लोकपाल पर आरक्षण की आंच

भ्रष्टाचार के खात्मे हेतु जिस मजबूत लोकपाल की मांग की जा रही है, अब उसमें कुछ स्वार्थी तत्व पलीता लगाने में जुट गए हैं| अन्ना टीम और सरकार के बीच लोकपाल पर ज़ारी जंग के बीच बुधवार को संसद भवन के बाहर बी. आर. अंबेडकर की प्रतिमा के निकट करीब १६३ एस.सी.-एस.टी. सांसद लोकपाल में आरक्षण की मांग को लेकर धरने पर बैठ गए| इन सांसदों का नेतृत्व लोजपा प्रमुख रामविलास पासवान कर रहे थे| सभी सांसदों ने अपनी मांग को लेकर प्रधानमंत्री को एक ज्ञापन भी सौंपा| रामविलास पासवान का कहना है कि लोकपाल को सामजिक न्याय के सिद्धांतों का अनुसरण करना चाहिए और इसके लिए लोकपाल के पैनल में समाज के सभी पिछड़ा वर्गों और महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए| उन्होंने सरकार और टीम अन्ना की मंशा पर भी सवाल उठाते हुए कहा कि इस मसले पर न तो सरकार; न ही टीम अन्ना गंभीर है| पासवान की बातों से तो लगता है कि लोकपाल का अस्तित्व ही खतरे में पड़ने वाला है या हो सकता है जो लोकपाल आए वह इतने बंधनों में हो कि उसका भ्रष्टाचार की लड़ाई से हारना तय हो| यह भी हो सकता है कि पासवान का यह पांसा यू.पी.ए. को अस्थिर करना मात्र हो या पासवान भी केंद्र में मंत्री पद के इच्छुक हों और सरकार लोकपाल पर बढती रार के मद्देनज़र उन्हें मंत्री पद नवाज़ दे| पासवान जैसे मौकापरस्तों से देश और उम्मीद ही क्या कर सकता है?

हमेशा दलित राजनीति को अपनी ढ़ाल बनाकर पासवान ने राजनीति में स्वयं को प्रासंगिक रखा है| केंद्र में किसी भी पार्टी की सरकार हो; पासवान को हमेशा तव्वजो दी जाती है| हमारे देश के लोकतंत्र की यह अजब विडम्बना है कि अपनी पार्टी लोजपा के एक-दो सांसदों के बल पर पासवान कई बार किंगमेकर की भूमिका निभाते नज़र आए हैं| मगर पिछले वर्ष हुए बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा-जनता दल (यू) के गठबंधन ने पासवान की राजनीति की धार ही कुंद कर दी थी| ऐसे में पासवान को कहीं तो ठौर चाहिए था और ज़ाहिर है उनकी खोज वर्तमान यू.पी.ए सरकार पर जाकर खत्म हुई| अब पासवान बेवजह के बयानों द्वारा अपने हित साध रहे हैं| ज़रा सोचिए, दलितों के विकास और उनके सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक पुनरुथान की बात करने तथा स्वयं को दलितों का मसीहा कहाने वाले पासवान क्या कहीं से भी दलित चेहरा नज़र आते हैं? हमेशा बोतलबंद पानी पीने और उसी से हाथ धोने वाले पासवान पंचसितारा जीवन-शैली को अंगीकार करते है| हाई-प्रोफाइल रहन-सहन तथा गिरगिट की भांति रंग बदलने वाले पासवान शायद सोच रहे हों कि यह आखिरी मौका है जब यू.पी.ए. सरकार लोकपाल मुद्दे पर चौतरफा घिरी हुई है; तो उसे और अधिक दबाव में लाकर अपने हित साध लिए जाएँ| आखिर एक सशक्त एवं प्रभावी लोकपाल में जाति, वर्ण एवं कौम के आरक्षण का क्या काम? क्या पहले ही आरक्षण के कारण देश में असमानता नहीं बढ़ रही है, क्या पढ़े-लिखे युवाओं में आरक्षण को लेकर रोष नहीं है? तब पासवान क्यों लोकपाल में आरक्षण की मांग कर रहे हैं? इससे तो देश के लोगों एवं युवाओं में गलत संदेश जाएगा|

लोजपा प्रमुख की लोकपाल में आरक्षण की मांग यक़ीनन राजनीति से प्रेरित है| अभी लोकपाल पर अन्ना टीम और सरकार के बीच तकरार चरम पर है| कभी सरकार अपना रुख नरम करती है तो कहीं टीम अन्ना संसदीय प्रणाली पर भरोसा जताती है| ऐसे में जब लोकपाल के अस्तित्व का ही पाता नहीं कि उसका स्वरुप क्या होगा और उसके पास कितने अधिकार होंगे, आरक्षण की मांग बेमानी है| फिर जो भी लोकपाल आएगा वह जाति, धर्म, वर्ण, कौम इत्यादि से इतर पूरी निष्पक्षता से अपने अधिकारों का प्रयोग करेगा| हो सकता है पासवान को यह डर सता रहा हो कि यदि कोई सवर्ण लोकपाल पद पर आसीन हुआ तो उसका दलित समुदाय के प्रति नजरिया अच्छा नहीं होगा| क्या वर्तमान युग में ऐसा होना संभव है? जो मीडिया अन्ना के आंदोलन को विश्व पटल पर अंकित करवा सकता है, क्या वह लोकपाल के क्रिया-कलापों पर नज़र नहीं रखेगा? फिर सवर्णों में अब यह मानसिकता जाती रही है कि यदि कोई दलित है तो उसे बे-वजह परेशान किया जाए| हाँ, “दलित” शब्द की आड़ में कुछ लोगों ने ज़रूर अपने गिरेबान को सफ़ेद रखा हुआ है| याद कीजिये, जज दीनाकरन के मामले में क्या हुआ था? उन्होंने स्वयं को बचाने हेतु यह आरोप लगा दिया था कि वे तो बेक़सूर हैं, उन्हें केवल दलित होने के कारण परेशान किया जा रहा है| खैर; जांच में उनपर लगे आरोप सत्य पाए गए लेकिन स्वयं को बचाने के लिए उन्होंने “दलित” शब्द को जबर्दस्त इस्तेमाल किया| जब देश में ऐसी मानसिकता के लोग भरे पड़े हैं तो कानून और व्यवस्था कैसे अपना काम कर पाएगी; समझा जा सकता है|

रामविलास पासवान जिस तरह की जाति आधारित राजनीति कर रहे हैं, वह देशहित में कदापि उचित नहीं है| फिर पासवान एक ओर तो लोकपाल में आरक्षण की मांग करते हैं और स्वयं लोकपाल पर संसद की स्थायी समिति के सदस्य होने के बावजूद उन्होंने स्थायी समिति की बैठकों का बहिष्कार किया| देश-हित के मुद्दे पर हमेशा गायब रहने वाले पासवान लोकपाल में आरक्षण की मांग पर इतने मुखर क्यों हैं? सरकार को चाहिए कि वह दबाव में न आते हुए पासवान की मांग को खारिज करे और एक सशक्त लोकपाल के अस्तित्व में आने का मार्ग प्रशस्त करे|

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सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

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