साहित्य में राष्ट्रीय धारा ही मुख्यधारा का वैकल्पिक औजार

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जाति, नस्ल, धर्म व संप्रदाय की पूर्ण आहूति ही राष्ट्रीय धारा का शंखनाद

-आशीष आशू- caste-system-01

साहित्य में कई धाराओं या विचारों का समावेश होता है. एक पाठक के लिए साहित्य, समाज में व्याप्त अच्छे व बुरे गतिविधियों या चलन को जानने व समझने का माध्यम होता है. पाठक किसी भी लेखक व रचनाकार की दृष्टि को अपनी दृष्टि से जांचता व परखता है, यही उस साहित्य की सफलता व असफलता का पैमाना होता है. भारत में साहित्य विद्या की शुरुआत संवत् 1050 मानी जाती है, समय व काल-विभाजन के अनुसार संवत् 1050 से 1350 तक आदिकाल व वीरगाथा काल, संवत् 1350 से 1700 तक भक्तिकाल, संवत् 1700 से 1900 तक रीतिकाल और 1900 से अब तक आधुनिककाल में देखा जा सकता है.

आस्था-अनास्था, उपासना-विक्षोभ, प्रेम- संभोग, ज्ञान-अज्ञान, स्वतंत्रता-परतंत्रा, षोशण-मुक्ति, राश्ट्र्र-जागरण व मानवीय दुर्बलता आदि सामाजिक जीवन की अनिवार्य अवस्थाओं का चित्रण भारतीय साहित्य के उक्त कालों में मिलता है. वस्तुतः यह सवाल उठना लाजिमी है, कि आखिर साहित्य है क्याघ् एक जवाब तो यह हो सकता है, कि मानव के अंतःकरण व अवचेतन मन का संपूर्ण चित्रण ही साहित्य हैे, एक दूसरा जवाब यह भी हो सकता है, कि मानव सभ्यता के निरंतर विकास की एक महत्वपूर्ण मानसिक अवस्था व प्रक्रिया. इसमें जरा भी अतिषयोक्ति नहीं कि किसी भी समाज के लिए साहित्य का होना बेहद अनिवार्य कारक है.

भारतीय साहित्य के इतिहास पर थो.डी चर्चा कर ली जाये ताकि एक स्पश्ट रेखा समाज के समक्ष आ सके. आदिकाल या वीरगाथा काल, इस काल में वीरों की गाथाएं मिलती है, साथ ही बहुत-सी भाषाओं व विभाषाओं में साहित्य सृजन हुआ है. चन्दरवरदाई का पृथ्वीराज रासो, नरपति नाल्ह का वीसलदेव रासो, विद्यापति का कीर्तिपताका और कीर्तिलता आदि ग्रंथ इसी काल की रचना है. इस काल में डिंगल और पिंगल भाशा के साहित्य की प्रधानता रही है. आदिकाल के अंत में अमीर खुसरो हुये, जिनकी मुकुरियां, दुसुखने बेहद लोकप्रिय हुये. खड़ी बोली के जनक खुसरो की उक्त रचनाएं यथार्थ जीवन की अनुभूति है. हरियाणा में जन्मे रइधू देशभाशा- साहित्य के महान कवि माने जाते हैं. खुसरो के बाद भक्तिकाल का श्रीगणेश होता है, इसमें निर्गुण व सगुण धारा की प्रधानता है. निर्गुण धारा की दो शाखाएं ज्ञानमार्गी व प्रेममार्गी. समाज सुधारक कबीर ज्ञनमार्गी शाखा के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं, साथ ही गुरुनानक देव, भक्त रैदास, दादू, मलूकदास आदि भी इसी श्रेणी के कवि हुये हैं. इस काल की सभी रचनाएं, समाज में व्याप्त छूआछूत, अंधविश्वास, रुढ़िवादिता पर जोरदार प्रहार करती है. इसी काल में सूफियाना संतों का भी समाज पर दस्तक होता है, इनमें जायसी, कुतबन, मंझन आदि कवियों ने भारतीय जीवन की कथाओं के माध्यम से सूफीमत का प्रचार किया. प्रेम का आधार लेकर ईश्वर प्राप्ति का मार्ग सूफी संतों ने प्रशस्त किया. वहीं सगुण भक्तिधारा में रामानुजाचार्य, निम्बार्काचार्य, मध्वाचार्य, रामानंद और वल्लभाचार्य, सूरदास, तुलसीदास, नंददास, चतुर्भुजदास, कुंभनदास, छीत स्वामी, व गोविंद स्वामी सहित रहीम व रसखान आदि प्रमुख कवि हैं, सनद् रहे कि सगुण भक्ति काल में रामभक्ति व कृष्णभक्ति शाखा दो धाराएं बहीं.

