-तनवीर जाफ़री
इसमें कोई शक नहीं कि हमारा देश भारतवर्ष अनेकता में एकता, सर्वधर्म समभाव तथा सांप्रदायिक एकता व सद्भाव के लिए अपनी पहचान रखने वाले दुनिया के कुछ प्रमुख देशों में अपना सर्वोच्च स्थान रखता है। परंतु दुर्भाग्यवश इसी देश में वैमनस्य फैलाने वाली तथा विभाजक प्रवृति की तमाम शक्तियां ऐसी भी सक्रिय हैं जिन्हें हमारे देश का यह धर्मनिरपेक्ष एवं उदारवादी स्वरूप नहीं भाता। कहना ग़लत नहीं होगा कि भारतीय समाज में इन्हीं शक्तियों की सक्रियता के परिणामस्वरूप इसी सर्वधर्म समभाव के विश्व के सबसे बड़े अलमबरदार देश भारत वर्ष को मात्र 1947 से लेकर अब तक कम से कम 4 ऐसी बड़ी हिंसक घटनाओं से जूझना पड़ा है जो पूर्णतया सांप्रदायिक दुर्भावना पर आधारित थीं। इनमें सर्वप्रथम 1947 का भारत-पाक विभाजन,उसके पश्चात 1984 के सिख विरोधी दंगे, तत्पश्चात 6 दिसंबर 1992 का बाबरी मस्जिद विध्वंस तथा 2002 के गुजरात दंगे। उपरोक्त सभी हिंसक घटनाएं देश के लिए विशेषकर देश के धर्म निरपेक्ष व उदारवादी स्वरूप के लिए एक कलंक रूपी सांप्रदायिक हिंसक घटनाएं थीं। निश्चित रूप से उपरोक्त सभी घटनाओं का खामियाज़ा आज तक देश को किसी न किसी रूप में भुगतना पड़ रहा है। यह भी सच है कि उपरोक्त सभी घटनाओं के कारण विभिन्न संप्रदायों केमध्य पैदा हुई दरारों को भी अभी पूरी तरह से भरा नहीं जा सका है।
ऐसे में एक सवाल यह तो जरूर किया जा सकता है कि आखिर देश की अब तक की सबसे बड़ी हिंसक वारदातों से तथा उन जैसी और सैकड़ों तमाम सांप्रदायिक हिंसा फैलाने वाली घटनाओं से अब तक हमारे समाज व देश को आंखिर मिला क्या है। खासतौर पर उन बेगुनाह परिवारों को जो उपरोक्त सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं की भेंट चढ़ गए। इसी के साथ साथ हमें इस बात पर भी नजर रखना जरूरी है कि उपरोक्त घटनाओं के भुक्तभोगियों को भले ही कुछ हासिल हुआ हो या न हुआ हो परंतु आंखिरकार उन घटनाओं का राजनैतिक लाभ उठाने वाला वर्ग विशेष कोई न कोई जरूर है? और इस बात पर भी नजर रखना जरूरी है कि धर्म व संप्रदाय के नाम पर समाज को बांटने या उसकेमध्य टकराव की स्थिति पैदा करने के परिणामस्वरूप कौन सा वर्ग लाभान्वित होता है। जिस दिन हम भारतवासियों की नारें उन शक्तियों तक पूरी सूझबूझ, पारदर्शिता व निष्पक्षता के साथ पहुंच पाएंगी उसी दिन हमारे देश में न तो हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, पारसी आदि को लेकर फैली सांप्रदायिकता या वर्गवाद रह जाएंगे और न ही मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, गिरिजाघरों, दरगाहों, इमामबाड़ों, शिवालों तथा किन्हीं अन्य धर्मस्थलों को किसी भी धर्मावलंबी से कोई खतरा नजर आएगा।
कितनी अफसोसनाक बात है कि एक ओर तो अयोध्या के विवादित मंदिर-मस्जिद प्रकरण को लेकर माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच अपना निर्णय सुनाने की तैयारी में है तो दूसरी ओर देश में ऐसा वातावरण बनता दिखाई दे रहा है गोया पृथ्वी पर कोई बहुत बड़ी घटना घटने जा रही हो। पूरे देश विशेषकर उत्तर प्रदेश में हाई अलर्ट जैसी स्थिति है। अतिरिक्त सुरक्षा बलों की तैनाती, अस्पतालों में किसी अनहोनी से निपटने के उपाय, उच्च न्यायालय की जबरदस्त सुरक्षा, यहां तक कि जिन तीन सदस्यीय न्यायपीठ को निर्णय सुनाना है उन तीनों माननीय न्यायधीशों की अलग-अलग विशेष सुरक्षा के उपाय किए गए हैं। जाहिर है इन सब सुरक्षा संबंधी उपायों का कारण केवल एक ही है कि ऐसी आशंका है कि अयोध्या के विवादित स्थल के संबंध में उच्च न्यायालय का निर्णय जिसके पक्ष में आएगा वह पक्ष अति उत्साहित होगा तथा दूसरा पक्ष नाराज व निराश। और यही उत्साह, नाराजगी व निराशा देश को सांप्रदायिक हिंसा की आग में धकेल सकते हैं। ज़रा सोचिए उपरोक्त संभवनाएं क्या किसी सभ्य समाज में पनपने वाली संभावनाएं प्रतीत होती हैं? या ऐसे वातावरण से साफ तौर पर यह जाहिर होता है कि भारत में इस प्रकार के भावनात्मक फैसले अदालत के द्वारा नहीं बल्कि संख्या व शक्तिबल के आधार पर किए जाने चाहिए? जैसाकि 6 दिसंबर 1992 को हुआ?
