न राष्ट्रवाद, न ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ यूपी ने चुना समाजवाद

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तनवीर जाफरी

उत्तरप्रदेश के मतदाताओं ने चुनावी पंडितों के सभी पूर्वानुमानों को झुठलाते हुए प्रदेश में पूर्ण बहुमत से समाजवादी पार्टी की सरकार को चुन लिया है। इस बात की उम्मीद तो की जा रही थी कि सपा ही प्रदेश में सबसे बड़े राजनैतिक दल के रूप में उभरेगी। परंतु प्रदेश की 224 विधानसभा सीटों पर सपा की विजय पताका लहराने की कोई भी उम्मीद नहीं कर रहा था। शायद स्वयं मुलायम सिंह यादव भी नहीं। इन परिणामों के बाद जहां समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं तथा समाजवादी विचारधारा के लोगों के हौसले बुलंद हैं वहीं स्वयं को गांधीवादी व राष्ट्रवादी विचारधारा का पैरोकार बताने वाली कांग्रेस पार्टी तथा ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवादी’ का चोला लपेटने वाली भारतीय जनता पार्टी जैसे राष्ट्रीय दलों के लिए समाजवाद का उत्तर प्रदेश में इस प्रकार उभरना चिंताका विषय बन गया है।

उत्तर प्रदेश की जनता ने केवल समाजवादी पार्टी के पक्ष में पूर्ण बहुमत दिए जाने का निर्णय ही नहीं सुनाया है बल्कि कांग्रेस व भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों को क्रमश: 28 व 47 सीटों तक ही समेट कर इन दलों को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया है। हालांकि कांग्रेसी ख़ेमे में तो अपने आंसू पोंछते हुए यह तर्क भी दिए जा रहे हैं कि 2007 के विधानसभा चुनावों में पार्टी ने प्रदेश में कुल 22 सीटें जीती थीं। जो इस बार 2012 के चुनाव में बढक़र 28 हो गई हैं। यानी कांग्रेस को 6 सीटों का फायदा हुआ है। परंतु भाजपा को तो मुंह छुपाने की जगह भी नहीं मिल पा रही है। क्योंकि ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की बात करने वाली इस भाजपा को 2007 में जहां 51 सीटें मिली थीं वहीं इस बार उनकी संख्या मात्र 47 रह गई हैं। यहां यह बताना ज़रूरी है कि कांग्रेस व भाजपा दोनों ने ही उत्तर प्रदेश चुनाव में सत्ता हासिल करने के लिए व पार्टी के बेहतरीन प्रदर्शन के लिए जितना प्रयास हो सकता था वह कर दिखाया। परंतु आखिरकार प्रदेश की जनता ने अपनी मर्जी से समाजवादियों को ही सत्ता की बागडोर सौंपी।

सवाल यह है कि जिस सपा को 2007 में इसी राज्य की जनता ने कुशासन, गुंडागर्दी तथा पार्टी के फिल्मी व कारपोरेट कल्चर से तंग आकर सत्ता से हटा दिया था तथा 2009 में हुए संसदीय चुनावों में तो पार्टी को कांग्रेस से पीछे ढकेल दिया था वही सपा आखिर इतने कम अंतराल में पुनः सत्ता मे कैसे अपनी मजबूत दावेदारी पेश कर सकी ? निश्चित रूप से मायावती के माला, मूर्ति व भ्रष्टकल्चर से तंग प्रदेश के मतदाता राज्य में बदलाव का संकेत तो दे रहे थे। परंतु सवाल यह है कि आखिर उन्होंने बसपा के स्थान पर राष्ट्रीय दलों को चुनने के बजाए पुन: उसी सपा को ही क्यों चुना जिसे कि 2007 में इन्हीं मतदाताओं ने सत्ता से दूर किया था? याद कीजिए पांच वर्ष पूर्व की वह समाजवादी पार्टी जिसमें कि अमरसिंह जैसे बहुरूपीये नेता के माध्यम से फल्मी सितारों व कारपोरेट घरानों के लोगों की इस कद्र घुसपैठ बढ़ गई थी कि समाजवाद का वास्तविक चेहरा इस ग्लैमर की चकाचौंध में धुंधला होने लगा था। उस दौर में यह माना जाता था कि अमरसिंह ही मुलायम सिंह यादव के न केवल सिपहसालार हैं बल्कि मुख्य सलाहकार भी हैं। चाहे किसी को राज्य का अंबेसडर बनाना हो, राज्य में मंत्री अथवा चेयरमैन की नियुक्ति, लोकसभा, राज्यसभा- विधानसभा या विधान परिषद् के टिकट बंटवारे की बात हो या फिर कारपोरेटस के प्रदेश में टांग फैलाने का सिलसिला हो, इन सभी में अमरसिंह का पूरा दखलरहता था। यहां तक कि 2009 में कल्याण सिंह जैसे बदनाम मुख्यमंत्री रहे नेता को समाजवादी पार्टी में लाने का चक्रव्यूह भी अमरसिंह ने ही रचा। अपने इस फैसले को सही ठहराने के लिए उन्होंने सपा में कल्याण सिंह की स्थिति कर बला के मैदान में हुर जैसी बयान कर डाली। कुल मिलाकर इन सभी गलत फैसलों ने सपा को दिन -प्रतिदिन इतना कमज़ोर कर दिया कि अमरसिंह के पार्टी में रहते-रहते तमाम सपा नेता जैसे कि बेनी प्रसाद वर्मा,आज़म खां, शाहिद सिद्दीकी तथा राजबब्बर जैसे लोग सपा के ‘अमर कल्चर’से तंग आकर पार्टी छोड़ गए। यह सभी अमरसिंह को सपा के दलाल की संज्ञा तक देते थे।

