्वविद्यालय के भोजपुरी अध्ययन केन्द्र की ओर से आयोजित इस विशिष्ट व्याख्यान में श्री थानवी बतौर मुख्य अतिथि उपस्थित थे. उन्हें सुनने की लालसा या लोभ इसलिए भी मन में पैठी थी कि वर्तमान में जब हिन्दी पत्रकारिता अपने समस्त मानकों, कसौटियों तथा लक्ष्मण-रेखा को पूरी निर्लज्जता के साथ लाँघ रही है, जनसत्ता इन प्रवृत्तियों के उलट एक अनूठे मिसाल के रूप में हाजिर है. श्री थानवी ने अपने उद्बोधन में कहा कि जनसत्ता कम लोग पढ़ते हैं, किन्तु अच्छे लोग पढ़ते हैं. मैंने अपने अख़बार में एक दक्षिणपंथी तरुण विजय को जगह दिया. यह वही तरुण विजय हैं जो 20 वर्षों तक पांन्न्चजन्य में सम्पादक रहे और अपने पत्र में किसी वामपंथी या किसी दूसरे विचाराधारा के लोगों को नहीं छापा. दरअसल, हमारे अन्दर इतनी सहिष्णुता होनी चाहिए कि गैर-विचारधारा के लोगों को भी अपने पत्र में जगह दे सकें.

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के राधाकृष्णन सभागार में बोलते वक्त ओम थानवी काफी चुस्त दिखे. उन्होंने सीधे शब्दों में कहा कि इन दिनों हिन्दी के बौद्धिक-लोक में साहित्यकार अज्ञेय को लेकर कई तरह की चर्चाएँ पटल पर हैं. उनके प्रति कई तरह के दुराग्रह प्रचारित व प्रायोजित हैं. लांछन और आरोप के कई नगीने जुबानी आधार पर जड़े जा रहे हैं. आजकल साहित्यिक अवदान से ज्यादा महत्त्वपूर्ण साहित्यकार का व्यक्तित्व हो गया है जिसका सार्वजनिक चीर-फाड़ करना आज के वरिष्ठ साहित्यकारों के लिए ‘न्यू ट्रेंड’ बन चुका है. अज्ञेय के व्यक्तित्व के बारे में चर्चाएँ बहुत होती हैं जबकि उनके लिखे का मूल्यांकन कम होता है. एक पूरी पीढ़ी अज्ञेय को न पढ़ने के लिए प्रेरित की गई. उनसे जुड़ी कई तरह की अफवाहें जैसे वे लंपट थे, कई शादियाँ की थीं, नपुंसक थे, एक अवैध संतान था आदि प्रचलित हैं. कई लोग उन्हें चुप और मनहूस कहते हैं. कुछ ने तो उन्हें चिम्पेजी तक कह डाला है. जबकि अज्ञेय का जो रेंज या कहें फलक है, वह कोई दूसरा व्यक्ति नहीं पूरा कर सकता था.

ओम थानवी के इन बातों से काफी हद तक सहमत हुआ जा सकता है. आजकल साहित्य में बौद्धिक-वितंडावाद खड़े किए जाना कोई नई बात नहीं है. अतार्किक या अपुष्ट मत-प्रत्यारोपण एक नए तरह की बौद्धिक-व्याधि है जिससे आज का हिन्दी साहित्य-जगत रोगग्रस्त है. साहित्य का प्रकाश-पुँज अन्धेरे में गुम है. साहित्य में अंकुरित नए विद्यार्थी जो साहित्य को सृजन और सात्त्विक शुद्धिकरण का जरिया मानकर इस ओर अध्ययन हेतु प्रवृत्त होते हैं; इन ‘अवांछित प्रकरणों’ से भयभीत होते हैं, ख़ौफ खाते हैं. श्री थानवी से उम्मीद थी कि वे अज्ञेय के कृतित्व और व्यक्तित्व का दिग्दर्शन कराएंगे, किन्तु वे अन्तिम तक श्रोताओं को यही समझाने में लगे रहे कि कैसे अज्ञेय अंग्रेजों के आदमी या फिर सीआईए के एजेण्ट नहीं थे. उनका ‘थाॅट’ नाम की उस पत्रिका से कोई वास्ता-रिश्ता नहीं था जिसे सीआईए द्वारा प्रकाशन की राशि उपलब्ध करायी जाती थी.

शुरू में ही अज्ञेय के व्यक्तित्व के दो रूपों का हवाला देते हुए श्री थानवी ने कहा कि आलोचकों की बात भी सही है. वे मौन के लिए प्रसिद्ध हैं. लेकिन उनके मौन में भी संवाद अन्तर्निहित था. उनका मौन निपट मौन था. उनकी मौन को सुनने के लिए हमारे पास धैर्य और साहस होना चाहिए. अज्ञेय के बारे में बताते हुए श्री थानवी ने कहा कि एक व्यक्ति जो साहित्य की बात करता था; उसी घड़ी, उसी समय में वह कला-संस्कृति, समाज और राजनीति की भी बात करता था. ‘दिनमान’ इसका उदाहरण है. उन्होंने इसी क्रम में कहा कि अज्ञेय की तारीफ के लिए माक्र्सवादी/वामपंथी जो किसी समय उनके विचारधारा से इत्तेफाक नहीं रखते थे, वे भी अब अज्ञेय की प्रशंसा के लिए मंच ढंूढ रहे हैं. आज कई विचारधाराओं को मानने वाले ढेरों हैं. लेकिन मेरी दृष्टि में सर्वहारा की बात करने वाला कोई एक भी ऐसा जनवादी या प्रगतिशील लेखक नहीं है जो अपने पुरस्कार का पैसा बाँटा हो. श्री थानवी के इस कथन से कई लोग असहमत दिखें. बाद में उन्हें इस बात से अवगत कराया गया कि कई ऐसे भी उच्च प्रतिष्ठा से सम्मानित और जन-मर्यादित साहित्यकार हैं जिन्होंने पुरस्कार की सरकारी राशि ग्रहण करने से ही इंकार कर दिया. एक उदाहरण तो पण्डित जानकी वल्लभ शास्त्री ही हैं जिनका हाल ही में निधन हुआ है. दूसरे लेखकों में रामविलास शर्मा से लेकर वर्तमान में पंकज विष्ट जैसे जीवित उदाहरण मौजूद हैं जिन्होंने पुरस्कार की समस्त राशि वंचित-पीडि़त जनता के बीच भेंट कर दिया. श्री थानवी ने मंच से बोलते हुए कहा कि यह वर्ष न केवल अज्ञेय का जन्मशती वर्ष है, बल्कि शमशेर और केदारनाथ अग्रवाल का भी जन्मशती वर्ष है. मंच से याद दिलाने पर श्री थानवी ने फैज अहमद फैज का नाम अवश्य लिया, किन्तु जनकवि बाबा नागार्जुन का नाम लेना भूल गए.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here