एक भारतीय नागरिक होने के नाते तथा देश में सांप्रदायिक सद्भावना बनाए रखने की खातिर मेरा भी यही मत है कि भव्य राम मंदिर का निर्माण अयोध्या में ही हो। मैं यह भी मानता हूं कि बाबरी मस्जिद चूंकि इतने विवादित स्थल पर निर्मित है कि शरीयत के अनुसार भी वहां पढ़ी जाने वाली नमाज का अब कोई मूल्य नहीं रह गया है। इस्लाम धर्म विवादित स्थल पर नमाल पढ़ने की कतई इजाजत नहीं देता। परंतु बात दरअसल मंदिर या मस्जिद पर कब्जे को लेकर है ही नहीं। बात तो दरअसल शक्ति प्रदर्शन तथा वर्चस्व दिखाने को लेकर है। जिसका प्रयास देश के विभाजन के समय से ही होता चला आ रहा है। जहां तक भगवान राम का प्रश्न है तो रहीम, रसखान व जायसी से लेकर इकबाल जैसे मुस्लिम कवियों ने भी अपने काव्यों में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम का गुणगान तथा उनकी प्रशंसा की है। गोया भगवान राम का अस्तित्व अविवादित है। सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा जैसा अमर गीत लिखने वाले शायर इक़बाल, भगवान राम के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए स्वयं कहते हैं—है राम के वजूद पे हिंदोस्तां को नाज। अहले नजर कहते हैं जिसको इमाम-ए-हिंद॥ परंतु अफसोस इस बात का है कि भगवान राम के नाम तथा उनके जन्म स्थान को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर किया जाने वाला शोर-शराबा पूर्णतया राजनैतिक है तथा यह हमारे देश की सांप्रदायिक एकता के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
अयोध्या विवाद की बुनियादी हकीकत को अयोध्या जाकर समझा व देखा जा सकता है। साहित्यकार एवं लेखक स्वर्गीय कमलेश्वर ने अयोध्या नगरी का स्वयं दौरा किया था। अपने अयोध्या प्रवास के पश्चात उन्होंने सुलगते शहर का सफरनामा नामक एक पुस्तिका लिखी तथा बाद में अपने प्रसिद्ध उपन्यास कितने पाकिस्तान में भी विवादित अयोध्या प्रकरण का बखूबी जिक्र किया। कमलेश्वर अपने अयोध्या प्रवास के दौरान रामजन्म भूमि न्यास के तत्कालीन प्रमुख साकेतवासी श्री रामचंद्र परमहंस जी से भी मिले तथा बाबरी मस्जिद की ओर से मुख्य ट्रस्टी हाशिम अंसारी से भी उन्होंने मुलाकात की थी। दोनों का एक साथ बैठकर यह सांफ कहना था कि यदि ‘बाहरी शक्तियां’ इस मामले में दखल देना बंद कर दें तो हम अयोध्यावासी इस विवाद को स्वयं सुलझा लेंगे। परंतु ‘वह लोग’ हमें ऐसा नहीं करने देते। दरअसल देश को खतरा भी उन्हीं ‘वह लोगों’ से ही है जो मात्र सत्ता तक पहुंचने हेतु अपनी राजनैतिक रोटियां सेकने के लिए मंदिर या मस्जिद के नाम का बवंडर खड़ा कर कहीं बहुसंख्यक मतों के ध्रुवीकरण का प्रयास करते हैं तो कहीं अल्पसंख्यक मतों को आकर्षित करने की कोशिश की जाती है। भारतीय जनता पार्टी तो अपनी पूरी राजनैतिक दुकानदारी ही भगवान राम के नाम पर चला रही है। कल्याण सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में 6 दिसंबर 1992 को भाजपा ने ही संवैधानिक जिम्मेदारियों को धत्ता बताते हुए अयोध्या में उस घटना को अंजाम दे डाला जिससे न केवल पूरे विश्व में हमारे देश की किरकिरी हुई बल्कि भारत में भी सांप्रदायिक दुर्भावना की दरारें और गहरी हो गईं। यदि हम मान लें कि भाजपा के लिए तथा भाजपा संरक्षक संगठनों जैसे आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद् के