महामानव श्रीकृष्ण की भक्ति-भावना की धारा से ही रीतिकाल का उदय माना जाता है. रीतिकाल के काव्य में केशव, चिंतामणि, बिहारी, भूषण व सूदन आदि कवियों द्वारा अलंकार, रीति, गुण, रसादि आदि पर सुंदर रचनाएं मिलती है.

भारतेंदु हरिशचन्द्र को आधुनिक भारतीय साहित्य का जनक माना जाता है. इस युग के काव्य को विकास की दृष्टि से भारतेंदु युग, द्विवेदी युग, छायावादी व रहस्यवादी युग और प्रगतिवादी आदि युगों में विभक्त किया जा सकता है.

इस युग के कवियों में अंबिकादत्त व्यास, रायदेवी प्रसाद पूर्ण, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, मैथिलीशरण गुप्त, रामेष्वरी देवी, माखनलाल चतुर्वेदी, नरेंद्र षर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, हरिवंशराय बच्चन, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन, डॉ. भगवतीचरण वर्मा, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन शास्त्री, गजानन माधव मुक्तिबोध, गिरिजा कुमार, केदारनाथ सिंह, नारायण त्रिपाठी समेत कई नामों का उल्लेख मिलता है.

भारतीय साहित्य व समाज में मुख्यधारा नामक तत्व की मौजूदगी एक महत्वपूर्ण प्रश्न बनकर उभरी है. आखिर यह मुख्यधारा है क्या सूक्ष्म स्तर पर मुख्यधारा को देखने से कुछ तथ्य सामने आते हैं, मसलन मुख्यधारा पूर्णतः एक वर्ग विशेष की नैसर्गिक आंतरिक गुण का प्रतिबिंब होता है, जिसमें स्व के राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक पहलू की भावना ही सर्वोपरि होती है. साथ ही इसमें स्त्री देह, नस्लीय भावना और तानाशाही प्रमुख टूल्य के तौर पर बराबर इस्तेमाल में लाये जाते हैं. यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि वह वर्ग विशेष अगड़ा व पिछड़ा दोनों जगहों पर एक ही रुप में मौजूद रहता है। हालांकि इससे बराबर इंकार किया जाता रहा है. संभवतः इन्हीं कारणों से भारतीय साहित्य के अंदर घोर नस्लीय मानवीय रुग्णता पर हर युग में प्रहार होता रहा है. मजे की बात तो यह है कि मुख्यधारा के तमाम रहनुमा व मठाधीश स्त्री देह व पूंजीवाद के ईद-गिर्द ही पूरे समाज का चित्रण करना एक पेशा बना चुके हैं. आश्चर्य नहीं कि भारतीय समाज में इस मुख्यधारा को करीब-करीब मान्यता मिल चुकी है और इसी के ईद-गिर्द ही यह समाज सोचता व विचारता है. एक दिलचस्प तथ्य भारतीय साहित्य में यूरोपीय साहित्य को लेकर नकारने की प्रवृत्ति. भी रही है, इसके पीछे एक तर्क यह दिया जाता है वो काल्पनिक साहित्य रचते है, जबकि कई यूरोपीय साहित्य यथार्थ के नजदीक ही होते है, असल में यह भी जान-बूझकर फैलाया गया भ्रम ही है, क्योंकि हर साहित्य अपने अंदर उस देश का भौगोलिक, भाशायी, सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक चित्रण लिये हुये रहता है, जिसे खारिज नहीं किया जा सकता है. असल में मुख्यधारा नामक वर्चस्वकारी व्यवस्था की पूरी उपज ही सामाजिक न्याय को पूर्णतः कुचलने के लिए ही हुई थी. यह प्रश्न उठ सकता है कि आखिर इस बात का आधार क्या है. इस बात का आधार है, भारतीय साहित्य में मौजूदा सवर्ण व अगड़ा जाति तंत्र का बोलबाला, जिसमें मुख्य रुप से ब्राहांण, राजपूत, कायस्थ, वहीं गैर सवर्ण व पिछड़ा तंत्र में वैश्य, यादव आदि जातियों के कवियों व साहित्यकारों का जमावड़ा आश्चर्य यह है कि भारतीय समाज में कबीर, रैदास, तुलसीदास आदि समाज सुधारक कवियों को लेकर प्रायः दोनों वर्गों की प्रभावकारी जातियां अपने-अपने तरीके से दावा करते रही है.

