उमर अब्दुल्ला के रोड़े ने लगावाया राष्ट्रपति शासन

सुरेश हिन्दुस्थानी
जम्मू-कश्मीर में सरकार गठन की प्रक्रिया के बीच आखिरकार राष्ट्रपति शासन लागू हो गया। इससे पूर्व कार्यवाहक मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के कार्यवाहक मुख्यमंत्री से हटने की बात ने राज्य के राजनीतिक हालात में नया मोड़ ला दिया था। जम्मू कश्मीर के कार्यवाहक मुख्यमंत्री रहे उमर अब्दुल्ला ने कार्यवाहक मुख्यमंत्री पद की जिम्मेवारी छोडऩे का निर्णय लिया है, उससे राज्य में केवल राष्ट्रपति शासन का ही विकल्प नजर आ रहा था। उमर ने राज्यपाल एनएन वोहरा से कहा है कि सीमा पर स्थिति और बाढ़ पीडि़तों की समस्या को देखते हुए राज्य को पूर्णकालिक प्रशासक की जरूरत है। उमर अब्दुल्ला के इस फैसले के बाद राज्यपाल पर राज्य में जल्द सरकार गठित कराने का दबाव बढ़ गया था, ऐसी स्थिति में अगर सरकार का गठन नहीं हुआ तो संवैधानिक मर्यादाओं के तहत सत्ता का संचालन जरूरी था और ऐसे में राष्ट्रपति शासन का लगना तय हो गया था। संवैधानिक सीमाओं के कारण जम्मू कश्मीर में 19 जनवरी के पहले सरकार गठन होना आवश्यक था, क्योंकि वर्तमान विधानसभा का कार्यकाल इतने ही समय के लिए था। अगर इस अवधि में राज्य में सरकार गठन नहीं हो सकता है राज्य में राज्यपाल शासन का विकल्प ही बचता था।
उमर अब्दुल्ला के इस कदम से राज्य में लोकतांत्रिक सरकार के गठन की प्रक्रिया को झटका जरूर लगा है। जम्मू कश्मीर की 87 सदस्यीय विधानसभा में पिछले महीने हुए चुनाव में पीडीपी को सर्वाधिक 28 सीटें मिली हैं, जबकि 25 सीटों के साथ भाजपा दूसरे नंबर पर है, वहीं, नेशनल कान्फ्रेंस को 15 सीटें मिली हैं, कांग्रेस को 12 सीटें व छोटे दलों एवं निर्दलियों को सात सीटें मिली हैं। पिछले दिनों राज्य की प्रमुख पार्टियों के नेताओं से सरकार गठन के सवाल पर राज्यपाल एनएन बोहरा ने चर्चा की थी और इस चर्चा के बाद पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ने यह संकेत दिया था कि उसका रुख नरम है और वह राज्य में भाजपा के साथ सरकार बना सकती है। उस दौरान मुफ्ती ने भाजपा के शीर्ष नेता व पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तारीफ भी की थी। यह अलग बात है कि इन संकेतों के बावजूद राज्य में अब तक सरकार गठन की प्रक्रिया गति पकड़ती नहीं दिख रही है। लेकिन यह भी सत्य है कि इन्हीं दोनों दलों के बीच ही सरकार गठन की वार्ता चल रही है।
जम्मू कश्मीर में चुनाव के बाद जो राजनीतिक तस्वीर सामने आई है, उससे उमर अब्दुल्ला और कांगे्रस को जबरदस्त झटका लगा। राष्ट्रीय पार्टी का तमगा लटकाए कांगे्रस कई राज्यों के साथ जम्मू कश्मीर में भी चौथे स्थान पर है, इसलिए कांगे्रस तो किसी भी प्रकार की राजनीतिक भूमिका में नहीं है। कांगे्रस के पास केवल ताकते रहने के अलावा कोई काम ही नहीं है। यही कांगे्रस के लिए बहुत ही शर्मिन्दगी वाली स्थिति है कि राज्य में उसकी जोड़ीदार रही नेशनल कांफे्रंस भी कमोवेश इसी प्रकार की हालत में है। हालांकि नेशनल कांफ्रेंस को तीसरा स्थान मिला है। इन सभी बातों से एक बात जरूर साफ हो रही है कि जम्मू कश्मीर में पीडीपी और भाजपा को बहुमत मिला है। जरा विचार करें कि अगर जम्मू और कश्मीर अलग अलग राज्य होते तो क्या स्थिति रहती। स्पष्ट है कि जम्मू में भाजपा की और कश्मीर में पीडीपी की स्पष्ट बहुमत वाली सरकार बनती। जम्मू कश्मीर की वास्तविक स्थिति तो यही है कि वहां तीन राज्य हैं, जो वर्तमान में एक नाम जम्मू कश्मीर के नाम से संचालित हो रहा है। जम्मू कश्मीर में जब दो बड़े दल सरकार बनाने के लिए अपनी सक्रियता दिखा रहे हैं, तब उमर अबदुल्ला को इस प्रकार का राजनीतिक पेच नहीं फंसाना चाहिए। जम्मू कश्मीर में जनादेश उमर अबदुल्ला के पक्ष में कतई नहीं हैं, लेकिन उन्होंने देश में चली आ रही एक परिपाटी का मखौल उड़ाया है, हम जानते हैं कि नई सरकार बनने तक प्रदेश में वर्तमान मुख्यमंत्री को ही कार्यवाहक मुख्यमंत्री बनाए रखना पड़ता है। जो सवाल उमर अबदुल्ला ने उठाया है वह यह है कि बाढ़ पीडि़तों की समस्या को देखते हुए राज्य में पूर्णकालिक प्रशासक जरूरी है, बात तो उनकी सही है, लेकिन फिर सवाल पर सवाल, उमर अबदुल्ला ने अपने पूर्णकालिक मुख्यमंत्री रहते हुए इतनी सक्रियता क्यों नहीं दिखाई?