लिए बाबरी मस्जिद का विध्वंस कल्याण सिंह की संवैधानिक जिम्मेदारियों से भी अहम व ऊंचा था तो भी दो बातें और सामने आती हैं। एक तो यह कि ऐसे में 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी ने राम मंदिर मुद्दे को हाशिए पर डालकर अन्य धर्मनिरपेक्ष दलों के साथ समझौता कर केंद्र में अपनी सरकार क्यों बनाई? यहां कल्याण सिंह की उत्तर प्रदेश सरकार की ही तरह केंद्र सरकार को भी भगवान राम के नाम पर कुर्बान करने जैसा फार्मूला क्यों नहीं अपनाया गया? दूसरी बात यह कि फरवरी 2002 में जब उत्तर प्रदेश में चुनाव हुए उस समय भी भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनाव घोषणापत्र तक में राम मंदिर निर्माण के विषय को शामिल नहीं किया। और इन सब अवसरवादी राजनैतिक दावंपेंच के बावजूद न जाने आज फिर इसी पार्टी के कई प्रमुख नेता यही बोलते नजर आते हैं कि भगवान राम के मंदिर का निर्माण मेरे लिए सर्वोपरि है। गोया अभी तक यह देशवासियों को यह बता ही नहीं पा रहे हैं कि वास्तव में उनके लिए सत्ता सर्वोपरि है या भगवान राम का मंदिर निर्माण?
कुल मिलाकर अयोध्या प्रकरण के सद्भावना पूर्ण समाधान के पक्ष में दो ही बातें समझ में आती हैं। एक तो यह कि इस मामले का समाधान केवल संबंधित पक्षों के मध्य सौहार्द्रपूर्ण बातचीत के द्वारा ही निकाला जाना चाहिए। हां इतना जरूर है कि बातचीत से समाधान निकालने वाले दोनों ही पक्षों को यह सोचकर वार्ता की मेज पर बैठना चाहिए कि उनकी नारों में देश की एकता, अखंडता, सांप्रदायिक सौहाद्र ही सर्वोपरि है। दूसरी बात यह कि दोनों ही पक्षों को त्याग, समर्पण, भाईचारा, सौहार्द्र को सबसे आगे रखकर बात करनी चाहिए। अपने पक्ष में पाए जाने वाले इतिहास के पन्नों में उलझना, बेवजह की बातों को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाना या नफरत तथा विद्वेष को दिलों में रखकर वार्ता करना आदि समस्या का समाधान हरगिज नहीं हो सकता। हमारे ऐसे वार्ताकारों को यह भी याद रखना चाहिए कि देश के समक्ष इस समय सबसे बड़ी चुनौती भूख, बेराजगारी, स्वास्थ्य व शिक्षा को लेकर है न कि मंदिर और मस्जिद जैसे आस्था संबंधी मामलों को लेकर। और यदि ऐसी सद्बुद्धि हमारे वार्ताकारों में न पैदा हो सके तो अदालत का फैसला सर्वमान्य होना चाहिए। परंतु किसी भी शक्ल में देश में तनावपूर्ण वातावरण का पैदा होना तथा इनसे निपटने की तैयारियों में सरकार का ध्यान बटना तथा उन पर सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च होना किसी भी सभ्य समाज के लिए अत्यंत शर्मनाक तथा अफसोसनाक घटनाक्रम ही कहा जा सकता है। देश में सांप्रदायिक सौहार्द्र से परिपूर्ण वातावरण की कल्पना करते हुए देश की प्रसिद्ध शायरालता हया ने फरमाया है कि –
या रब हमारे मुल्क में ऐसी फिजा बने।
मंदिर जले तो रंज मुसलमान को भी हो॥
पामाल होने पाए न मस्जिद की आबरू।
यह फिक्र मंदिरों के निगेहबान को भी हो॥
सम सामयिक आलेख है ,आमीन …तथास्तु ….निश्चिन्त रहें .शैतान का दाव नहीं चलने दिया जायेगा .जो होगा ,क़ानून के दायरे में या द्विपक्ष्यीय समझोते से ही होगा .
वाह …अद्भुत…..तनवीर साहब के एक-एक लफ्ज़ विचार के लायक एवं अनुकरणीय…इश्वर से प्रार्थना है कि देश में ऐसे ही सद्भावना का माहौल कायम रहे.