दो दिन के बंद के आह्वान से एक बार फिर ठहर गयी जिंदगी
पूरा देश के लोकतंत्र के महापर्व से निकले अमृत के पान में व्यस्त है, वहीं छत्तीसगढ़ के सूदूर इलाकों में जिंदगी एक बार फिर ठहर गयी है। नक्सलियों के 20 और 21 मई के बंद के आह्ववान से इस इलाके में सन्नाटा पसरा हुआ है। मीडिया के हवाले से जो खबरें मिल रही हैं उनसे पता चलता है कि बंद के चलते ट्रेन, सड़क यातायात प्रभावित हुआ है। सारे रास्ते बंद हैं और तमाम छात्र अपनी परीक्षाओं से भी वंचित हो गए हैं। यह जनयुद्ध जिनके नाम पर लड़ा जा रहा है उन्हें ही सबसे ज्यादा दर्द दे रहा है। दण्डकारण्य बंद का आह्वान नक्सलियों ने इस बार अपने जेल में बंद साथियों की रिहाई और जेल में उन्हें राजनैतिक बंदियों के समान सुविधाएं देने के लिए किया है। वे अपने इन साथियों को क्रांतिकारी कह कर संबोधित करते हैं और चाहते हैं कि इन्हें राजनीतिक बंदी माना जाए। बंदूक के माध्यम से क्रांति का सपना पाले नक्सलियों ने इस बार अपनी पंचायत में नाटक मंडलियों,गीतों और सभाओं के माध्यम से अपनी बात रखने की कोशिश की है। बस्तर इलाके में बोली जाने वाली हल्बी और गोंडी भाषा में रचे गए गीतों में सलवा जुडूम को निशाना बनाया गया है। जिससे पता चलता है कि सलवा जूडूम इस समय नक्सलियों का सबसे बड़ा दर्द है।
इस बंद के पहले ही दिन उन्होंने किरंदुल- विशाखापट्टनम की रेल पटरी पचास मीटर तक उखाड़ ली, खैर रेल प्रशासन ने पहले ही सेवा बंद के मद्देनजर स्थगित कर रखी थी सो हादसा नहीं हुआ। बारूदी सुरंगें तो सड़कों पर उनका एक बड़ा हथियार हैं हीं। सो दहशत के चलते सड़क परिवहन पूरी तरह दो दिनों से ठप पड़ा है। जगदलपुर- हैदराबाद राजमार्ग तो प्रभावित हुआ ही, बसें आंतरिक क्षेत्रों में भी नहीं चलीं। छ्त्तीसगढ़ का यह इलाका इसी तरह की एक अंतहीन पीड़ा झेल रहा है। लाशें गिर रही हैं। आदिवासी समाज इस खून की होली का शिकार हो रहा है। नक्सली जिनका उद्धार करने के दावे से इस इलाके में आए थे, वही आदिवासी समाज आज बड़ी मात्रा में नक्सलियों या पुलिस की गोली का शिकार हो रहा है। सुरक्षाबलों के जवान भी शहीद हो रहे हैं।
बावजूद इसके हमारी सरकारें न जाने क्यों नक्सलवाद के खिलाफ एक समन्वित अभियान छेड़ने में असफल साबित हो रही हैं। राजनीति की मुख्यधारा में शामिल होने या उसे नियंत्रित करने की आकांक्षाएं किसी भी आंदोलन का अंतिम हेतु होती हैं।
देश का नक्सल आंदोलन भी इस वक्त एक गहरे द्वंद का शिकार है। 1967 के मई महीने में जब नक्सलवाड़ी जन-उभार खड़ा हुआ तबसे इस आंदोलन ने एक लंबा समय देखा है। टूटने-बिखरने, वार्ताएं करने, फिर जनयुद्ध में कूदने जाने की कवायदें एक लंबा इतिहास हैं। संकट यह है कि इस समस्या ने अब जो रूप धर लिया है वहां विचार की जगह सिर्फ आतंक,लूट और हत्याओं की ही जगह बची है। आतंक का राज फैलाकर आमजनता पर हिंसक कार्रवाई या व्यापारियों, ठेकेदारों, अधिकारियों, नेताओं से पैसों की वसूली यही नक्सलवाद का आज का चेहरा है। कड़े शब्दों में कहें तो यह आंदोलन पूरी तरह एक संगठित अपराधियों के एक गिरोह में बदल गया है। भारत जैसे महादेश में ऐसे हिंसक प्रयोग कैसे अपनी जगह बना पाएंगें यह सोचने का विषय हैं।
नक्सलियों को यह मान लेना चाहिए कि भारत जैसे बड़े देश में सशस्त्र क्रांति के मंसूबे पूरे नहीं हो सकते। साथ में वर्तमान व्यवस्था में अचानक आम आदमी को न्याय और प्रशासन का संवेदनशील हो जाना भी संभव नहीं दिखता। जाहिर तौर पर किसी भी हिंसक आंदोलन की एक सीमा होती है। यही वह बिंदु है जहां नेतृत्व को यह सोचना होता है कि राजनैतिक सत्ता के हस्तक्षेप के बिना चीजें नहीं बदल सकतीं क्योंकि इतिहास की रचना एके-47 या दलम से नहीं होती उसकी कुंजी जिंदगी की जद्दोजहद में लगी आम जनता के पास होती है। छोटे-छोटे इलाकों में बंदूकों के बल पर अपनी सत्ताएं कायम कर किसी भी आंदोलन की उपलब्धि नहीं कही जा सकती। क्योंकि तमाम अराजक तत्व और माफिया भी कुछ इलाकों में ऐसा करने में सर्मथ हो