सवर्ण व गैर-सर्वण की प्रभावकारी जातियों की उन्माद का ही परिणाम है, कि भारतीय साहित्य में मौलिक शोध एक दुश्कर विषय हो चुका है. जिस पर देश के कई शिक्षाविदों व विद्वानों की टिप्पणियां आ चुकी है. 90 के दशक के बाद देश में उदारवाद व पूंजीवाद एक प्रमुख विशय साहित्य प्रेमियों व कवियों का रहा है. लेकिन इनमें कितने देश के गांव, कस्बे, टोले में रहने वाले गरीब भारतीयों के ह्दय को बदलाव के लिए भेद सके है, साथ ही उन्हें इस बात का पुख्ता यह अहसास दिला सके हैं कि भारतीय साहित्य में आज भी कबीर, रैदास, तुलसीदास, प्रेमचंद्र, रामधारी सिंह दिनकर, सिर्फ उनके सामाजिक उत्थान के लिए अनवरत् साहित्य साधना कर रहे हैं. कुछ अपवाद जरूर है, लेकिन भारतीय साहित्य में एक-दूसरे के साथ भीतरघात की प्रवृत्ति व नारी देह की उपासना मौजूदा दौर की भयानक सच्चाई है. आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि देश की राजधानी व राज्यों की राजधानी में ऐसे साहित्यकार सामाजिक विद्यटन को ही बढ़ावा देने में अपनी साहित्यिक ध्येय बना चुके हैं. इसलिए भारतीय साहित्य में स्वस्थ्य आलोचना का हमेशा से अभाव देखा गया है.

समाज सुधारक कवि कबीर की पंक्ति जिसके बोल है, माटी कहै कुम्हार से, तू क्या रुॅंदै मोहि, इक दिन ऐसा आयेगा मैं रुदूंगी तोहि, पूरी तरह से मुख्यधारा व वर्चस्वकारी तंत्र के उपर प्रहार है, जिसका स्थान मौजूदा दौर में वैक्ल्पिक साहित्य ले रहा है. वैक्ल्पिक साहित्य मुख्य तौर पर सोशल नेटवर्किंग साईटों व ब्लॉग पर उकेरे जा रहे हैं. यहां कोई रुकावट नहीं है, जो आमतौर पर भारतीय साहित्य में देखने को मिलते रही है. आपके हर तरह के विचार की शाब्दिक गति को बड़ा पाठक वर्ग पढ़ रहा है और अपनी प्रतिक्रिया दे रहा है. यह भी दिक्कत नहीं है कि आपकी धारा में किस विचार का अंश है, आखिर वह आपका मौलिक विचार है. संभवतः इसलिए मुख्यधारा नामक तंत्र सिकु.डता जा रहा है और जो तंत्र आकार ले रहा है वह राष्ट्रीय विचारधारा के ज्यादा नजदीक है. महामानव बुद्ध की उक्ति, जिसमें वो कहते हैं कि न हि वेरेन वेरानि सम्मन्तीध कुदाचनं, अवेरेन च सम्मन्ति एस धम्मो सनन्तनो, धम्मपद-1, 5, अर्थात् वैर से वैर शांत नहीं होता, अवैर से ही वैर शांत होता है, यही सनातन धर्म है. इसलिए यह विचारणीय होना चाहिए कि देश की साहित्यिक गतिविधियां पूरी तरह से राष्ट्रीय विचारधारा को ही पोषित करें, जिसमें जाति, नस्ल, धर्म, वर्ग का पूर्णतः खंडन सामूहिक शंखनाद के स्वर में देश के हर पाठकों तक पहुंचे।

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