परंतु शीघ्र ही सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव को अपनी गल्तियों का एहसास होना शुरु हो गया और उन्होंने समाजवादी पार्टी को इस चकाचौंध व ग्लैमर भरे कल्चर से मुक्त करने का फैसला करते हुए पार्टी को अमर सिंह से ही मुक्ति दिला दी। ऐसे में अमर सिंह व कल्याण सिंह दोनों ही एक-एक कर सपा से दूर होगए और आज़म खां व शाहिद सिद्दी की जैसे लोगों की सपा में वापसी हो गई। फल्मी सितारों की चकाचौंध से भी पार्टी ने खुद को दूर कर लिया। इन हालात में प्रदेश की जनता ने एक बार फिर समाजवादी पार्टी में वास्तविक समाजवाद की छवि देखना शुरु कर दी। मुस्लिम मत जो कल्याण सिंह की सपा में घुसपैठ से दूर होने शुरु हो गए थे वह पुन: सपा की ओर मुड़ गये। रही-सही कसर मुलायम सिंह यादव के सांसद पुत्र अखिलेश सिंह यादव ने तब पूरी कर दी जबकि उन्होंने विदेश में रहकर शिक्षा ग्रहण करने के बावजूद राजनैतिक मैदान में ठेठ देसी अंदाज़ में रहना-सहना व समाजवादी पहचान के रूप में सिर पर लाल टोपी रखकर साईकल पर चलना शुरु कर दिया। प्रदेश के मतदाताओं को समाजवादी पार्टी के इस नए चेहरे से काफी उम्मीदें दिखाई दीं। दूसरी ओर 2012 में प्रदेश में मतदान का प्रतिशत ऐतिहासिक रहा। प्रदेश के युवा मतदाताओं ने इस बार भारी संख्यामें मतदान में हिस्सा लिया। चूनावी पण्डित परिणाम की प्रतीक्षा में थे। वेये जानना चाहते थे कि नए युवा मतदाताओं का रुझान राहुल गांधी के पक्ष में है, सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों की ओर है या फिर सपा के युवराज अखिलेश कीओर। चुनाव परिणामों ने यह साबित कर दिया कि प्रदेश का युवा अखिलेश की देसी शैली का न केवल कायल हुआ है बल्कि उसे सपा के उन वादों ने भी प्रभावित किया जिसमें कि पार्टी ने प्रदेश के शिक्षित युवाओं को लैपटॉप व टैबलेट कम्पयूटर देने का वादा किया था।