जाते हैं। सशस्त्र संघर्ष में भी जनसंगठनों का अपना योगदान होता है। ऐसे में बहुत संभव है कि नेपाल के माओवादियों की तरह अंततः नक्सल आंदोलन को मुख्यधारा की राजनीति में शिरकत करनी पड़ेगी। पूर्व के उदाहरणों में स्व. विनोद मिश्र के गुट ने एक राजनीतिक पार्टी के साथ पर्दापण किया था तो नक्सल आंदोलन के सूत्रधार रहे कनु सान्याल भी हिंसा को नाजाजय ठहराते नजर आए। क्रांतिकारी वाम विकल्प की ये कोशिशें साबित करती हैं कि आंतक का रास्ता आखिरी रास्ता नहीं है। नक्सली संगठनों और स्वयंसेवी संगठनों के बीच के रिश्तों को भी इसी नजर से देखा जाना चाहिए। महानगरों में नक्सली आंदोलन से जुड़े तमाम कार्यकर्ताओं की नियुक्ति की गयी है। वे जनसंगठनों का निर्माण कर सक्रिय भी हो रहे हैं।
संसदीय राजनीति अपनी लाख बुराइयों के बावजूद सबसे बेहतर शासन व्यवस्था है। ऐसे में किसी भी समूह को हिंसा के आधार पर अपनी बात कहने की आजादी नहीं दी जा सकती। नक्सलवाद आज भारतीय राज्य के सामने एक बड़ी चुनौती है। ऐसे में एक साझा रणनीति बनाकर सभी प्रभावित राज्यों और केंद्र सरकार इसके खिलाफ एक निर्णायक लड़ाई लड़नी होगी। जिसमें यह साफ हो कि या तो नक्सल संगठन लोकतंत्र के माध्यम से अपनी बात कहने के लिए आगे आएं, हिंसा बंद करें और इसी संसदीय प्रणाली में अपना हस्तक्षेप करें। अन्यथा किसी भी लोकतंत्र विरोधी आवाज को राज्य को शांत कर देना चाहिए। देश की शांतिप्रिय आदिवासी,गरीब और जीवनसंर्घषों से जूझ रही जनता के खून से होली खेल रहे इस आतंकी अभियान का सफाया होना ही चाहिए। यह कितना अफसोस है कि सलवा जुडूम के शिविरों में घुसकर उनके घरों में आग लगाकर उन्हें मार डालने वाले हिंसक नक्सलियों को भी इस देश में पैरवीकार मिल जाते हैं। वे निहत्थे आदिवासियों की, पुलिस कर्मियों की हत्या पर आंसू नहीं बहाते किंतु जेल में बंद अपने साथियों के मानवाधिकारों के चिंतित हैं। किंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकतंत्र है तभी असहमति का अधिकार सुरक्षित है। आप राज्य के खिलाफ धरने-प्रदर्शन कर रहे हैं। अदालतें है , जहां आप मानवाधिकार की बात कर सकते हैं। क्या आपके कथित क्रांतिकारी राज्य में आपके विरोधी विचारों को इतनी आजादी रहेगी। ऐसे में सभी लोकतंत्र में आस्था रखने वाले लोंगों को यह सोचना होगा कि क्या नक्सली हमारे लोकतंत्र के लिए आज सबसे बड़ा खतरा नहीं हैं। सत्ता में बैठी सरकारों को भी सोचना होगा कि क्या हम अपने निरीह लोगों का खून यूं ही बहने देंगें। एक मानवाधिकार कार्यकर्ता की गिरफ्तारी पर हायतौबा मचाने वाले क्या उन हजारों-हजार आदिवासियों की निर्मम हत्याओं पर भी कभी अपनी जुबान खोलेंगें। समस्या को इसके सही संदर्भ में समझते हुए भारतीय राज्य को ऐसे कदम उठाने होंगे जिससे सूदूर वनवासी आदिवासी क्षेत्रों तक सरकार का तंत्र पहुंचे वहीं दूसरी ओर हिंसा के पैरोकारों को कड़ी चुनौती भी मिले। हिंसा और लोकतंत्र विरोधी विचार किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं है। इस सच को हम जितनी जल्दी समझ लें उतना बेहतर होगा। वरना हमारे लोकतंत्र को चोटिल करने वाली ताकतें ऐसी ही अराजकता का सृजन करती रहेंगीं।
संजय जी आपका लेख पढा. बहुत अच्छा लगा. काफी बेबाकी से आपने तथ्यों को लिखा है और आपके विचार से हर सजीदा इंसान और देश का नागरिक इत्तेफाक रखता ही होगा, ऐसा मुझे लगता है. बहुत बहुत बधाई .
विभाष कुमार झा, रायपुर, छत्तीसगढ़
सर,
यह एक गम्भिर विशय है|इसका तुरन्त हल निकालना चाहिये|
संजय जी, बस्तर के जंगलों में क्रांति के नाम पर हो रहे इस रक्तपात और अराजकता पर सन्नाटा है एक कारण यह भी है कि कम्युनिज्म को बुद्धिजीवी फैशनेबल शाल की तरह ओढे रखना चाहता है इस लिये इस गंभीर समस्या पर कन्नी कटाने वालों में वे ही अधिक हैं। अरंधुति, मेधा जैसे लोगों नें तो मजमा भी लगाया हुआ है नक्सलियों के समर्थन में। लोकतंत्र को नुकसान पहुचाने वाले एसे लोगों के खिलाफ कौन अभियान चलायेगा?…एक शून्य है।