एक बिहार में शिक्षा के दो रूप

राजीव कुमार सिंह

कभी देश के मानचित्र पर बिहार एक ऐसे राज्य के रूप जाना जाता था जहां विकास नाममात्र की थी। लेकिन आज स्थिति बदल चुकी है। बिहार तेजी से तरक्की करता देश का दूसरा राज्य बन चुका है। यहां अर्थव्यवस्थाएं फलफूल रहीं हैं। सड़कों का निर्माण हो रहा है। गांव-गांव तक बिजली पहुंचार्इ जा रही है। दो जून रोटी के लिए पलायन रूकने लगा है। शिक्षा के क्षेत्र में भी यह अन्य राज्यों के मुकाबले निचले पायदान पर रहता था। परंतु अब यह भी पढ़ने लिखने लगा है। साक्षरता में इस वक्त बिहार की उपलबिधयों को राष्ट्रीलय स्तर पर सराहा जा रहा है। 2011 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार बिहार ने महिला साक्षरता में देश में सर्वाधिक दशकीय वृद्धि 20.21 प्रतिशत हासिल की है। इसके साथ ही संपूर्ण साक्षरता में भी इस राज्य ने सर्वाधिक दशकीय वृद्धि दर 16.82 फीसदी हासिल की है।

बिहार की इस अविस्मरणीय उपलबिध पर उसे पिछले वर्ष 8 सितंबर को अंतरराष्ट्रीरय साक्षरता दिवस के अवसर पर दशकीय साक्षरता अवार्ड से सम्मानित किया गया था। संभवत: साक्षरता के लिए राज्य को पहली बार कोर्इ सम्मान दिया गया है। बिहार को यह सम्मान प्राप्त होना इस बात का गवाह है कि राज्य में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए बहुत कुछ किया जा रहा है। सरकारी आंकड़ों पर नजर डाले तो पता चलता है कि राज्य में वर्षों से खाली पड़े शिक्षकों के पदों को भरने का काम जारी है। वहीं पंचायती राज संस्थाएं एवं नगर निकायों के माध्यम से नये स्कूलों की स्वीकृति भी प्रदान की गर्इ है। स्कूल भवनों का निर्माण किया गया है। बालिका शिक्षा पर विशेष रूप से जोर दिया जा रहा है। स्कूल जाने वाली बचिचयों को पोशाक और सार्इकिलों के लिए धन राशि दी जा रही है। मुख्यमंत्री समग्र विधालय विकास कार्यक्रम के अंतर्गत शिक्षा की बुनियादी चीजों को बेहतर बनाया जा रहा है।

परंतु इन उपलब्धियों के बीच अब भी कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहां शिक्षा के साथ, यूं कहा जाए कि मजाक किया जा रहा है तो कोर्इ गलत नहीं होगा। बेहतर शिक्षा के लिए स्कूल में शैक्षणिक वातावरण के अतिरिक्त समय पर उपलब्ध किताबें तथा योग्य शिक्षकों का होना आवश्यवक है। परंतु मधुबनी सिथत बिस्फी ब्लाक अंतर्गत विद्यापति हार्इ स्कूल में शैक्षणिक वातावरण का यही अभाव स्पष्टा रूप से झलकता है। बिस्फी संस्कृत तथा मैथिली के महान कवि विद्यापति की जन्मभूमि रही है। जिन्होंने अपने काव्य रचना से संस्कृत को अमर पहचान दी है। उनके नाम से स्थापित इस स्कूल में तकरीबन 900 छात्र हैं जिनमें 40 प्रतिशत छात्राएं हैं। यह स्कूल क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण शैक्षणिक संस्था के रूप में अपनी विशिष्टस पहचान रखता है। लेकिन इसके बावजूद यहां का छात्रों को बुनियादी सुविधाओं का सामना करना पड़ता है। न तो स्कूल में रौशनी की कोर्इ सुविधा है और न ही पुस्तकालय की। स्कूल में केवल पांच कमरे हैं जिनमें सभी कक्षाओं को चलाना संभव नहीं है। कमरों की कमी के कारण 9वीं कक्षा के छात्रों को जमीन में बैठकर पढ़ार्इ करनी होती है। चिंता की बात तो यह है कि स्कूल में छात्राओं के लिए षौचालय का भी विशेष प्रबंध नहीं है जो सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश की अवहेलना है जिसमें मार्च से पहले अस्थार्इ रूप से शौचालय बनाने की बात कही गर्इ है।

दो वर्ष पूर्व ही इस स्कूल का दर्जा 10वीं से बढ़ाकर 12वीं तक कर दिया गया। जिससे यहां के छात्रों को 12वीं की पढ़ार्इ के लिए दूर दराज अथवा शहर जाने के झंझट से मुकित मिलने वाली थी। परंतु शिक्षकों के अभाव में अब तक यह शुरू नहीं हो सका है। यहां तक के जीव विज्ञान, भूगोल तथा उर्दू के शिक्षक का पद कर्इ वर्षों से खाली पड़ा है। स्कूल के पी.टी शिक्षक तथा लाइब्रेरियन शिक्षकों की कमी को पूरा करने के लिए छात्रों को पढ़ाने का कार्य करते हैं। खास बात तो यह है कि स्कूल से महज सौ मीटर की दूरी पर बीडीओ का कार्यालय हैं। जहां क्षेत्र सहित स्कूल की विभिन्न योजनाएं बनार्इ जाती हैं लेकिन इसके बावजूद इस स्कूल के छात्र सुविधाओं के अभाव शिक्षा ग्रहण करने को मजबूर हैं। लेखक ने जब संबंध में बीडीओ से बात की तो उन्हें स्कूल में सुविधाओं की कमी पर किसी प्रकार का आश्चार्य नहीं हुआ। उनका जवाब था कि यह बिहार के किसी एक स्कूल की कहानी नहीं है बलिक कर्इ स्कूल ऐसी ही बुनियादी सुविधाओं की कमी से जूझ रहे हैं।

प्रश्नव यह उठता है कि जब हमारे बच्चे ऐसी कमजोर शिक्षातंत्र में तैयार होंगे तो हम उनसे भूमंडलीकृत विश्वक में बेहतर सेवा देने के काबिल होने की आशा कैसे कर सकते हैं? छात्र देश के भविष्यल कहलाते हैं परंतु आधारहीन शिक्षा प्रदान कर क्या हम उनके कंधों पर भविश्य की योजनाओं की जिम्मेदारी सौंपने का हक रखते हैं? यह एक ऐसा प्रश्नल है जिसपर गंभीरता से विचार करने की आवश्य कता है। नियमानुसार 40 छात्रों पर एक शिक्षक की नियुकित अनिवार्य है फिर शिक्षकों की कमी को पूरा किए बगैर बच्चों की बुनियादी जड़ किस प्रकार मजबूत की जा सकती है। बिहार अपनी स्थापना के सौ वर्ष पूरे कर रहा है। इन सौ वशोर्ं में यदि विकास की हमारी गति कछुआ चाल भी रहे तो कोर्इ गम नहीं परंतु योजनाओं और धरातल पर अस्ली तस्वीर के बीच फासला तो यही जाहिर करता है कि बिहार दो कदम आगे बढ़कर चार कदम पीछे हटता है। जिसे नजरअंदाज करना गंभीर हो सकता है। (चरखा फीचर्स)

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