नेशनल कांफे्रंस के नेता और जम्मू कश्मीर के कार्यवाहक मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को जब यह लगने लगा कि राज्य में उनकी पार्टी को वह सम्मान प्राप्त नहीं हो रहा, जो आज पीडीपी और भारतीय जनता पार्टी को मिल रहा है, तो उसने इस प्रकार का कदम उठाया है, ऐसा लगने लगा है। सरकार गठन के लिए दोनों दलों भाजपा और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी(पीडीपी) के बीच बातचीत के दौर में अचानक उमर अब्दुल्ला का अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होने का निर्णय कई सवाल उठा रहा है। उमर के सामने ऐसी क्या मजबूरी आ गई कि वह 19 जनवरी तक अपनी जिम्मेदारी नहीं संभाल पा रहे हैं। क्या उन पर भीतरी या बाहरी दबाव है, या फिर उनका यह कदम सोची समझी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा है जिससे सरकार गठन की प्रक्रिया में रुकावट आए और राज्य राष्ट्रपति शासन की ओर बढ़े। जम्मू-कश्मीर में आए चुनाव नतीजे वाकई चौंकाने वाले रहे हैं। विधानसभा चुनाव में राज्य में दूसरे नम्बर की पार्टी के रूप में उभर कर आई भाजपा के अस्तित्व को अलगाववादी और पाकिस्तान से संचालित राज्य की राजनैतिक ताकतें भले ही नहीं पचा पाएं लेकिन इन चुनाव नतीजों ने यह स्पष्ट कर दिया कि जम्मू-कश्मीर के लोग अब खुली हवा में सांस लेना चाहते हैं और पहली बार किसी राजनैतिक दल ने उन्हें उनकी उम्मीदों और अपेक्षाओं का अहसास किया है। कांग्रेस, नेशनल कॉंफ्रेंस के राज की असलियत समझ चुकी राज्य की जनता अब राज्य का विकास चाहती है। सालों से आतंकवाद का दंश झेल रहे इस राज्य ने आतंक की आग में खोया ही है। हर समय दहशत के साये में जी रहे लोगों के सामने पहली बार अवसर और विकल्प नजर आए हैं। अलगाववादी और कथित राजनीतिक ताकतें यही चाहती हैं कि राज्य का सालों पुराना ढर्रा पटरी से न उतरे। हिंसा और आतंक की आड़ में राजनीति करने वाली ताकतें पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी(पीडीपी) पर भी दबाव बनाने से नहीं चूक रही हैं। कार्यवाहक मुख्यमंत्री रहे उमर अब्दुल्ला का कदम भी कुछ इसी तरह का आभास देता है। कैसे भी हो भाजपा के कदमों को रोका जाए। ऐसा नहीं है कि उमर अब्दुल्ला अगर कार्यवाहक मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी से मुक्त हुए और राष्ट्रपति शासन भी लग जाए तो नई सरकार के गठन की प्रक्रिया थम जाएगी। जैसी कि खबरें हैं भाजपा और पीडीपी दोनों ही दलों के बीच बातचीत जारी है। दोनों ही दल राज्य के हितों को सर्वोपरि रख कर सरकार के गठन की संभावनाएं तलाश रहे हैं। उमर अब्दुल्ला के कार्यवाहक मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद जम्मू-कश्मीर में सरकार के गठन नहीं होने तक राज्य में राष्ट्रपति शासन ही विकल्प बचा था, क्योंकि अभी तक सरकार बनाने के लिए कोई भी दल या गठबंधन सामने नहीं आया है।

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