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी बड़ी विनम्रता से इस वास्तविकता को स्वीकार किया है कि कांग्रेस की हार का कारण जहां कांग्रेस प्रत्याशियों का गलत चयन था, वहीं मंहगाई भी इसका एक कारण है। राहुल गांधी ने भी हार की जि़म्मेदारी स्वयं स्वीकार करते हुए प्रदेश में संगठन की कमज़ोर होने की बात स्वीकार की है। परंतु इन दोनों ने ही सपा सरकार को बधाई भी दी है तथा सत्ता संचालन में सहयोग की बात कही है। यहां यह का बिलेगौर है कि कांग्रेस पार्टी ने अपने प्रत्याशियों की जो सूची घोषित की, उनमें 168 प्रत्याशी ऐसे थो, जो या तो अन्य दलों को छोडक़र कांग्रेस में केवल पार्टी टिकट के चलते शामिल हुए थे या फिर उन्हें दूसरी पार्टियों ने टिकट देने से इनकार कर दिया था। ज़ाहिर है इस प्रकार के थोपे हुए प्रत्याशी कांग्रेस के ज़मीनी व समर्पित कार्यकर्ताओं को नहीं भाए। इनमें से अधिकांश प्रत्याशी चुनाव हार भी गए। परंतु कांग्रेस पर लगने वाले मंहगाई व भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों केबावजूद पार्टी फिर भी 6 सीटों की बढ़ोतरी कर पाने में सफल रही जबकि राज्यके चुनाव में सबसे बुरा हाल ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों’ का हुआ। न जाने कौन सी रणनीति के तहत भाजपा नेताओं ने उस बाहुबली व भ्रष्ट नेता बाबुराम कुशवाहा को ठीक चुनाव से पूर्व पार्टी में शामिल करने का जोखिम उठाया जिसेकि मायावती ने अपने मंत्रीमंडल से बाहर निकाल फेंका था। प्रदेश में भ्रष्टाचार का सिरमौर बने कुशवाहा का भाजपा में शामिल होना प्रदेश के मतदाताओं को इसलिए और भी चकित कर गया क्योंकि भाजपा न केवल सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बातें करती रहती है, बल्कि अन्ना हज़ारे व बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को भी अपना समर्थन देती रही है। परंतु चुनाव पूर्व बाबुराम कुशवाहा का भाजपा में शामिल होना भाजपा के दोहरे चरित्र का एक जीता-जागता ताज़ा उदाहरण बन गया।

इसके अतिरिक्त इस सांस्कृतिक राष्ट्रवादी दल को प्रदेश में पार्टी नेताओं की लंबी क़तार होने के बावजूद नेताओं की अन्र्तकलह के चलते स्थानीय नेताओंपर विश्वास नहीं रहा। यही वजह थी कि पार्टी ने जहां मध्य प्रदेश से उमा भारती को बुलाकर साध्वी,महिला, फायरब्राण्ड तथा भगवा व्यक्तित्व जैसे सभी हथकंडे प्रयोग करने की कोशिश की, वहीं उनका साथ देने वाले नेता भी अन्यराज्यों से ही बुलाए गए। इनमें महाराष्ट्र से संबंध रखने वाले संजय जोशी व छत्तीसगढ़ के करुणा शुक्ला के नाम प्रमुख हैं। ज़ाहिर है प्रदेश केमतदाताओं को अयोध्या विवाद से लेकर बाबुराम कुशवाहा व उमा भारती तक के पार्टी के फैसलों में केवल तिकड़म बाज़ी व कोरी राजनीति ही नज़र आई।परिणामस्वरूप जनता ने इन सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों को भी आईना दिखा दिया। कुल मिलाकर आने वाले 2014 के लोकसभा चुनाव दोनों ही राष्ट्रीय दलों के लिए खतरे की घंटी साबित हो सकते हैं। जिस प्रकार उत्तर प्रदेश की जनता ने कांग्रेस के राष्ट्रवाद व भाजपा के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को ठुकराते हुए, सपा के समाजवाद को गले लगाया है, उससे ऐसा प्रतीत होने लगा है कि देश एकबार फिर गैर कांग्रेस व गैर भाजपा गठबंधन की ओर चलने जा रहा है।

 

2 COMMENTS

  1. जाफरी साहब, पिछली दफा हम समाजवाद के इसा घिनौने चहरे को देख चुके हैं. इसा बार सहहरा बदल गया है लेकिन सोच नहीं.
    दर असल ये समाजवाद की जीत नहीं बल्कि मायावती के खिलाफ नकारात्मक वोटो की परिणीती है.

  2. उ. प्र. में सपा के पास क.म. बन्ने लायक अखिलेश और जनता को लुभाने वाला साफ अगेंडा था जबकि कांग्रेस, भाजपा और बसपा के पास विकल्प नहीं था.

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